वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 29
From जैनकोष
णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ।
सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ।। 29 ।।
(14॰) मनुष्य का सार ज्ञान―पूर्व गाथा में बताया गया था कि ज्ञान दर्शन चारित्र और तप इनके साथ संयम का समायोग होने पर मोक्ष होता है । तो ज्ञान दर्शन चारित्र की इसमें श्रेष्ठता बताते हैं । पुरुष का सार ज्ञान है । जैसे मनुष्यजन्म पाया है तो इस मनुष्यजन्म में सारभूत चीज क्या है? जब कोई कहे कि धन दौलत सार है तो धन दौलत से न इस समय शांति है और न मरने पर साथ जायेगा, और उसके कारण अनेक आपत्तियां भी हैं । वह सार कहां रहा? हर एक बात पर चिंतन कर लो कि आत्मा से बाहर की कोई भी बात मेरे आत्मा के लिए सार नहीं है । लोग परिवार कुटुंब को बड़ा सार समझते हैं । है क्या वहां? जैसे खुद संसार अशुद्ध है ऐसे ही वे संसारी जीव भी अशुद्ध है, खुद मलिन हैं । वे मेरे लिए सार क्या ? वें भिन्न हैं । मेरे लिए सार क्या? प्रत्येक जीव अपनी ही भावना से अपने ही भाव से अपने आपकी परिणति करता है, उससे मेरा संबंध क्या? मोहवश मूढता से संबंध मान लिया है केवल । तो मनुष्यों को सार क्या है ? एक ज्ञान अपना ज्ञान अपना स्वरूप है ꠰ कहीं भी यह जीव रहे, जाये तो ज्ञान कभी छूटता नहीं है ꠰ इस ज्ञान के लिए किसी दूसरे से भीख माँगना नहीं पड़ता कि मुझे ज्ञान दो । अपने में से अपना ही ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान सही हो गया तो उसमें बड़ी शांति है । कुछ से भी कुछ बिगड़ गया, जहाँ सही ज्ञान बनाया, फिर क्या बिगाड़? बाहरी चीज थी, यहाँ न रही वहाँ चली गई । उसमें बिगाड़ क्या हुआ? शांति मिल गई । तो मनुष्य का सार ज्ञान है, जिसका ज्ञान सही नहीं अथवा दिमाग में खराबी है, ज्ञान का उलट-पुलट चलता है वह तो महादु:खी है । कितना भी वैभव हो, ज्ञान अगर उल्टा चल रहा है तो उसे शांति नहीं मिल सकती । वैभव नहीं है और ज्ञान सही है तो जिस कर्म के उदय से हम मनुष्य हुए हैं वह कोई पुण्यकर्म ही तो था । तो जिस पुण्य के उदय से मनुष्य हुए उसी पुण्य के फल में गुजारा भी चलेगा । अब कोई पुण्य से ऊँचा गुजारा चाहे तो यह उसकी गल्ती है । दूसरे―बहुत बड़े (धनिक) लोगों को देखकर कि मेरे भी उतनी कारें हों, मेरे ऐसे पहरेदार हो, ऐसी ही सेना हो आदि कुछ भी सोचे तो यह उसकी गल्ती है । क्यों सोचना ऐसा? । क्या प्रयोजन ? आत्मा ज्ञानस्वरूप है तो वह अपने ज्ञान की ही दृष्टि रखे । इन बाहरी चीजों को तो बेकार समझें इस बाहरी संग समागम को तो कीचड़, कलंक, समझें, उसमें आदर बुद्धि न करें । उससे अशांति ही मिलेगी ।
(141) पुरुष का सार सम्यक्त्व―मनुष्य का सार क्या है? ज्ञान, और उसमें भी सम्यग्ज्ञान याने जब सम्यक्त्व हो तब ही तो ज्ञान सम्यक् बनता है । सम्यक्त्व के मायने स्वच्छता हो जाना, अनंतानुबंधी कषाय न रहे, मोह न रहे तो वहां जो अभिप्राय शुद्ध हो गया वह स्वच्छता सम्यक्त्व कहलाती है । तो इस पुरुष को सार क्या है? सम्यक्त्व है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान यह वैभव है । अगर पुण्योदय से बड़े हुए हैं धन समागम से भी, और और बातों से भी तो उसका कर्तव्य है कि अपना बड़प्पन सही बनावें । यह जो झूठा बड़प्पन है दुनिया का यह धोखा है, यह सब रहने का नहीं है और इस ही भव में उलट-पलट भी हो सकती । इससे बड़प्पन न माने । आत्मा का अगर धर्म का बड़प्पन आ गया तो यह संसारी बड़प्पन तो स्वयमेव ही हुआ करे । चक्रवर्ती कहीं कमाई करके छह खंड का राज्य पाता है क्या? पुण्य का उदय है, पा लिया, उसका थोड़ा नियोग है कि वह देखने जाता है, उसका तब भी भाव निर्मल होता है कि हमारे इस छह खंड के भरत क्षेत्र में किसी भी राज्य में अन्याय नहीं है । कोई भी राजा किसी प्रजा पर अन्याय न करे, यह उसका भाव है, और इसी भाव से वह सेना लेकर चलता है कि अगर कोई राजा उद्दंड है, कोई प्रजा को सताता है तो उसको मजा चखाया जाये । इसके लिए चक्रवर्ती दिग्विजय करता है । अनेकों लोग ऐसी शंका कर बैठते कि शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती भी हुए और चक्रवर्ती दिग्विजय करता है तो इन तीनों के क्यों ऐसे भाव हुए कि मैं दूसरे राजा को अपने आधीन करूँ? तीर्थंकर का तो इतना विशुद्ध अभिप्राय रहता कि सर्व जीव सुखी हों । तो वही यह बात समझना कि वे सब जीव सुखी हो, इसी भावना से वे दिग्विजय करते हैं । कोई राजा अगर उद्दंड हो, प्रजा को सताता हो तो उसे ठीक कर दें । अब एक प्रश्न और भी सामने खड़ा हो जाता कि मान लो कोई राजा ठीक है मगर चक्रवर्ती को अपना राजा नहीं मानना चाहता तो वह तो ठीक है, उस पर क्यों दिग्विजय हो? तो भाई जो राजा चक्रवर्ती को नहीं मानना चाहता वह गर्विष्ठ है, उद्दंड है, वह प्रजा में भी अन्याय करता होगा । यों उसकी उद्दंडता देखकर चक्रवर्ती उस पर विजय करता है । सिर्फ एक उदाहरण है ऐसा जिसका उत्तर देना कुछ कठिन है । बाहुबलि पर क्यों भरत चक्रवर्ती ने आक्रमण किया? बाहुबलि तो उद्दंड न थे, प्रजा सुख में थी...., पर दिग्विजय का नियोग ऐसा होता है कि छह खंड पर दिग्विजय चक्रवर्ती करता ही है । यदि कोई एक राजा भी वश में रहने से रह गया तो चक्र का नगरी में प्रवेश नहीं होता । यदि चक्र नगरी में प्रवेश न करे तो वहाँ यह सलाह होती कि यह चक्र नगरी में क्यों नहीं प्रवेश करता? तो कुछ नियोग भी है वैसा । तो जो कुछ भी वैभव प्राप्त होता है वह सब भी पुण्य भाव का फल है । कोई यहाँ कमायी करके चाहे कि इतना बड़ा वैभव हम को मिले तो वैसा होना कठिन है । और कोई ज्ञानी है तो वह चाहेगा ही क्यों? क्या धरा है इस वैभव में? आत्मा के स्वरूप को निरखें और उस ही में तृप्त हों । उससे बढ़कर जगत में कुछ भी चीज नहीं ꠰ आज जो वैभव से हीन हैं और निर्मल परिणाम रख रहे हैं उनका वह परिणाम कभी निष्फल नहीं हो सकता । वह तो निमित्त नैमित्तिक भाव है । जैसे घड़ी में सब पेंच पूर्जे सही हैं और उसमें चाभी भर दी गई तो वह तो चलेगी ही, वह निमित्तनैमित्तिक भाव है, ऐसे ही आत्मा में निर्मल परिणाम हैं तो पुण्यबंध होगा ही और उसके विपाक में क्यों न ऋद्धि वैभव मिलेगा? किंतु सम्यग्ज्ञानी जीव अणुमात्र को भी अपना हितकारी नहीं समझता ।
(142) सम्यक्त्व से चारित्र का व चारित्र से निर्वाण का लाभ―इस पुरुष की सारभूत चीज ज्ञान है, सारभूत चीज सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व से आचरण बनता है । सम्यक्त्व से ही ज्ञान बना समीचीन और सम्यक्त्व से ही सम्यक्चारित्र बना, और सम्यक्चारित्र होने पर निर्वाण होता है । यह दर्शनपाहुड नामक ग्रंथ है । इसमें सम्यग्दर्शन की महिमा बतायी गई है । सम्यग्दर्शन आत्मा के सहज स्वरूप का अनुभवन होना, विश्वास होना यह सब सम्यक्त्व में हुआ करता है । तो इस सम्यक्त्व की यह महिमा है कि इसके हुए बिना ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होता, चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं होता और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों की संपन्नता हो तब मोक्ष होता है । तो मोक्ष होता चारित्र से और चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक हो तो सही है और सम्यग्ज्ञान होता है सम्यक्त्व के साहचर्य से, इसलिए मुख्य प्रथम प्रारंभिक सार चीज क्या है? सम्यग्दर्शन । जिसके सम्यक्त्व नहीं उसके तो प्रगति ही नहीं हो सकती । यह संसार एक गोरखधंधा है, इसमें जो रहेगा, इसे जो छुवेगा, बस उसका वहीं फंसाव हो जायेगा । उस फंसाव का सुलझना, फिर उलझना, फिर सुलझना, फिर उलझना, बस यही दशा चलती रहती है । एक समस्या सुलझी तो दूसरी उलझी, फिर दूसरी समस्या सुलझी तो तीसरी उलझी, बस यही चक्र चलता रहता है । जब हम ज्ञान के रास्ते से चलें तो हमारी सारी समस्यायें सुलझ जाती हैं । यह बात सम्यक्त्व के होने पर होती है, इसलिए सारभूत चीज सम्यग्दर्शन है ꠰