वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 9
From जैनकोष
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ ।
तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स ।। 9 ।।
(42) जिनदर्शन की मोक्षमार्गमूलता―जैसे वृक्ष की जड़ से स्कंध, फूल, पत्र, फल वगैरह बहुगुण हो जाते हैं, हरे रहें, सुंदर लगें, अनेक गुण जैसे उन शाखा, पत्र आदिक में हो गए ऐसे ही जिनके जिनदर्शन है मूल है, श्रद्धा है उनके तो मोक्ष मार्ग का बहुत गुण उत्पन्न हो सकता है । सम्यग्दर्शन है या नहीं, या सम्यग्दर्शन को पैदा करें, ऐसा कोई कमर कसकर विकल्प करे तो ऐसे सम्यग्दर्शन तो जब होगा तब सहज होगा, आपके विकल्प पौरुष से सम्यग्दर्शन न होगा । जान बूझकर विकल्प पौरुष से इतना तो कर सकते हैं कि सम्यक्त्व पैदा हो सके ऐसा अपना वातावरण तैयार कर सकते हैं । तो जो लोग ऐसे वातावरण को भी नहीं चाहते हैं उनको सम्यक्त्व का अवकाश ही क्या है ? इस लोक में सबसे कम जीव मनुष्यगति में हैं, और मनुष्य गति में भी दो तरह के मनुष्य होते हैं, (1) पर्याप्त मनुष्य (2) लब्ध पर्याप्त मनुष्य । इन दोनो में भी पर्याप्त मनुष्यों की संख्या अत्यंत कम है । लब्ध पर्याप्त मनुष्य असंख्यात हैं, पर मनुष्य गति में जितने जीव हैं उनसे कई गुने जीव नरक गति में पाये जाते हैं । नरकगति के जीवों से कई गुने जीव देवगति में मिलेंगे । देवगति के जीवों से कई गुने जीव त्रस काय में मिलेंगे याने मनुष्य नारकी और देव ये तो त्रस काय में हैं ही, पर इनके अतिरिक्त तिर्यंच भी आ गए, और त्रस काय से कई गुने जीव निगोद को छोड़कर बाकी सब एकेंद्रिय में मिलेंगे । तो यहाँ तक जितने जीव जुड़े याने निगोद को छोड़कर बाकी जितने भी संसारी जीव है उनसे अनंत गुने सिद्ध भगवान हैं और सिद्ध भगवान से अनंत गुने निगोदिया जीव हैं, सिद्ध भगवान इतने अनंत होकर भी एक निगोद शरीर में जितने अनंत निगोदिया जीव हैं उनसे भी कम हैं । तो लोक में अनंतानंत जीव मिथ्यात्व से भ्रष्ट हैं, जिन दर्शन से बाह्य है ꠰ अहिंसा का जिन्होंने आदर किया है, आत्मस्वरूप की जिन्होंने उपासना की है, वीतराग निर्दोष सर्वज्ञदेव को ही जहाँ आराधना बतायी गई है ऐसे धर्म का प्रायोगिक अपनायत बिरले ही किसी अच्छे होनहार वाले पुरुष के हो सकती है ꠰ तो जो अन्य जीव हैं, जिनका होनहार भला नहीं है, जो मिथ्यात्व में पड़े हैं, ऐसे अनेक जीव हैं, उनसे लोगों का बुरा नहीं हो रहा, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीन इंद्रिय आदि कितने ही जीव हैं उनसे हमारा क्या बिगाड़ है? जैसे हैं सो हैं । बिगाड़ तो किसी दूसरे के कारण होता ही नहीं, मगर संगति की बात कह रहे हैं कि जो मनुष्य अपने को साधु तो जताये और वह जिनदर्शन से भ्रष्ट है, व्यवहारसम्यक्त्व, व्यवहारज्ञान, व्यवहारचारित्र भी नहीं है और अपने को साधुपना जताते हैं ऐसे पुरुषों की संगति जो करना है वह भी भ्रष्ट हो जाता है । तो जो आत्मकल्याण चाहने वाला पुरुष है उसको इतना तो पौरुष करना ही चाहिए कि जिस पद को वह सम्हाल सकता है उस पद के योग्य व्यवहार निर्दोष होना चाहिए ।
(43) जिनदर्शन की रक्षा में बहुगुण मोक्षमार्ग की प्रगति―निश्चयसम्यक्त्व है या नहीं, इसकी कोई क्या परख करे । व्यवहार सम्यक्त्व, व्यवहार ज्ञान, व्यवहार आचरण तो उसका भला होना ही चाहिए । यदि वह व्यावहारिक जिनदर्शन से भ्रष्ट है तो वह मूल से विनष्ट है, उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । ऐसा जान करके जब जिनदर्शन बिल्कुल सिद्ध नहीं है तो जिनदर्शन का याने अपने व्यावहारिक आचरण का भले प्रकार सावधानी से पालन करना चाहिए । जैसे कि यदि वृक्ष की जड़ों से खाद पानी आदिक जो उसके आहार योग्य वस्तुवें हैं यदि वे मिलती रहें तो उसकी शाखायें, फूल, पत्र आदिक ये सब खूब हरे भरे बहुगुणित रहेंगे । कितने ही फल उसमें आ जायेंगे, ऐसे ही जो पुरुष मोक्ष मार्ग की जड़ हरी भरी बनाये प्राथमिक बात को पुष्ट बनाये, व्यावहारिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र इनका भली भांति पालन करें तो उनका मोक्षमार्ग बहुगुणा वाला होकर फलेगा ꠰
(44) मुनियों के महाव्रत, समिति व आवश्यकों का पालन―साधुवों के मोक्षमार्ग का व्यावहारिक मूल क्या है? 28 मूल गुण, 5 महाव्रत याने 5 प्रकार के सर्वथा त्याग । किसी भी जीव के कभी भी किसी भी परिस्थिति में हिंसा न करना, मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से हिंसा का त्याग, इस तरह नवकोटि के झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग, जब कभी प्रवृत्ति करनी पड़े तो देखभालकर चलना, बोलना पड़े तो हित मित प्रिय वचन बोलना, कोई वस्तु धरना उठाना पड़े याने ज्ञान संयम और शुद्धि के उपकरण उठाने धरने पड़े तो निर्जंतु स्थान में देख भाल कर धरना, कहीं मल मूत्रादि करने पड़े तो निर्जंतु प्रासुप भूमि में करना, ऐसा समितियों का पालन और समय-समय पर मन, वचन, काय को एकदम रोकता है । कोई संकल्प न हो, कोई अंतर्जल्प न हो, कुछ भी शरीर की चेष्टायें न हो, ऐसा संयम का पालन करता है । छह आवश्यक जो मुनि जनों के बताये गए है―(1) समता रखना, (2) प्रभु वंदना करना, (3) जिनेंद्र भगवान की स्तुति करना, (4) प्रतिक्रमण करना, (5) स्वाध्याय करना और (6) कार्योत्सर्ग करना । इन छ : प्रकार के आवश्यकों का पालन, इंद्रिय, मन को वश में रखना ।
(45) साधुवों के स्नानत्याग, भूमिशयन व वस्त्रत्याग का मूल गुण―साधुजनों के स्नान का त्याग होता है । यह साधुजनों की बात कही जा रही है स्नान करें तो इसमें हिंसा है । पानी बिखरेगा, बहुत दूर तक जायेगा, किसी भी जीव को बाधा हो सकती है, गर्म जल से स्नान किया तो जमीन पर पड़े हुए कितने ही जीवों को बाधा होगी । ठंडे जल से नहाना तो उन्हें उचित नहीं, क्योंकि वह प्रासुप नहीं । इससे साधु जन स्नान नहीं किया करते । वे जानते हैं कि आत्मा की पवित्रता तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अरि सम्यक̖चारित्र से है, देह की शुद्धि से नहीं है । जैसे कोयले को कितना ही धोया जाये, पर वह अपनी कालिमा को नहीं छोड़ता, ऐसे ही इस देह को कितना ही धोया जाये पर वह अपनी अपवित्रता को नहीं छोड़ता । यही सोचकर साधु जन स्नान नहीं किया करते । उनका वस्त्रादिक का त्याग होता है । जिन्होंने आत्मा के सहज स्वभाव में मग्न होने की ठान ली है वे कोई भी कार्य ऐसा न करेंगे, कोई भी चीज ऐसी न रखेंगे कि जिसका विकल्प करना पड़े । इस आत्मस्वभाव के उपासकों की इतनी तेज धुन है कि वे इतना भी विकल्प नहीं सह सकते कि ये सब ख्याल करने पढ़ें कि मेरा चद्दर कहां धरा है, मेरी लंगोटी गीली हो जायेगी । अगर फट गया तो खुद सीवे तो आरंभ और दूसरों से सिलावे अथवा मांगे तो दोष । अगर मन में यह कल्पना करें कि मुझे मिलना चाहिए तो यह दोष है ꠰ ये सारे विकल्प परमेष्ठी पद से बाह्य हैं । साधु तो परमेष्ठी कहलाते हैं । अगर गृहस्थों की भांति वस्त्र विषयक विकल्प रहें तो वहाँ परमेष्ठीपना नहीं होता । आत्मस्वरूप की साधना के ऐसे तेज धुनिया है साधु परमेष्ठी कि वे रंच भी विकल्प नहीं करते । तो वस्त्रादिक का त्याग कर निर्ग्रंथ होते । अब जो शरीर है उसे कहाँ डालें? यदि शरीर भी छोड़कर कहीं रखा जाता होता तो साधु पुरुष तो इतने विरक्त होते कि इस शरीर को भी अलग कर देते, पर ऐसा तो अशक्य है, और कोई ऐसा भी भावुक बने कि असमय में ही अपना मरण कर ले तो उसके संक्लेश के कारण वह दुर्गति में जायेगा या कुछ भी हो, और देवगति में भी गया तो भी लाभ क्या? मनुष्यभव में रहकर तो संयम का पालन कर सकता था । वहाँ देवगति में तो संयम भी नहीं । तो साधु पुरुष इतना विरक्त हैं कि यदि संभव हो सकता कि शरीर को भी अलग धर दे, एक अकेले आत्मा ही रहें तो ऐसा कर लेना वे बहुत ही पसंद करते, पर यह तो अशक्य है । तो आत्मस्वभाव का उपासक साधु पुरुष वस्त्र का त्याग रखता है, उसके दिगंबर मुद्रा होती है ।
(46) साधुवों के केशलोंच का मूल गुण―साधु केशलुंच करते हैं । केशलुंच करने के अनेक कारण है । प्रथम कारण तो यही है कि बाल बनवायें तो उन्हें पैसे देने पड़ेंगे और पैसे उनके पास हैं नहीं, यदि वह किसी दूसरे से पैसे दिलवायेंगे तो उसका बहुत कुछ उन्हें ऐहसान मानना पड़ेगा । केशलुंच करने से ब्रह्मचर्य की भी साधना बढ़ती है, क्योंकि बढ़िया-बढ़िया बाल कटवाना यह तो एक श्रंगार माना गया है । जब केशलुंच हो जायेगा तो बाल भी तितर बितर से रहेंगे, कोई बड़ा बाल रहा कोई छोटा रहा । वह साज शृंगार से अत्यंत दूर है, यह भी एक तप है ꠰ उसे देह में ममता नहीं रही, इसकी वह एक परीक्षा है । और बाल बढ़ाकर रहना जैनशासन में बताया नहीं है । हां ऋषभदेव या बाहुबलि स्वामी की तरह खड़े हुए कई वर्षों तक तप कर रहे और ध्यान में मग्न हैं और उनके बाल बहुत बढ़ गए तो यह कोई दोष की बात नहीं है, अगर व्यवहार में चल रहे हैं और वहाँ बाल बढ़ाकर रहें तो उन बालों को संभालना भी पड़ेगा । उनमें जीव भी उत्पन्न होंगे । तब तो फिर कंघा भी चाहिए । कुछ और संभालना हो तो चुटिया भी बांधेगा तो जैसे कुछ सुनते हैं कि अनेक संन्यासी जो बहुत बाल वाले होते हैं और गंगा जी में स्नान किया तो छोटी-छोटी मछलियां भी उनके बालों में फंस सकती हैं । तो बाल रखना जैनशासन से बाहर की बात है । तीन माह से अधिक बाल रखाने का जैनशासन में निषेध है । दो, तीन या चार माह के अंदर केशलुंच करना पड़ेगा । कोई अगर समर्थ न हो तो चार माह में केशलुंच कर ले । कोई यदि । समर्थ है तो दो माह में केशलुंच करे, वह उत्कृष्ट केशलुंच हुआ, कोई तीन माह में केशलुंच करे तो वह मध्यम केशलुंच हुआ और कोई चार माह में केशलुंच करे तो वह जघन्य केशलुंच हुआ ।
(47) साधु के दिन में एक बार लघु भोजन, दंतधावनत्याग, संस्थिताहार का मूल गुण―एक बार साधु जन भोजन करते हैं, क्योंकि भोजन करने का प्रयोजन क्या है कि शरीर में प्राण टिके रहें और मैं संयमसहित साधना करूँ । एक बार से अधिक भोजन करना यह राग का चिन्ह है, उसे देह से ममता है विशेष इसलिए वह 2-3 अथवा 4 बार खाता है । खाने का उद्देश्य है जीवन बनाये रहना, और उसकी सिद्धि एक बार के भोजन से ही होती है । यदि भोजन किए बिना यह जीवन बना रहता संयम धारण के लिए तो वे साधु भोजन करते ही नहीं और उन्हें बताया है खड़े-खड़े भोजन करना । खड़े होकर भोजन करने का प्रयोजन यह है कि साधु ने अपने मन में यह ठान रखा है कि जब तक मेरे देह में बल है तब तक मैं आहार करूँगा और जब यह देह उत्तर दे देगा तब से आहार का त्याग करके मैं समाधि ले लूंगा । तो यह परीक्षा कैसे हो कि देह इस लायक है कि वह आहार करता रहे, उसकी परीक्षा है खड़े होकर भोजन करना जब खड़े होने की दम (हिम्मत) न रही तो समझ लिया कि अब यह नौकर देह मेरे से बिल्कुल विपरीत हो गया है । उसका अब त्याग कर देना चाहिए । सो आहार का त्याग करके वह समाधिमरण कर लेता है । यदि खड़े-खड़े आहार लेने की बात न रहे, बैठे-बैठे भी खाते । पड़े-पड़े भी खाते तो मरण समय तक भी खाने-खाने की मंसा बनी रह सकती है और खड़े-खड़े भोजन करने वाले के मन में पहले से ही यह बात ठनी हुई है कि जब तक यह देह सेवक मेरी संयम साधना के लिए सहयोग दे रहा तब तक इसके लिए खुराक है और जब यह ही मुख फेरने लगा तो मैं भी इससे मुख फेरने लगा, ऐसा उस साधु ने ठाना है, सो साधुजन खड़े होकर भोजन करते हैं । दाँतों को सफेद मोती की तरह उज्ज्वल रखने के लिए कोई दातून करें या बड़े तेज जो मसाले आते उनका मंजन करें, यह साधुजनों के नहीं होता । हां दांतों में कोई अन्य कण लग रहे हों तो वे दोष के लिए हैं, उनको निकालने के लिए साधु अंगुलियों से कुल्ला कर सकता है, पर श्रंगार जैसी बात वह दाँतों में न करेगा, ऐसे ये साधुवों के मूल गुण हैं, जो इन मूल गुणों से भी भ्रष्ट हैं, जिनके व्यवहार आचरण भी नहीं है उनके तो सिद्धि नहीं बनती, पर जिनका व्यवहार आचरण सही है उनको मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है । इससे सम्यक्त्व हुआ या नहीं हुआ इस विषय में तो विवाद न करना मगर मूल में जैसा कि तीर्थ आचरण है, ज्ञान, सम्यक्त्व आचरण, उस प्रकार से आचरण रखे तो उसे कहते हैं कि यह जिनदर्शन से भ्रष्ट नहीं हुआ । जिनेंद्र भगवान ने जो उपदेश बताया है उनके अनुसार अपना जीवन बनाये तो वह मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर सकेगा ।