वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 137
From जैनकोष
प्रविधाय सुप्रसिद्धैर्मर्यादां सर्वतोऽप्यभिज्ञानै: ।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्य: कर्तव्या विरतिरविचलिता ।।137।।
दिग्व्रतनामक प्रथम शील―7 शीलों के 2 भाग करे―गुणव्रत और शिक्षाव्रत । गुणव्रत उन्हें कहते हैं जो अणुव्रत में और अधिक गुण उत्पन्न करें । अणुव्रत में गुणों की वृद्धि करें, ऐसे नियमों का नाम है गुणव्रत । गुणव्रत तीन हैं―उसमें प्रथम दिग्व्रत नाम का स्वरूप कह रहे हैं―दिग्व्रत में दो शब्द हैं―दिग् और व्रत । दिग् मायने दिशा और व्रत मायने नियम । चारों दिशावों में अपना नियम बना लेना कि हम इतनी दूर से अधिक का अपना संबंध न रखेंगे, इस प्रकार का नियम लेकर जो पालन करे उसका नाम है दिग्व्रत ꠰ जो भी प्रसिद्ध गांव हो उनकी मर्यादा बना ले कि पूरब में हम कलकत्ता से आगे का अपना संबंध न रखेंगे, दक्षिण में मैसूर से आगे का संबंध न रखेंगे, इसी प्रकार उत्तर तथा पश्चिम में इससे आगे का अपना संबंध न रखेंगे, ऐसे ही ऊपर नीचे का नियम लेना, ऊपर पहाड़ है और नीचे कुवां है, इनमें भी नियम लेना कि हम इतनी दूरी से अधिक का संबंध न रखेंगे, इस प्रकार का नियम लेना दिग्व्रत कहलाता है । दिग्व्रत पालन करने का प्रयोजन क्या है कि आरंभ परिग्रह व्यापार संबंध परिचय व्यवहार इनका संकुचित दायरे में रहना । अपना परिचय उससे अधिक न बढ़ाना, उससे अधिक दूर का व्यापार संबंधी काम न करता, अधिक विकल्प न बढ़ाना, उससे अधिक दूर की चिट्ठी पत्री वगैरह न मंगाना आदि बातें दिग्व्रत में शामिल हैं । हां, उससे अधिक दूर का माल अपने यहाँ आ जाये तो उसे खरीद सकते हैं । क्योंकि उसने अपना परिणाम खरीदने का नहीं बनाया । मगर और प्रकार का संबंध उससे दूर का नहीं रख सकते । यह जो अपना क्षेत्र कम किया है वह इसलिये किया है कि हमें विकल्प अधिक न हो और समय-समय पर अपना नियम निभाते रहें ।