वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 75
From जैनकोष
पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ।
जो मूढ़ो अण्णाणी ण हु कालो भणई झाणस्स ꠰꠰75꠰।
व्रत समिति विमुग्ध अज्ञानीजनों का स्वच्छंद वचन―जो 5 महाव्रतों में मूढ़ हैं, तीन गुप्तियों में मूढ़ है ये अज्ञानी हैं और वही कहते हैं कि यह ध्यान का काल नहीं है । जिसको 5 महाव्रतों का स्वरूप ही नहीं पता और कोई योगी हो तो महाव्रत के नाम पर बाहरी क्रियावों को जान ले और उन्हीं बाहरी क्रियावों में ही व्यामुग्ध हो गया, उसे भी महाव्रत का पता नहीं, और जो नहीं है दिगंबर और यहाँ ही सुख में आसक्त है उसे महाव्रत का पता नहीं ꠰ अहिंसा महाव्रत में अपने में विकारभाव न जगना यह है अहिंसा, जीवदया करना मात्र यह अहिंसा नहीं है, यह भी अच्छा है लेकिन पूर्ण अहिंसा नहीं हुई । आत्मा में किसी भी प्रकार का विकार न जगे वह है पूर्ण अहिंसा । यह व्रत लिया है मुनि ने, अब विकार तो बनाये रहे, आत्मा की सुध भी न हो और मात्र जीवों पर दया करे, यहाँ बचाये, वहाँ बचाये, उचक-उचककर चले, केवल बाहरी-बाहरी ही ख्याल चलता रहे तो वह भी अच्छा है अपेक्षाकृत, मगर जिसके लिए कदम बढ़ाया है, दिगंबर हुए हैं, परमेष्ठी हुए हैं उस पद में तो कुछ ऊ̐ची भावना होनी चाहिए ꠰ विकारभाव न होना अहिंसा है और इसी अहिंसा की पूर्ति के लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत हुआ करते हैं, पर तथ्य का जिन्हें पता नहीं वे अपना समय गुजार रहे हैं और सांसारिक सुखों में मस्त हो रहे हैं और कहते हैं कि आज ध्यान का समय नहीं है । पाँच समिति―कितने ही पुरुष तो समितियों के स्वरूप को ही नहीं जानते । और किसीने मानो मुनिव्रत ले रखा हो, दिगंबर हो तो भी समिति के तथ्य को नहीं जानते । हां, खूब देखकर चल रहे, सब बात कर रहे, पर उसे यह पता नहीं कि आत्मा के स्वरूप में गमन करने का नाम निश्चय से समिति है, केवल ऊपरी ही किया कर रहे जीव बचाया, उचककर चले तो यह तो एक कोरा नाटक रहा । उसे तथ्य का पता ही नहीं कि आत्मा का जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसे हमें पहिचानना है । जब लक्ष्य का ही पता नहीं तो उसे समितियों के तथ्य का भी पता नहीं, और फिर जो मानो कर रहा हो प्रवृत्ति समितियों की तो बाह्य क्रियावों में ही प्रवृत्ति करता है, वह उसमें व्यामुग्ध है या जिन्हें पता ही नहीं वे भी व्यामुग्ध हैं, ऐसे पुरुष कहा करते हैं कि आज ध्यान का समय नहीं है ।
त्रिगुप्ति तथ्य से अपरिचित अज्ञानीजनों का स्वच्छंद वचन―तीन गुप्तियां मनोगुप्ति―मन को वश करना याने यह मन कोई कल्पना ही न उठा सके, किसी बाहरी पदार्थ का ख्याल विचार ही न ला सके, ऐसा मन को वश करना है, यह तथ्य जिन्होंने जाना ही नहीं है उनको ध्यान का स्वाद ही नहीं आया, तो वे कहा करते हैं कि आज ध्यान का समय नहीं है । वचनगुप्ति―वचनों को वश करना, बोलना नहीं, और भीतर में बोलने का भाव भी न जगना । अब बोलते तो नहीं और भीतर में बोलने का भाव है, मानो किसी तरह से तो या तो संकेत करेंगे या हाथ से लिखकर बतायेंगे । जिसने पूर्ण मौन लिया है, वचनगुप्ति लिया है तो वह भीतर में बोलने के भाव को ही खतम कर देता है, इस तथ्य का जिन्हें पता नहीं, ऊपरी क्रियावों में ही जो मुग्ध हैं या अज्ञानमुग्ध हैं ऐसे लोग कहते हैं कि रहने दो, आज ध्यान का समय नहीं है । आज तो ऐसे ही गुजारा करना ठीक है । शरीरगुप्ति―शरीर का हलन-चलन बंद करना और स्थिर मन से, स्थिर उपयोग से आत्मस्वरूप का ध्यान बनाना कायगुप्ति होती है आत्मस्वरूप के ध्यान के लिए । सो शरीर-शरीर पर ही दृष्टि रखकर इसे खूब कड़ा रखे, खूब सीधा रखे, जरा भी हिलेडुले नहीं, यह ही जो ध्यान कर रहा है वह तो गुप्ति में मूढ़ है, उसे इस रहस्य का पता नहीं कि कायगुप्ति होने दो सहज । इस उपयोग को अपने आत्मस्वभाव में लगाओ । तो जो काय गुप्ति के तथ्य से अपरिचित हैं वे धर्म के नाम पर शरीर पर ही दृष्टि रखकर शरीर की ही कोई साधना बनाने में दत्त-चित्त हैं ऐसे पुरुष कहते हैं कि आज इतना ही कर लो, इससे आगे कुछ कर सकने का आज का समय नहीं है, मगर वास्तविकता देखो, समय कैसे नहीं है? हम आत्मा हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, अपने स्वरूप को जानना है, कोई कठिन बात नहीं है । हम अपने आपको जानने में रत रहा करें, इसके लिए कौन बाधा देने आता है? साधारण संहनन वाले भी आत्मा की सुध, आत्मा की दृष्टि तो रख ही सकते हैं, लेकिन जो क्रियावों में आसक्त हैं वे ही कहते हैं कि आज ध्यान का समय नहीं है ꠰