योगसार - संवर-अधिकार गाथा 226
From जैनकोष
कोई भी द्रव्य इष्ट-अनिष्ट नहीं -
इष्टोsपि मोहतोsनिष्टो भावोsनिष्टस्तथा पर: ।
न द्रव्यं तत्त्वत: किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ।।२२६।।
अन्वय :- मोहत: इष्ट: भाव: अपि अनिष्ट: तथा अनिष्ट: पर: (इष्ट:) मन्यते । तत्त्वत: किंचित् (अपि) द्रव्यं इष्ट-अनिष्टं न हि विद्यते ।
सरलार्थ :- मोह के कारण अज्ञानी जीव जिस वस्तु को पहले इष्ट मानता था, कुछ काल व्यतीत हो जाने पर उसी वस्तु को अनिष्ट मानने लगता है और जिस वस्तु को पहले अनिष्ट मानता था, उसी वस्तु को इष्ट मानने लगता है । अज्ञानी की इस प्रवृत्ति के कारण यह वास्तविक बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार में कोई भी वस्तु इष्ट या अनिष्ट नहीं है ।