वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 43
From जैनकोष
यो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए ।
सो पावइ परमणयं झायंतो अप्पयं शुद्धं ꠰꠰43।।
मोक्ष और मोक्षानुरूप स्वरूप का दिग्दर्शन―जिस धर्म से मोक्ष मिलता है वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है । वहाँ धर्म की व्याख्यायें अनेक प्रकार से की गई हैं और उनका मतलब यह है कि जो पुरुष जैसी भूमिका में रह रहा उसके लिए उस प्रकार के धर्म का उपदेश किया है पर परमार्थत: धर्म एकस्वरूप है और वह है रत्नत्रयात्मक ꠰ आत्मा का मोक्ष कराना है तो मोक्ष के मायने खालिस आत्मा रह जाये, और कुछ साथ में न रहे उसे कहते हैं मोक्ष । जैसे रोज-रोज प्रार्थना करते, विनती करते, कि मेरे को मोक्ष मिले, तो उसका क्या भाव लेना चित्त में कि मैं आत्मा इस शरीर के, कर्म के बंधन से अलग होकर खालिस मैं अकेला ही रह जाऊ̐, इसे कहते हैं मोक्ष को पाना । तो मोक्ष चाहते हैं मायने मैं सबसे निराला खालिस आत्मा ही आत्मा रह जाऊ̐, मेरे साथ कुछ संपर्क न हो, ऐसा केवल आत्मा रह जाऊ̐, यह चाहता हूँ । अच्छा, यह चाहते हो तो पहले यहाँ ही देखो कि इन तीन के बीच, अनेक पदार्थों के बीच रहते हुए में स्वरूपत: यह मैं अकेला हूँ या नहीं ? यदि मैं यहाँ ही अकेला नहीं हूँ तो फिर कभी अकेला हो ही नहीं सकता । जैसे किसी मटके के अंदर मानो 10 तरह के अनाज के दाने मिले-जुले रखे हैं, उनमें से किसी एक अनाज का दाना छांटना है तो वह छांट तब ही तो बन सकती है जबकि उस मटके के भीतर भी वह अनाज अकेला है, अलग है । यद्यपि अभी वहाँ बंधन है, मटके के अंदर है, सब दानों में वह मिला-जुला है फिर भी स्वरूप से देखो तो वह अकेला है । अकेला है तभी उसे अकेला कर सकते, चावलों में जैसे बहुत-सा कूड़ा-करकट मिला है, उसमें हम को चावल अलग करना है तो उन चावलों को अलग तब ही कर पायेंगे जबकि वे चावल उस कूड़ा-करकट में मिले हुए की स्थिति में भी अलग हैं । चावल अपनी ही सत्ता से अपने में रहते हों, कूड़ामय न हो गए हों तब ही कूड़े से अलग हो सकते हैं । तो ऐसे ही समझो कि हमको अपने आत्मा को मुक्त करना है, संसार के सर्व संकटों से छुटकारा प्राप्त कराना है तो यह मुक्त तभी हो सकता जबकि स्वरूप ही अपना अपनी सत्ता में परिपूर्ण अलग रख रहा हो । उस एकाकी स्वरूप को ही एकतान होकर निरखता रहे तो वह आत्मस्वरूप अलग हो जायेगा । यही रत्नत्रय की पूर्णता कहलाती है । वह रत्नत्रय को धारण करने वाला मुनि इस शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ अपनी शक्ति से तपश्चरण करता है और परमपद निर्वाण को प्राप्त होता है ।
धर्मपालन व मोक्षमार्ग-गमन की एक विधि―भैया ! जैसे किसी रास्ते पर चलना सबका एक ही तरह ही होता । जितने भी आदमी रास्ते में पैदल चल रहे उन सबका चलना एक ही ढंग से होता है । कहीं ऐसा नहीं कि कोई अटपट चले, टेढ़ा-मेढ़ा चले, उल्टा-सीधा चले, या विपरीत-विपरीत दिशाओं में चलता फिरे, सबके चलने का ढंग एक होता । वह बात दूसरी है कि जवान लोग जरा तेज रफ्तार में चलेंगे और वृद्ध या छोटे बच्चे धीरे-धीरे चलेंगे । देखा होगा कि जब सम्मेद शिखरजी की वंदना करने के लिए लोग पहाड़ पर चढ़ते हैं तो सबका चलने का ढंग एक होता है पर जवान लोग जरा जल्दी-जल्दी चढ़कर जल्दी ही पहाड़ पर पहुंचकर वंदना कर लेते हैं और बूढ़े लोग धीरे-धीरे चलकर कुछ अधिक समय में वंदना करके आ पाते हैं । तो इस रफ्तार में शक्तिभेद से अंतर भले ही हो, पर चलने का ढंग सबका एक है, ऐसे ही मोक्ष महल में जितने भी भव्य पुरुष जा रहे हैं, उस मोक्षमार्ग में चल रहे हैं मुनि हों, श्रावक हों, कोई हों, उन सबका चलना एक तरह का है । भीतर निरखिये―बाहरी अंतर की बात नहीं कह रहे । वह चलना किस तरह का है कि अपने अनादि अनंत अहेतुक चैतन्य स्वभाव का आलंबन लेकर उस ही की दृष्टि रखकर, उस ही के जानने का स्वाद लिया जा रहा है, मोक्षमार्ग में चलने की यह विधि है । अब परिस्थितिवश अंतर आ गया कि श्रावकों के चूंकि गृहस्थी संबंधी अनेक झंझट हैं सो वे निर्बल हो गए मोक्षमार्ग में चलने के लिए, इसलिए वे धीरे-धीरे इस कार्य को निभा पाते हैं । और मुनिजन चूंकि निशल्य हैं, आरंभ परिग्रह से अत्यंत दूर हैं उनको किसी भी बाह्य तत्त्व में लगाव नहीं है सो वे अपने आपके इस भीतरी पुरुषार्थ में तेजी से बढ़ रहे हैं, यद्यपि यहाँ इतनी विशेषता है कि वे श्रावक अपनी मंदगति से चल-चलकर मोक्ष न जा पायेंगे । वे निर्ग्रंथ दिगंबर के वातावरण में रहकर एक अंत: तीव्र गति करके ही मोक्ष जा पायेंगे मगर मोक्ष जाने का जो ढंग है वह सब एक ही तरह का है । जब श्रावकजन पूजन करते हुए, स्वाध्याय करते हुए अनेक धर्मकार्य करते हुए, गुरुजनों की सेवा करते हों आदि सभी स्थितियों में उन्हें ध्यान यह रखना चाहिए कि धर्म-कर्तव्य तो बस यह ही है कि अपने सहज स्वभाव को अनुभव में लूं कि मैं यह हूँ । यह जितना बन पायेगा उतना धर्मपालन है ।
रत्नत्रययुक्त संयमी का स्वशक्त्यनुसार तपश्चरण करते हुए शुद्ध आत्मत्व का ध्यान―रत्नत्रय से युक्त होता हुआ योगी शक्ति-अनुसार इच्छावों का निरोध कर-करके तपश्चरण करता है वही वास्तविक संयमी है । ऐसा संयमी पुरुष शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है, शुद्ध आत्मा मायने अपना ही सहज स्वरूप जो सबसे निराला है और अपने आपमें शाश्वत तन्मय है ज्ञानमात्र, एतावनमात्र है ꠰ जिनको यह स्वरूप की बात समझ में न आती हो उनको कम-से-कम इतना तो समझ लेना चाहिए कि जिन-जिन बातों का हम ख्याल बनाये रहते हैं, जहां-जहां हमारी दृष्टि दौड़ती रहती है, जिस-जिस रूप हम अपने को मानते रहते हैं वे बातें मिटती हैं या नहीं मिटती ? इतनी ही परख करलो । जब परख करने चलेंगे तो आपको साफ विदित होगा कि जिन-जिनमें हम रमते हैं, जो-जो हम ख्याल बनाते हैं, जो-जो ढंग अपने में मानते हैं वे सब मिट जाने वाली बातें हैं । तो जो मिट जाने वाली बातें हैं उन्हें मानना कि ये मैं हूँ, तो यह कोई विवेक है क्या ? वैसे तो डर लगता है मरने से, अरे ! मैं मर जाऊंगा, मैं मिट जाऊंगा, मैं नष्ट हो जाऊंगा, और यहाँ नष्ट होने वाली बातों को मान रहे कि मैं इन रूप हूँ, तो इसके मायने यह हैं कि अपने को नष्ट होना पसंद करते हैं । यह मनुष्यभव मिला है इसमें सावधानी रहे, सम्हल जाये तो समझो कि संसार-सागर से पार होने का मौका मिल गया, और यदि न सम्हल सके तब तो फिर इस संसार-सागर में ही गोते लगा-लगाकर दु:खी होते फिरेंगे ꠰
शहदलपेटी तलवार के चाटने की आसक्ति तजकर ज्ञानामृतरस के स्वाद में तृप्त रहने की कौशलता―यह अवसर एक निर्णय करने का समय है, क्या निर्णय चाहिए ? यदि पूछा जाये कि क्या चाहिए ? आपको संसार-संकटों से पार होना है या इस संसार समुद्र में डूबना है ? तो उत्तर हर एक कोई यह देगा कि हम तो संसार से पार होना चाहते हैं । किंतु जब कहेंगे कि अच्छा तो फिर संसार से पार होने लायक काम करियेगा, क्या काम है कि सर्व अन्य पदार्थों से ममता तजकर उनको अपने से भिन्न निरखकर, उनका ख्याल छोड़कर अपने शाश्वत इस ज्ञानप्रकाश में अपने को अनुभविये । तो कुछ लोग तो पसंद कर भी लेंगे और कुछ लोगों को यह कष्ट-सा लगेगा इस चैतन्यस्वरूप में प्रतपन करने का कि अरे ! तो मेरा क्या यह सब छूट जायेगा ? मेरे से यह सब कैसे छोड़ा जायेगा ? ये सब कैसा मेरे लिए प्यारे हैं, कैसे मैं इन्हें जीते जी छोड़ सकता ? अरे ! यही तो है शहद-लपेटी तलवार कि यह आसक्त पुरुष उस शहद को छोड़ नहीं सकता । वह तो चाटकर ही रहना चाहता है । खूब उस तलवार को चूस चूसकर अपने को मस्त रखना चाहता है और करता है ऐसा उद्यम, मगर उसका फल क्या होता है कि जीभ कट जाती है । तो ये सब जितने समागम हैं ये शहद-लिपटी तलवार की तरह हैं । जो ज्ञानीजन हैं वे उससे अपना मुख मोड़कर ज्ञानामृतरूप रहते ? अपने में अपने विभक्त-एकत्वपन, एक ज्ञानप्रकाशमय अपने को अनुभवना । इसमें जिनको कष्ट हो रहा हो वे यदि नहीं अनुभवकर पाते तो इतना ही प्रयोग कर लें कि समस्त बाह्य पदार्थ मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, उनका ख्याल न करके परम विश्राम से बैठ जायें । ऐसा करने वालों को ज्ञानानुभव होता ही है । यह ही ज्ञानामृत का पान ऐसा है कि जिसका पान करने से संसार के आवागमन के संकट सदा के लिए टल जाते हैं ।