वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 143
From जैनकोष
किं बहुणा वयणेण दु सव्वं दुक्खेव सम्मत्तविणा।
सम्मत्तेण संजुत्तं सव्वं सोक्खेव जाण खु।।143।।
सम्यक्त्व के बिना सर्वदुःखमयता व सम्यक्त्व सहित की सर्वसौख्यमयता―सम्यक्त्व की महिमा के संबंध में कह रहे हैं कि अधिक वचन बोलने से क्या लाभ हैं? इतने से ही समझ लीजिए कि सम्यक्त्व के बिना सब कुछ दुःख रूप है। जिस जीव के सम्यक्त्व नहीं है वह क्या करेगा? किसी भी बाह्य पदार्थ को उपयोग में लेकर अभेद बुद्धि बनाकर किसी बाह्य पदार्थ के ही बारे में मनन करेगा, वचन बोलेगा, शरीर से प्रवृत्ति करेगा, सो यह सब दुःख रूप ही है। जहाँ उपयोग अपने स्रोत स्थान अंतस्तत्त्व से चिगकर बाहरी पदार्थों में रमा वहाँ इसको कष्ट ही कष्ट है। जैसे मछली अपने जल स्थान को तजकर किसी के द्वारा भी प्रेरित होकर बाहर गिर पड़े, जल रहित स्थान में आ जाय तो वह तड़फ-तड़फ कर अपना विनाश करती है, ऐसे ही यह उपयोग अपने स्रोत स्थान ज्ञानसमुद्र को तज कर बाह्य जगह रागद्वेष की भूमि पर बाह्य पदार्थों के विषयों में उपयोग गिर पड़े तो यह उपयोग अपने आत्मा का विनाश विघात करता है तो ज्यादह कहने से क्या लाभ? एक सम्यक्त्व के बिना सर्व दुःख रूप ही हैं और जब निश्चय सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ याने यह आत्मा अपने सहज ज्ञान स्वभाव का अनुभव कर ले, सम्यक्त्व पा ले तो फिर सब सुख ही सुख जानना। क्योंकि अब ज्ञान अपने स्वरूप की ओर आया अपने शांतिधाम अंतस्तत्त्व की ओर लगा तो वहाँ सब शांति ही शांति वर्तेगी। तो यह जानकर कि सब कुछ एक सम्यक्त्व का ही प्रताप है। सम्यक्त्व से ही सर्व सुख का मार्ग मिलता है तो एक इस सम्यक्त्व को धारण करो। सम्यक्त्व लाभ के लिए तत्त्व का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। जब इस मनुष्य के पास मन है, बुद्धि है और यह बाहरी बातों में उपयोग लगाता है। तो ऐसी स्थिति वाले इस मनुष्य को तत्त्व का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। जो लोग कुछ बाह्य वैभव पाकर बाह्य में ही रमते रहते हैं। वे चाहे पुण्योदय से अपने को बड़ा महान समझ लें सुख शांति वहाँ नहीं है। शांति तो सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर ही संभव है।