वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 25
From जैनकोष
अणयाराणं वेज्जावच्चं कुज्जा जहेह जाणिज्जा।
गब्भब्भमेव मादाव्व णिच्चं तहा णिरालसया।।25।।
साधुवों की वैयावृत्ति करने का कर्तव्य―इस गाथा में आचार्य देव कह रहे हैं कि मुनिजनों को सब कुछ अनुकूलता समझकर वैयावृत्ति करना चाहिए। जैसे कि माता गर्भस्थ शिशु का पालन करती है उस के समान नित्य आलस्य रहित होकर अनगार मुनिजनों की वैयावृत्ति करना चाहिए। वैयावृत्ति का अर्थ क्या है? जल्दी में लोग कह तो देते हैं कि वह वैयावृत्ति कर रहा है पर वैयावृत्ति का अर्थ है व्यावृतस्य भावः वैयावृत्तं याने रिटायर्ड पुरुष का काम उसे कहते हैं वैयावृत्ति तो जो पुरुष वैयावृत्त हैं, संसार, शरीर, भोगों से उदास हैं वे पुरुष बस मुनिजनों की सेवा में अपना समय लगाते हैं। तो जो आत्मज्ञान पाये हुए हैं और आत्महित की बड़ी धुन लगी है उनको यही तो कर्तव्य है कि अपनी ड्यूटी करें। रिटायर्डपने का काम करें, व्यावृत्त के करने योग्य कार्य को करें। तो ऐसे अनगार जनों को वैयावृत्ति जैसे करना चाहिये वैसे करते हैं। जैसे कि छोटे बच्चे की या गर्भस्थ बालक की सेवा होना चाहिए―माँ कैसा भोजन करे कि गर्भ में रहने वाले बालक को बाधा न आये उस तरह से जान करने मुनिजनों की सेवा करना चाहिये।