योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 302
From जैनकोष
योगी का स्वरूप और उसके जीवन का फल -
(मन्दाक्रान्ता)
इत्थं योगी व्यपगतपर-द्रव्य-संगप्रसङ्गो
नीत्वा कामं चपल-करण-ग्राममन्तर्मुखत्वम् । ध्यात्वात्मानं विशदचरण-ज्ञान-दृष्टिस्वभावं, नित्यज्योति: पदमनुपमं याति निर्जीर्णकर्मा ।।३०२।।
अन्वय :- इत्थं व्यपगत पर-द्रव्य-संगप्रसङ्ग निर्जीर्णकर्मा योगी कामं चपल-करणग ्रामं-अन्तर्मुखत्वं नीत्वा विशदचरण-ज्ञान-दृष्टिस्वभावं आत्मानं ध्यात्वा नित्यज्योति: अनुपमं पदं याति ।
सरलार्थ :- इस प्रकार पर-द्रव्य के संग-प्रसंग से रहित हुए कर्मो की निर्जरा करनेवाले योगी चंचल इन्द्रिय समूह को यथेष्ट (अथवा पर्याप्त) अन्तर्मुख करके और विशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभावरूप आत्मा का ध्यान करके अनुपम, शाश्वत ज्योतिरूप परमात्मपद को प्राप्त होते हैं ।