योगसार - संवर-अधिकार गाथा 205
From जैनकोष
अपकार और उपकार करने की भावना व्यर्थ -
स्वदेहोsपि न मे यस्य निग्रहानुग्रहे क्षम: ।
निग्रहानुग्रहौ तस्य कुर्वन्त्यन्ये वृथा मति: ।।२०५।।
अन्वय :- मे स्वदेह: अपि यस्य (मम आत्मन:) निग्रह-अनुग्रहे क्षम: न तस्य निग्रह- अनुग्रहौ अन्ये कुर्वन्ति (इति) मति: वृथा ।
सरलार्थ :- जहाँ मेरा शरीर भी मुझ आत्मा पर अपकार-उपकार करने में समर्थ नहीं है, वहाँ अन्य कोई जीव अथवा पुद्गल द्रव्य मुझ आत्मा पर अपकार अथवा उपकार करते हैं, यह मान्यता सर्वथा व्यर्थ/असत्य है ।