वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-4
From जैनकोष
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति: ।।9-4।।
गुप्ति की संवरकरणता का प्रकाश―भले प्रकार से योग का निग्रह करना गुप्ति कहलाता है । छठे अध्याय के प्रथम सूत्र में बताया गया था कि शरीर वचन और मन की क्रियाओं को योग कहते है । योग का सीधा अर्थ तो आत्मा के प्रदेशों का हलन चलन है पर यह हलन चलन शरीर, वचन, मनोवर्गणा का आलंबन लेकर होता है, इस कारण तीनों योगों का नाम देकर योग का लक्षण बताया गया है । योग का निग्रह क्या कहलाता है? योग की स्वच्छंदता का अभाव होना, मनमाने आचरण का अभाव होना निग्रह कहलाता है । योग के निग्रह को योग निग्रह कहते हैं । यहाँ सम्यक विशेषण दिया गया है जिससे अर्थ बनता है कि भले प्रकार से योग का निग्रह होना गुप्ति है । तो उस भले प्रकार से क्या अर्थ विवक्षित है? वह अर्थ यह है कि सत्कार लोकेषणा आदिक की आकांक्षा जहाँ रंच भी न रहे यहाँ ही योग निग्रह गुप्ति कहलाती है । सत्कार के मायने है सम्मान होना, पूजा होना । लोकेषणा के मायने है कि यह संयमी बहुत महान् है, इस प्रकार लोक में बड़प्पन का प्रकाश होना । तो ऐसा इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी फल की आकांक्षा के बिना, विषय सुखों की अपेक्षा के बिना केवल स्वभाव में लीनता के प्रयोजन से जो काय, वचन, मन का निग्रह है वह गुप्ति कहलाता है । कोई पुरुष सत्कार और लोकेषणा के लाभ से बड़े-बड़े तपश्चरण करे, स्थिर होकर खड़े होकर तप करे, एक पैर से खड़ा रहे या मौन धारण कर ले, किसी प्रकार योग निग्रह बनाने का प्रयत्न करे तो भी भीतर, में इहलोक परलोक की आकांक्षा होने से वह गुप्ति न कहलायेगी ।
सम्यक् योगनिग्रह की कार्यकारिता―सम्यक् विशेषण शब्द देने से यह अर्थ लेना कि संक्लेश की उत्पत्ति जहाँ नहीं होती है ऐसी विधि से काय, वचन, मन का निरोध होने पर योग निमित्तक कर्म नहीं आते हैं, ऐसा योगनिग्रह गुप्ति कहलाता है । ये गुप्तियाँ तीन हैं―(1) कायगुप्ति, ( 2) वचनगुप्ति और (3) मनोगुप्ति । जिस पुरुष के कायगुप्ति नहीं है वह यत्नाचार के बिना देखे शोधे भूमि पर घूमता है, बिना देखे भूमि पर दूसरी वस्तु रखता है, बिना देखे शोधे भूमि पर सोना, बैठना, उठना आदिक शारीरिक क्रियायें करता है। ऐसी कायिक क्रियाओं से कर्म का आस्रव होता है । यद्यपि शारीरिक क्रियायें आस्रव का कारण नहीं है । कर्माश्रव का कारण रागद्वेषादिक विभाव हैं, पर इन चिन्हों से पहिचाना जाता है कि इस के किस प्रकार का प्रमाद है और रागद्वेष है, अतएव कहा जाता है कि ऐसी काय चेष्टाओं से कर्म का आस्रव होता है । ऐसा काय योग का निग्रह करने वाले संयमी जीव के कर्मों का आस्रव नहीं होता, ऐसे ही जिनके वचन योग का निग्रह नहीं है उन जीवों के असत्य प्रलाप, अप्रिय वचन के बोल अदिक व्यापार होने लगते हैं और ऐसे वचन व्यापार का निमित्त पाकर कर्म का आस्रव होता है, किंतु जिनके वचनगुप्ति है उन पुरुषों के कर्म का आस्रव नहीं होता, इसी प्रकार जिनके मनोगुप्ति नहीं है, रागद्वेषादिक विकारों से जो दब गये हैं उनका मन स्वच्छंद विचरता है । अतीत विषयों की अभिलाषा, ख्याल, स्मरण, भावी विषयों की अभिलाषा, वर्तमान विषयों में आसक्ति ऐसे मन का व्यापार चलता है और इस मनोयोग के होने पर कर्मों का आस्रव होता है, किंतु जिनके मनोयोग का निग्रह हो चुका है उनके इन कर्मों का आस्रव नहीं होता । यों योग के निग्रह से संवर तत्त्व होता है । अब यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि जब तक शरीर साथ लगा हुआ है तब तक इन जीवों को प्राण जीवित रखने के लिए चेष्टायें तो करनी ही होंगी, तो उनके लिए मुनियों की जैसी गुप्तियाँ होना एक कठिन बात है । तो जहाँ गुप्ति अशक्य है वहाँ फिर संवर ही न हो सकेगा । ऐसी जिज्ञासा रखने वाले पुरुषों के समाधान करने के लिये समितियों का वर्णन करने वाला सूत्र कहते हैं ।