वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-32
From जैनकोष
वेदनायाश्च ।। 9-32 ।।
वेदना प्रभव नामक तृतीय आर्तध्यान का लक्षण―सूत्र का अर्थ―‘‘और वेदना का’’, इससे पूर्व से भी पूर्व सूत्र में अनुवृत्ति आयी है जैसे कि प्रथम आर्तध्यान में कहा था वेदना का संयोग होने पर उसके विकार के लिए चिंता होना वेदना प्रभव आर्तध्यान है । देखो वेदना होने पर उसको दूर करने के लिए धैर्य खोकर जो चिंता और विकलता होती है, हाथ पैरों का पटकना, शोक करना, आंसू गिराना, और के बारे में चिंतन चलना यह सब वेदनाजन्य आर्तध्यान है, जो मुख्यतया अज्ञानी जीवों के होता है फिर भी कर्म विपाक बड़ा विचित्र है । सम्यग्दृष्टि को कोई शारीरिक तीव्र वेदना होने पर किसी समय किसी रूप में वहाँ भी यह आर्तध्यान संभव है, लेकिन सम्यक्त्व और ज्ञान के बल से मौलिक एकता उन्हें नहीं दी जिससे कि अंधकार हो सामने और शांति का मार्ग न दिखे बड़ी विह्वलता न हो । कर्म विपाकवश शरीर की वेदना तीव्र होने पर सही न जाये और उसका कुछ प्रतिकार भी करा ले तिस पर भी चूँकि आत्मस्वरूप का अनुभव सहित परिचय पाया है ज्ञानी ने, ऐसा ज्ञानी साधु वेदना प्रभव आर्तध्यान मुख्य नहीं है । तो शरीर में रोग लाखों करोड़ों की संख्या में हैं, अथवा कोई चोट लग जाये, ऐसी अनेक वेदनायें चलती हैं, उन वेदनाओं के होने पर जो उस वेदना संबंधी स्मृति बनी रहती है वह है तृतीय आर्तध्यान ।