वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 16
From जैनकोष
एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्किट्टसावयाणं तु ।
अवरट्ठियाण तइयं च उत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ꠰꠰16।।
(92) मूलसंघ में प्रथमलिंग मुनिलिंग―पूर्व प्रकरण में यह बताया गया था कि जो जिनदर्शन से बाह्य है, जहां परिग्रह है, कायशुद्धि नहीं है ऐसे पुरुष को अगर लज्जा, गारव, भय के कारण ज्ञानी भी वंदना करता है तो ज्ञानी को भी दोष । उस प्रकरण से संबंधित यह बात कही जा रही है कि फिर सत्यरूप क्या है । जिसका रूप तो प्रथम लिंग है याने निर्ग्रंथ दिगंबर, शरीर मात्र ही जिसका परिग्रह है, अन्य कुछ साथ नहीं है, ऐसा जो रूप है वह तो प्रथम लिंग है । जैन दर्शन में पूजने योग्य तीन लिंग बताये गए हैं । चौथा लिंग जैन दर्शन में नहीं है । लिंग मायने भेष । तो पहला रूप तो जिनरूप है । निर्ग्रंथ दिगंबर, परिग्रह रहित । दूसरा लिंग उत्कृष्ट श्रावक का है, क्षुल्लक ऐलक आदिक और तीसरा लिंग हैं अर्जिकाओं का । चौथा लिंग जैनदर्शन में नहीं है । इन तीन भेषों में जो साधु संत मिलें वे जैनदर्शन में वंदनीय हैं । तो जो आरंभ परिग्रह सहित हैं वे वंदनीय नहीं हैं । जैनसिद्धांत में तीन ही भेष बताये गए हैं―एक तो यथाजात रूप । यह उत्कृष्ट रूप है ꠰ यथाजात के मायने जैसे बालक उत्पन्न होता तो उसके साथ क्या है? वस्त्र भी नहीं हैं, नग्नरूप में है, जैसा उस उत्पन्न बालक का रूप है वैसा ही उस साधु का रूप है और साथ ही उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं । बालकवत् निर्विकार याने जिस जीव की ऐसी उत्कृष्ट साधना हुई है कि आत्मतत्त्व की ही जिसको धुन लगी है, अन्य कुछ जिसे सुहाता नहीं है वह ही पुरुष इस निर्ग्रंथ लिंग को धारण कर सकता है । यद्यपि आज कलिकाल में कुछ ऐसे लोग भी निर्ग्रंथभेष धारण करने लगे, कुछ पहले भी थे कि जो ख्याति, लाभ, पूजादि की चाह रखकर मुनि बन आते हैं । भले ही बन जायें, मगर वास्तविक मुनिपना तब ही बनता है जब कि उनके चित्त में विकार नहीं रहता । सूक्ष्म, विकार, तो श्रेणी में भी चलते हैं मगर जो समझ में आये बुद्धिगत विकार वे मुनि जनों के नहीं होते । मुनि का रूप वैसा होना चाहिये जैसा कि प्रतिमा का रूप । उसमें रागद्वेष कहां, उसमें परिग्रह कहां? तो ऐसे ही मुनि भी रागी द्वेषी नहीं हो । अन्य है वह मुनि जो अंतरड्ग में इतना पवित्र है कि सर्व जीवों में उस भगवान सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन करते हैं और इसी कारण किसी जीव पर बैर (द्वेष) नहीं होता । ऐसा यथाजात लिंग मुनिलिंग है वह तो प्रथम है ।
(93) मूलसंघ में द्वितीय व तृतीय लिंग क्षुल्लक ऐलक व आर्यिका का पद―दूसरा भेष है उत्कृष्ट श्रावक का । क्षुल्लक और ऐलक ये उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं । वैसे उत्कृष्ट श्रावक 10वीं प्रतिमाधारी को भी कहते हैं, किंतु जहाँ लिंग और भेष की प्रकरण है वहाँ क्षुल्लक और ऐलक को ही लिया जाता है, यह दूसरा भेष है और वंदना के योग्य है । और अवर (जघन्य) पद में स्थित अर्जिकायें हैं उनका तीसरा लिंग कहा गया हैं । इन तीन के अतिरिक्त चौथा भेष जिनदर्शन में नहीं है । अगर अन्य प्रकार का भेष हो तो समझो कि वह मूल संघ से बाह्य है । मूल संघ में ये तीन ही भेष माने गए हैं ।