वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 73
From जैनकोष
चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपब्भट्ठा ।
कोई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्य ꠰꠰73।।
अचारित्री व्रतविवर्जित शुद्धभावनाप्रभ्रष्ट स्वच्छंद पुरुषों का स्वच्छंद वचन―कितने ही मनुष्य या कितने ही योगी जिनके चारित्रमोह का उदय है, चारित्र पर आवरण पड़ा है, व्रत-समिति से रहित हैं, आत्मा का जो शुद्ध सहज स्वभाव है उस स्वभाव से भृष्ट हैं, तो अपने स्वभाव की जिनको सुध नहीं है ऐसे मनुष्य यह कहा करते हैं कि आज का काल ध्यान योग का नहीं है, लेकिन जिनको आत्मा के स्वरूप की लगन है, स्वभावदृष्टि करते रहने की धुन है और इस धुन में यथाशक्ति चारित्र में अपना कदम बढ़ा रहे हैं, शुद्ध स्वभाव की दृष्टि से च्युत नहीं हो रहे हैं उनको यह विश्वास है कि आज भी आत्मध्यान हो सकता है । भले हो मोक्ष पाने योग्य शुक्ल ध्यान न हो फिर भी जितना संभव है इस संहनन में उतना ध्यान हो सकता है । ज्ञानी को संदेह नहीं है, मगर जिनको ध्यान करना ही नहीं है, पहले से ही सोच रखा है कि मौज में रहना चाहिए, विषयों के उपभोग में रहना चाहिए, जो आराम पसंदी हैं, चारित्र की जिनको चाह नहीं, व्रत, समिति आदिक का पालन नहीं करते, ऐसी स्वच्छंदता जिनके आयी है वे कुछ तो अपनी चतुराई बताने के लिए और कुछ उनके ज्ञान में बात न समाने से वे कहा करते हैं कि आज का समय ध्यान और योग का नहीं है । अरे ! समय की क्या बात? समय तो एक समान है । कालद्रव्य की जो पर्याय है उसमें क्या विकार है कि कोई समय खोटा होता है, कोई समय अच्छा होता है, वह तो यहाँ का होनहार, यहाँ का योग जैसा बनता है, खोटा बनता तो लोग खोटा होनहार कहते हैं अच्छा बनता तो लोग अच्छा होनहार कहते, पर काल में कोई दोष नहीं है । अब रही स्वयं-स्वयं की व्यक्ति की बातें, वे कितने योग्य हैं सो यह योग्यता दृष्टि के अनुसार समझी जाती है । जिसको ज्ञानस्वभाव की दृष्टि जगी है और ऐसी ही दृष्टि वाले कुछ लोगों का संग मिल जाये, जिससे बाहरी परिग्रह की प्रतिक्रिया न रहे तो उसके आत्मध्यान में उमंग रहती है और उसे नि:शंक यह निर्णय रहता है कि आज भी यह आत्मा, आत्मा का ध्यान कर सकता है और कर्मों का ध्यानानुसार क्षय कर सकता है, लेकिन जो स्वच्छंद हैं, सुख में ही मौज मानकर जीवन बिताते हैं उनको यह दिखता है कि आज ध्यान का समय नहीं है ।