दर्शनपाहुड गाथा 1
From जैनकोष
( दोहा ) श्रीमत वीरजिनेश रवि मिथ्यातम हरतार । विघनहरन मंगलकरन वंदू वृषकरतार ।।१।।
वानी वंदू हितकरी जिनमुख-नभतैं गाजि । गणधरगणश्रुतभू-झरी-बूंद-वर्णपद साजि ।।२।।
गुरु गौतम वंदू सुविधि संयमतपधर और । जिनि तैं पंचमकाल मैं बरत्यो जिनमत दौर ।।३।।
कुन्दकुन्दमुनि कूं नमूं कुमतध्वांतहर भान । पाहुड ग्रन्थ रचे जिनहिं प्राकृत वचन महान ।।४।।
तिनिमैं कई प्रसिद्ध लखि करूं सुगम सुविचार । देशवचनिकामय लिखूं भव्य-जीवहितधार ।।५।।
- इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृतगाथाबद्ध पाहुड ग्रन्थों में से कुछ की देशभाषामय वचनिका लिखते हैं -
वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्ग की अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं । उसमें भी इस पंचमकाल में केवली-श्रुतकेवली का व्युच्छेद होने से जिनमत में भी जड़ वक्र जीवों के निमित्त से परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बर आदि बुद्धिकल्पित मत हुए हैं । उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूप की स्थापना के हेतु दिगम्बर आम्नाय मूलसंघ में आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञ की परम्परा के अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उनमें दिगम्बर सम्प्रदाय मूलसंघ नन्दि आम्नाय सरस्वतीगच्छ में श्री कुन्दकुन्द मुनि हुए और उन्होंने पाहुडग्रन्थों की रचना की । उन्हें संस्कृत भाषा में प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं । काल दोष से जीवों की बुद्धि मन्द होती है, जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिए देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा - ऐसा प्रयोजन विचार कर वचनिका लिख रहे हैं, अन्य कोई ख्याति, बड़ाई या लाभ का प्रयोजन नहीं है । इसलिए हे भव्यजीवों ! इसे पढ़कर, अर्थ समझकर, चित्त में धारण करके यथार्थ मत के बाह्यलिंग एवं तत्त्वार्थ का श्रद्धान दृढ़ करना । इसमें कुछ बुद्धि की मंदता से तथा प्रमाद के वश अन्यथा अर्थ लिख दूँ तो अधिक बुद्धिमान मूलग्रन्थ को देखकर, शुद्ध करके पढ़ें और मुझे अल्पबुद्धि जानकर क्षमा करें । अब यहाँ प्रथम दर्शनपाहुड की वचनिका लिखते हैं -
( दोहा ) वंदू श्री अरिहंत कूं मन वच तन इकतान । मिथ्याभाव निवारि कैं करैं सु दर्शन ज्ञान ।।
अब ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थ के आदि में ग्रन्थ की उत्पत्ति और उसके ज्ञान का कारण जो परम्परा गुरु का प्रवाह, उसे मंगल के हेतु नमस्कार करते हैं -
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढाणस्स ।
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ।।१।।
कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य ।
दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ।।१।।
कर नमन जिनवर वृषभ एवं वीर श्री वर्द्धमान को ।
संक्षिप्त दिग्दर्शन यथाक्रम करूँ दर्शनमार्ग का ।।१।।
इसका देशभाषामय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं जिनवर वृषभ ऐसे जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान, उन्हें नमस्कार करके दर्शन अर्थात् मत का जो मार्ग है, उसे यथानुक्रम संक्षेप में कहूँगा ।
भावार्थ - यहाँ `जिनवरवृषभ' विशेषण है; उसमें जो जिन शब्द है, उसका अर्थ ऐसा है कि जो कर्मशत्रु को जीते सो जिन । वहाँ सम्यग्दृष्टि अव्रती से लेकर कर्म की गुणश्रेणीरूप निर्जरा करनेवाले सभी जिन हैं, उनमें वर अर्थात् श्रेष्ठ । इसप्रकार गणधर आदि मुनियों को जिनवर कहा जाता है; उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे भगवान तीर्थंकर परमदेव हैं । उनमें प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और पंचमकाल के प्रारंभ तथा चतुर्थकाल के अन्त में अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमानस्वामी हुए हैं । वे समस्त तीर्थंकर जिनवर वृषभ हुए हैं, उन्हें नमस्कार हुआ । वहाँ `वर्द्धमान' ऐसा विशेषण सभी के लिए जानना; क्योंकि सभी अन्तरंग एवं बाह्य लक्ष्मी से वर्द्धमान हैं अथवा जिनवर वृषभ शब्द तो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को और वर्द्धमान शब्द से अन्तिम तीर्थंकर को जानना । इसप्रकार आदि और अन्त के तीर्थंकरों को नमस्कार करने से मध्य के तीर्थंकरों को भी सामर्थ्य से नमस्कार जानना । तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग को तो परमगुरु कहते हैं और उनकी परिपाटी में चले आ रहे गौतमादि मुनियों को जिनवर विशेषण दिया, उन्हें अपरगुरु कहते हैं -
इसप्रकार परापर गुरुओं का प्रवाह जानना । वे शास्त्र की उत्पत्ति तथा ज्ञान के कारण हैं । उन्हें ग्रन्थ के आदि में नमस्कार किया ।।१।।