योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 497
From जैनकोष
कषाय के अभाव से शुद्धि/वीतरागता की वृद्धि -
यदास्ति कल्मषाभावो जीवस्य परिणामिन: ।
परिणामास्तदा शुद्धा: स्वर्णस्येवोत्तरोत्तरा: ।।४९८।।
अन्वय : - यदा परिणामिन: जीवस्य कल्मषाभाव: अस्ति, तदा (तस्य जीवस्य) परिणामा: सुवर्णस्य इव उत्तरोत्तरा: शुद्धा: (जायन्ते) ।
सरलार्थ :- जिस समय परिणमनस्वभावी संसारी साधक जीव के मोह-राग-द्वेषरूप कलुषता का यथागुणस्थान अभाव हो जाता है, उस समय उस जीव के वीतरागरूप धर्मपरिणाम उत्तरोत्तर सुवर्ण के समान शुद्ध होते चले जाते हैं ।