वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 34
From जैनकोष
देह वसंतुवि णवि छिवइ णियमे देहु वि जो जि ।
देह छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउं सो जि ।।34।।
जो देह में बसता हुआ भी देह को छूता नहीं है और देह के द्वारा छुआ जाता नहीं है उसको तुम परमात्मा जानो । जैसे गेहूं के बोरे में या मन भर कोई लोहे का पिंड है, उस लोहे के पिंड के बीच आकाश रह रहा है पर आकाश को लोहा नहीं छू रहा है और न लोहे को आकाश ही छू रहा है । यहीं हम आप आकाश में बैठे हैं, पर आकाश को हम आप छू नहीं रहे हैं । आकाश में हाथ रखे हैं पर आकाश से हम आप छुवे हुए नहीं हैं । इस तरह से बढ़कर बात देखो । यह ज्ञानानंद भावमात्र आत्मा इस देह में बस रहा है और निमित्तनैमित्तिकबंधन भी लगा है । आकाश में और हाथ में बंधन तो नहीं है । यहाँ से हाथ को उठाकर यहाँ कर लिया तो आकाश भी साथ में भागता, फिर ऐसा तो नहीं है । मगर देह में और आत्मा में एक बंधन भी है कि आपका देह वहाँ से उठकर यहाँ आ जाय तो आत्मा भी आ जायगा । ऐसा बंधन भी है पर देह आत्मा को छुवे हुए नहीं है और आत्मा देह से छुआ हुआ नहीं है । जो आत्मा ज्ञानभाव मात्र है उसको तुम परमात्मा जानो । यह देह कैसे बना है? जो पहिले उपार्जित कर्म थे । उन कर्मों के द्वारा यह देह बना हुआ है । यह सब आटोमेटिक काम हो रहा है । यह समझ में आ जाय तो वस्तु की व्यवस्था बता सकते हैं । पर कोई किसी परद्रव्य को कर दे, ऐसी धारणा बनाए तो वस्तु की व्यवस्था नहीं बताई जा सकती है ।
यह देह पहिले उपार्जित किए हुए क्षुद्र कर्मों के निमित्त से बना हुआ है । वे कर्म कैसे उपार्जित किये थे, क्रोध, मान, माया, लोभ जो अपने स्वरूप के विभावपरिणाम हैं इन विभावपरिणामों के कारण वे कर्म उपार्जित हुए थे । कहां तो मुझ शुद्ध आत्मा का एकमात्र चैतन्यस्वरूप, और कहां उस स्वरूप के विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभों की अवस्था, कितना महान अंतर है? कोई उच्च कुल में पैदा हुआ मनुष्य कुछ नीच सावद्य काम करने में उतारू होता है तो लोग समझाते हैं कि जरा अपने पुरुषों की तो बात देखो । कहां तो तुम्हारा ऐसा उच्चकुल और कहो तुम्हारी मांस भक्षण रूप प्रवृत्ति? आश्चर्य बनाते हैं । इसी प्रकार यह भी महान् आश्चर्य है । कहां तो यह शुद्ध आनंद स्वरूप ज्ञान और आनंदरस कर परिपूर्ण और कहां ये क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, ये बिल्कुल विपरीत हैं, ऐसे विपरीत विभावों से कर्मबंध हुआ था । जैसा कर्मबंध होना था उसके अनुसार अब यह नवीन शरीर रचा गया है । इस देह में यह आत्मा बस रहा है । निश्चय से तो आत्मा अपने स्वरूप में बस रहा है । देह में नहीं बस रहा है । जैसे एक दृष्टांत लो । एक घड़े में आपने दही भर दिया । तुम सोचो कि यह दही किसमें रह रहा है? क्या उत्तर दोगे? निश्चय से तो दही दही में रह रहा है । घड़े में दही नहीं है । चाहे घड़े को फोड़कर खपरियों में देख लो । घड़े में दही नहीं रह रहा है, दही में दही है । इसी प्रकार आत्मा की बात है । आत्मा कहां रह रहा है? आत्मा, आत्मा में रह रहा है, आत्मा शरीर में नहीं रहा है । पर जैसे दही मिट्टी के घड़े में व्यवहार से रह रहा है इसी प्रकार आत्मा देह में व्यवहार से रह रहा है और वह असद्भूतव्यवहार है । लेकिन संबंध है इसलिये अनुपचारित असद्भूत व्यवहार है । जैसे कहते हैं कि यह मेरा शरीर है । यह बात झूठे है कि सत्य है? किस नय की बात है अनुपचारित असद्भूत व्यवहार की बात है और कहे कि यह घर मेरा है तो यह कितना झूठ है? और मेरी जितनी बात है यह झूठ है, उससे कम झूठ है कि ज्यादा? यह मिट्टी का मकान मेरा है, यह बात कहना झूठ है कि नहीं? इसे उपचारित असद्भूत बोलते हैं । यह आत्मा देह में बस रहा है सो यह बात झूठ नहीं है । संबंध है लेकिन फिर भी भिन्न-भिन्न वस्तुएं है । इस कारण यह असद्भूत व्यवहार से कहा है, पर निश्चय से देखो तो यह देह को छूता नहीं है और यह देह के द्वारा छुवा नहीं जाता है । तब सर्वविकल्प हटाकर इस देह का भान न रहकर केवल ज्ञानस्वरूप अपने आपका उपयोग रहता है तब यह कितना हल्का हो जाता है? मानो यह जमीन पर भी नहीं बैठा है । अत्यंत हल्का भाररहित अनुभव में आता है । ऐसे अपने इस शुद्ध आत्मा के ज्ञान बिना लाखों की भी संपदा जुड़ जाय तो बेकाम है, बेकार है । शांति देने में समर्थ नहीं है । रईसों का दुःख रईस जानें और आज के जमाने में तो कहना ही क्या है? नींद नहीं आती है । सर्वसाधन हो गये, ठंडे कमरे हैं, ठंडे नहीं हैं तो मशीन से ठंडे कर लिये । मकान में पहरेदार भी खड़े हैं । मंत्री लोग जी हजूरी कर रहे हैं पर वह धनिक पुरुष अंतर में बेचैन हो रहा है । उसके दिल को पकड़कर आप्रेशन कौन कर सकता है? वह धनिक बड़ा दुःखी है । शांति तो जब अपने अखंड चैतन्यस्वरूप का उपयोग हो तब हो सकती है । जैसे मनुष्य-मनुष्य सब एक तरह से पैदा होते हैं । एक तरह से मरते हैं । मनुष्य-मनुष्य का सुख दुःख भी सब एक तरह से चलता है । जातिभेद हो जाने से जैसे कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई हिंदू है । पर जाति भेद होने में यह नहीं हुआ कि कोई और ढंग से पैदा हो, कोई और ढंग से मरता हो । सुख दुःख भी एक ही ढंग से होते हैं । सबकी एक विधि है । सुख दुःख में मृत्युविधान में फर्क नहीं है । विशेष की बात अलग है । इष्ट चीज न मिलने से दुःख है । यही बात मुसलमानों में, वही बात हिंदूओं में है । मृत्युविधान सबका एक है । सब एकस्वरूप में उत्पन्न हुए हैं । यों उत्पन्न होने में क्या हुआ? कोई जल्दी उत्पन्न हुआ, कोई देर में, इस भेद की बात नहीं कह रहे हैं । मृत्युविधि एक है । इसी प्रकार जो जीव संकटों से छूटेंगे, सत्य सुख होगा उनका एक ही प्रकार है कि वे अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप को जान लें और इस शुद्धस्वरूप में रम जायें । कोई भी आत्मा हो जो भी संकटों से मुक्त होगा वह इसही उपाय से मुक्त होगा और कोई दूसरा उपाय नहीं है । ऐसे तुम अपने परमात्मा को जानो । अर्थात् वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अनुभव करो । इस दोहे में यह बात कह रहे हैं कि ममत्व परिणाम में स्थित जीवों से जो शुद्धआत्मा हेय है याने छोड़े हुए हैं, ममता से ग्रस्त जीव अर्थात् पहिले गुणस्थान वाले जीव मिथ्यादृष्टि शुद्धआत्मा को छोड़ हुए हैं पर जिस देह में ममत्व का परिणाम नहीं रहा, भेदविज्ञान हो गया ऐसे ज्ञानी जीवों का यह शुद्धआत्मा महाद्वीप है । तुम की सब प्रयत्न करके आखिर एक चीज क्या जानना है? अपने आत्मा का सहज जानने स्वरूप जानना है । इस अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञानन हो तो आप धर्म के नाम पर कितने ही व्रत कर लें, क्रिया कर लें विधान कर लें, भक्ति कर लें, वे सब फल न देंगे । उल्टा ही काम कहलायगा । अपना ज्ञान अगर सही है तो थोड़े व्रत हों, थोड़ा तप हो, थोड़ी साधना हो सब सही है ।
ये जो डेगची होती है, जिनमें साग छोंकते हैं, पतेला कहते हैं । भगोना भी बोलते हैं । भगोना इसलिये बोलते हैं कि भगोना । उसको टालो तो मुश्किल से सरकता है सो भगोना । जो भागे नहीं सो भगोना, हम पतेली की बात कह रहे हैं भगोना की नहीं । पतेली जिसमें साग आदि छोंका जाय पतेली में नीचे तली नहीं होती है गोल होती है । अगर सबके नीचे पतेली औंधी रख दो तो ऊपर कैसे रखो? अंधी ही रखना पड़ेगा । 4-6-10 कितने भी रखो औंधी ही रखना पड़ेगा और पहिले सीधी रख दो तो सब सीधी ही रखना पड़ेगा । इसी प्रकार से आत्मा का ज्ञान जब सही है तो जितने भी व्रत तप आत्मा में धरोगे वे सब सीधे आयेंगे । तो पहिले ज्ञान ही मिथ्यात्व का है तो जितने ही जप तप करोगे तो वे सब मिथ्या हो जायेंगे । इसलिये आत्मज्ञान सही होना धर्म के लिये सर्वप्रथम आवश्यक है । जगत् के जीवों ने अब तक बहुत-बहुत परिणतियों का ज्ञान किया और वह भी द्रव्य सर्वस्व के रूप से ज्ञान किया किंतु अपने आपमें नित्य प्रकाशमान शुद्धआत्मा का ज्ञान न किया और इसी कारण यह जीव संसार में रुलता रहा है । संसार से छूटने का उपाय कितना सुगम है, कितना स्वाधीन है कि अपनी ओर जरा दृष्टि की कि लो सर्वसंकट समाप्त हो जाते हैं । इस शुद्ध आत्मा को कोई भी देख लें, शुद्धात्मत्व का ज्ञान अनुपम आनंद उत्पन्न करता हुआ होता है । जो समता परिणाम में रहने वाले योगी हैं उन योगियों में शुद्धआत्मा के दर्शन से उत्पन्न होने वाले आनंद का विशेषकर अनुभव है । यह शुद्धआत्मा का ज्ञान आनंद को पैदा करता हुआ प्रकट होता है ।