कारक
From जैनकोष
व्याकरण में प्रसिद्ध तथा नित्य की बोलचाल में प्रयोग किये जाने वाले कर्ता कर्म करण आदि छ: कारक हैं। लोक में इनका प्रयोग भिन्न पदार्थों में किया जाता है, परन्तु अध्यात्म में केवल वस्तु स्वभाव लक्षित होने के कारण एक ही द्रव्य तथा उसके गुणपर्यायों में ये छहों लागू करके विचारे जाते हैं।
- भेदाभेद षट्कारक निर्देश व समन्वय
- षट्कारकों का नाम निर्देश
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/16 कर्तृत्वं .... कर्मत्वं.... करणत्वं.... संप्रदानत्वं ..... अपादानत्वं .... अधिकरणत्वं ....। पं. जयचन्द्रकृत भाषा—कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण नामक छ: कारक हैं। जहाँ पर के निमित्त से कार्य की सिद्धि कहलाती है, वहाँ व्यवहार कारक हैं और जहाँ अपने ही उपादान कारण से कार्य की सिद्धि कही जाती है वहाँ निश्चय कारक हैं (व्याकरण में प्रसिद्ध सम्बंध नाम के सातवें कारक का यहाँ निर्देश नहीं किया गया है, क्योंकि इन छहों का समुदित रूप ही सम्बंध कारक है)।
- षट्कारकी अभेद निर्देश
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/16 अयं खल्वात्मा ..... शुद्धानन्तशक्ति-ज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतकर्तृत्वाधिकार: ....विपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन्—विपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुविभ्राण: .... विपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधान: .... विपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वावलम्बनादपादानत्वमुपाददान:,.... विपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाण: स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमान: ... स्वयंभूरिति निर्दिश्यते। =यह आत्मा अनन्तशील युक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतन्त्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है, तथा (उसी शक्तियुक्त ज्ञानरूप से) परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से कर्मत्व का अनुभव करता है। परिणमन होने के स्वभाव से स्वयं ही साधकतम होने से करणता को धारण करता है। स्वयं ही अपने (परिणमन स्वभाव रूप) कर्म के द्वारा समाश्रित होने से सम्प्रदानता को धारण करता है। विपरिणमन होने के पूर्व समय में प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादानता को धारण करता हुआ, और स्वयं परिणमित होने के स्वभाव का आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ—(इस प्रकार) स्वयमेव छह कारक रूप होने से अथवा उत्पत्ति अपेक्षा से स्वयमेव आविर्भूत होने से स्वयंभू कहलाता है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/62 )।
समयसार / आत्मख्याति/297 ‘ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि। यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये.... किंतु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि।=(अन्यसर्व भाव क्योंकि मुझसे भिन्न हैं) इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही, अपने में ही अपने को ही ग्रहण करता हूँ। आत्मा की चेतना ही एक क्रिया है इसलिए ‘मैं ग्रहण करता हूँ’ का अर्थ ‘मैं चेतता हूँ’ ही है, चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते हुए के द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुए के लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुए से ही चेतता हूँ, चेतते में ही चेतता हूँ, चेतते को ही चेतता हूँ (अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ–इत्यादि छहों बोल) किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र भाव हूँ।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/46/92 मृत्तिका घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्यै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मने आत्मनि जानातीत्यनन्यत्वेऽपि। =’मिट्टी स्वयं घटभाव को (घड़ारूप परिणाम को) अपने द्वारा अपने लिए अपने में से अपने में करती है ‘आत्मा आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में से आत्मा में जानता है’ ऐसे अनन्यपने में भी कारक व्यपदेश होता है। - निश्चय से अभेद कारक ही परम सत्य है
प्रवचनसार/16 पं. जयचन्द–परमार्थत: एकद्रव्य दूसरे की सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपने को, अपने से, अपने लिए, अपने में से, अपने में करता है, इसलिए निश्चय छ: कारक ही परम सत्य हैं।
* कर्ता कर्म करण व क्रिया में भेदाभेद आदि–देखें कर्ता ।
* कारण कार्य व्यपदेश–देखें कारण ।
* ज्ञान के द्वारा ज्ञान को जानना–देखें ज्ञान - I.3।
- द्रव्य अपने परिणामों में कारकान्तर की अपेक्षा नहीं करता।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/62 स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते।=स्वयमेव षट्कारकी रूप से वर्तता हुआ (द्रव्य) अन्य कारक की अपेक्षा नहीं करता। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका 16 ) - परमार्थ में पर कारकों की शोध करना वृथा है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/16 अतो न निश्चयत: परेण सहात्मन: कारकत्वसंबन्धोऽस्ति, यत: शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रैर्भूयते।=अत: यहाँ यह कहा गया समझना चाहिए कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बंध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढ़ने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतन्त्र होते हैं।
- परन्तु लोक में भेद षट्कारकों का ही व्यवहार होता है
पं.का/त.प्र./46/92 यथा देवदत्त: फलमङ्कुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वाटिकायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेश:। =जिस प्रकार ‘देवदत्त, फल को, अङ्कुश द्वारा, धनदत्त के लिए वृक्ष पर से, बगीचे में, तोड़ता है ऐसे अन्यपने में कारक व्यपदेश होता है। (उसी प्रकार अनन्यपने में भी होता है)।
- अभेद कारक व्यपदेश का कारण
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/331 अतदिदमिहप्रतीतौ क्रियाफलं कारकाणि हेतुरिति। तदिदं स्यादिह संविदि हि हेतुस्तत्त्वं हि चेन्मिथ: प्रेम।331।=यदि परस्पर दोनों (अन्वय व व्यतिरेक अंशों) में अपेक्षा रहे तो ‘यह वह नहीं है’ इस प्रतीति में क्रियाफल, कारक, हेतु ये सब बन जाते हैं और ‘ये वही हैं’ इस प्रतीति में भी निश्चय से हेतुतत्त्व ये सब बन जाते हैं।
- अभेद कारक व्यपदेश का प्रयोजन
प्रवचनसार/160 णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।160। मैं न देह हूँ, न मन हूँ, और न वाणी हूँ, उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, कराने वाला नहीं हूँ (और) कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। (अर्थात् अभेद कारक पर दृष्टि आने से पर कारकों सम्बंधी अहंकार टल जाता है) विशेष देखें कारक - 1.5।
प्रवचनसार/126 कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि शुद्धं।126। =यदि श्रमण ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ ऐसा निश्चय वाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।126।
परमात्मप्रकाश टीका/2/16 यावत्कालमात्मा कर्ता आत्मानं कर्मतापन्नं आत्मना करणभूतेन आत्मने निमित्तं आत्मन: सकाशात् आत्मनि स्थितं न जानासि तावत्कालं परमात्मानं किं लभसे। =जब तक आत्मा नाम कर्ता, कर्मतापन्न आत्मा को, करणभूत आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में से, आत्मा में ही स्थित रहकर न जानेगा तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त करेगा ?
- अभेद व भेदकारक व्यपदेश का नयार्थ
तत्त्वानुशासन/29 अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नय:। व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:।29। =अभिन्न कर्ता कर्मादि कारक निश्चयनय का विषय है और व्यवहार नय भिन्न कर्ता कर्मादि को विषय करता है। ( अनगारधर्मामृत/1/102/108 )
* षट्द्रव्यों में उपकार्य उपकारक भाव।—देखें कारण /III/1।
- षट्कारकों का नाम निर्देश
- सम्बंधकारक निर्देश
- भेद व अभेद सम्बंध निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/5/12/277 ननु च लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनाम्। न तथाकाशं पूर्वं धर्मादीन्युत्तरकालभावीनि; अतो व्यवहारनयापेक्षयापि आधाराधेयकल्पनानुपपत्तिरिति। नैष दोष: युगपद्भाविनामपि आधाराधेयभावो दृश्यते। घटे रूपादय: शरीरे हस्तादय इति। =प्रश्न–लोक में जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हीं का आधार आधेय भाव देखा गया है। जैसे कि बेरों का आधार कुण्ड होता है। उस प्रकार आकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य पीछे से उत्पन्न हुए हों ऐसा तो है नहीं; अत: व्यवहारनय की अपेक्षा भी आधार आधेय कल्पना (इन द्रव्यों में) नहीं बनती ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि एक साथ होने वाले पदार्थों में भी आधार आधेय भाव देखा जाता है। यथा–घट में रूपादिक का और शरीर में हाथ आदिक का।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/211 व्याप्यव्यापकभाव: स्यादात्मनि नातदात्मनि। व्याप्यव्यापकताभाव: स्वत: सर्वत्र वस्तुषु।211। =अपने में ही व्याप्यव्यापकभाव होता है, अपने से भिन्न में नहीं होता है क्योंकि वास्तविक रीति से देखा जाये तो सर्व पदार्थों का अपने में ही व्याप्यव्यापकपने का होना सम्भव है। अन्य का अन्य में नहीं।
* द्रव्यगुण पर्याय में युतसिद्ध व समवायसम्बंध का निषेध—देखें द्रव्य - 4.5।
- व्यवहार से ही भिन्न द्रव्यों में सम्बंध कहा जाता है, तत्त्वत: कोई किसी का नहीं
समयसार/27 ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो।27। =व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं।
यो.सा./अ./5/20 शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभु:। ममेति व्यवहारेण भण्यते न च तत्त्वत:।20। =’शरीर, इन्द्रिय, द्रव्य, विषय, ऐश्वर्य और स्वामी मेरे हैं’ यह बात व्यवहार से कही जाती है, निश्चयनय से नहीं।20।
समयसार / आत्मख्याति/181 न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्ते:, सदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसंबन्धोऽपि नास्त्येव, तत: स्वरूपप्रतिष्ठित्वलक्षण एवाधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते। =वास्तव में एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं है (अर्थात् एक वस्तु दूसरी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती) क्योंकि दोनों के प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ता की अनुपपत्ति है (अर्थात् दोनों सत्ताएँ भिन्न–भिन्न हैं) और इस प्रकार जबकि एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधार आधेय सम्बन्ध भी है ही नहीं। इसलिए स्वरूप प्रतिष्ठित वस्तु में ही आधार आधेय सम्बंध है।
- भिन्न द्रव्यों में सम्बंध मानने से अनेक दोष आते हैं
यो.सा./अ./3/16 नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यते। स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेयं परस्य घटते कथम्।16। =जो परिणाम एक द्रव्य का है वह दूसरे द्रव्य का परिणाम नहीं हो सकता। यदि ऐसा मान लिया जाये तो संकर दोष आ जाने से यह निज द्रव्य है और वह अन्य द्रव्य है, ऐसी व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/567-570 अस्तिव्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात्। योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात्।567। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात्। अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात्।568। नाशक्यं कारणमिदमेकक्षेत्रावगाहिमात्रं यत्। सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्-भवेदतिव्याप्ति:।569। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शङ्क्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तद्बन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात्।570। =अलब्धबुद्धि जनों का यह व्यवहार है कि मनुष्यादि का शरीर ही जीव है क्योंकि दोनों अनन्य हैं। उनका यह व्यवहार अपसिद्धान्त अर्थात् सिद्धान्त विरूद्ध होने से अव्यवहार है। क्योंकि वास्तव में वे अनेकधर्मी हैं।567-568। एकक्षेत्रावगाहीपने के कारण भी शरीर को जीव कहने से अतिव्याप्ति हो जायेगी, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्यों में ही एकक्षेत्रावगाहित्व पाया जाता है।569। शरीर और जीव में बन्ध्यबन्धक भाव की आशंका भी युक्त नहीं है क्योंकि दोनों में अनेकत्व होने से उनका बन्ध ही असिद्ध है।
- अन्य द्रव्य को अन्य का कहना मिथ्यात्व है समयसार/325-326 जह को विणरो जंपइ अम्हं गामविसयणयररट्ठं। ण य हुंति तस्स ताणि उ भणइ य मोहेण सो अप्पा।325। एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवइ एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पणं कुणइ।326। =जैसे कोई मनुष्य ‘हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र,’ इस प्रकार कहता है, किंतु वास्तव में वे उसके नहीं हैं; मोह से वह आत्मा ‘मेरे हैं’ इस प्रकार कहता है। इसी प्रकार यदि ज्ञानी भी ‘परद्रव्य मेरा है’ ऐसा जानता हुआ परद्रव्य को निजरूप करता है वह नि:संदेह मिथ्यादृष्टि होता है। ( समयसार/20/22 )। यो.सा./अ./3/5 मयीदं कार्मणं द्रव्यं कारणेऽत्र भवाम्यहम्। यावदेषामतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते।5। =’कर्मजनित द्रव्य मेरे हैं और मैं कर्मजनित द्रव्यों का हूँ’, जब तक जीव की यह भावना बनी रहती है तब तक उसकी मिथ्यात्व से निवृत्ति नहीं होती।
- पर के साथ एकत्व का तात्पर्य समयसार / तात्पर्यवृत्ति/95 ननु धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि कोऽपि न ब्रूते तत्कथं घटत इति। अत्र परिहार:। धर्मास्तिकायोऽयमिति योऽसौ परिच्छित्तिरूपविकल्पो मनसि वर्तते सोऽप्युपचारेण धर्मास्तिकायो भण्यते। यथा घटाकारविकल्पपरिणतज्ञानं घट इति। तथा तद्धर्मास्तिकायोऽयमित्यादिविकल्प: यदा ज्ञेयतत्वविचारकाले करोति जीव: तदा शुद्धात्मस्वरूपं विस्मरति, तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थ:। =प्रश्न–‘‘मैं धर्मास्तिकाय हूँ’’ ऐसा तो कोई भी नहीं कहता है, फिर सूत्र में यह जो कहा गया है वह कैसे घटित होता है ? उत्तर–‘‘यह धर्मास्तिकाय है’’ ऐसा जो ज्ञान का विकल्प मन में वर्तता है वह भी उपचार से धर्मास्तिकाय कहा जाता है। जैसे कि घटाकार के विकल्परूप से परिणत ज्ञान को घट कहते हैं। तथा ‘यह धर्मास्तिकाय है’ ऐसा विकल्प, जब जीव ज्ञेयतत्त्व के विचारकाल में करता है उस समय वह शुद्धात्मा का स्वरूप भूल जाता है (क्योंकि उपयोग में एक समय एक ही विकल्प रह सकता है); इसलिए उस विकल्प के किये जाने पर ‘मैं धर्मास्तिकाय हूँ’ ऐसा उपचार से घटित होता है। ऐसा भावार्थ है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/268 )
- भिन्न द्रव्यों में सम्बंध निषेध का प्रयोजन समयसार 96-97 एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य परं करेइ अण्णाणभावेण।96। एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तितं।97। =इस प्रकार अज्ञानी अज्ञानभाव से परद्रव्यों को अपने रूप करता है और अपने को परद्रव्यों रूप करता है।96। इसलिए निश्चय के जानने वाले ज्ञानियों ने उस आत्मा को कर्ता कहा है। ऐसा निश्चय से जो जानता है वह सर्व कर्तृत्व को छोड़ता है।97।
समयसार/ आ/314-315 यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत् ...स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिर्भवति। =जब तक यह आत्मा, (स्व व पर के भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणों का ज्ञान (भेदज्ञान) न होने से प्रकृति के स्वभाव को, जो कि अपने को बन्ध का निमित्त है उसको नहीं छोड़ता, तब तक स्व-पर के एकत्वदर्शन से (एकत्वरूप श्रद्धान से) मिथ्यादृष्टि है। - भेद व अभेद सम्बंध निर्देश