वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 104
From जैनकोष
णाणु पयासहि परमुमुहि किं अण्णें बहुएण ।
जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्कखणेण ।।104।।
हे भगवान् ! जिस ज्ञान से क्षण भर में अपना आत्मा जाना जाता है वह परम ज्ञान मेरे में प्रकाशित करो और बहुत बातें पूछने से क्या फायदा? अनेक विकल्पजालों से क्या लाभ? अभी उत्तर नहीं दिया जा रहा है सिर्फ प्रश्न किया है । महाराज बातें बहुत हो गई, अब तो मूल मुद्दे की बातें बतलाओ कि वह ज्ञान क्या है, जिस ज्ञान के जान लेने पर यह निज आत्मा जान लिया जाता है । वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा दूसरों से ज्ञान का ज्ञान आ जाय इसके लिए क्यों तरसते हो? तुम ही स्वयं अपने ज्ञान से रागद्वेष रहित होकर समझो तो जान जाओगे । उस वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा क्षणमात्र में ही यह निजआत्मा शुद्धबुद्ध एकस्वभावी ज्ञात होता है । हे भगवान् ! मुझे तो तुम उस आत्मा की बात कहो और रागादिक विकल्पजालों से क्या फायदा? यह प्रश्नकर्ता विकल्प-विवाद नहीं चाहता । देखो लड़ाइयाँ कब होती हैं? जब कोई अपने को जानता है कि मैं मजे में हूँ, बड़े आराम से हूँ, उसको ही लड़ाई सुहाती है । और जो खुद दुःखी होगा उसको लड़ाई कहां सुहाती है? तो अपन भी सोचें, अपन क्या विवाद करें, किससे झगड़े, खुद तो काल के डांड़ से फंसे हुए हैं, कर्मों के बंधन से जकड़े हुए हैं? तेरी ही खुद की खैर नहीं है तो तू दूसरी आत्मा से झगड़ा क्या करता है? रागादिक बढ़ाने वाले विकल्पजालों से कोई लाभ नहीं है ।
इस दोहे में यह बात बतलाई गई है कि जिस ज्ञान के द्वारा, जो कि मिथ्यात्व रागादिक विकल्पों से रहित है उस निज शुद्ध आत्मा की संवित्तिरूप ज्ञान के द्वारा, अंतर्मुहूर्त में ही परमात्मस्वरूप जान लिया जाता है । वह परमात्मस्वरूप ही उपादेय है, परमात्मा स्वयं जान लिया जाता है । इस गाथा का यह अर्थ है । यहां प्रभाकर भट्ट पूछ रहे हैं कि हे भगवान् ! हे वीतराग ! स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा सुदृढ़ ज्ञान वाला जो आत्मा है उसको ही कहो । रागादिक बढ़ाने वाले विकल्पजालों से क्या लाभ है? इस दोहे में यह बताया है कि जिस मिथ्यात्व, रागादिक विकल्परहित ज्ञान के द्वारा शुद्ध आत्मा का स्वसंवेदन होता है; ऐसा ज्ञान ही उपादेय है । अब इस प्रश्न के उत्तर में ज्ञानस्वरूप पर प्रकाश डाला जाता है ।