वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 92
From जैनकोष
‘‘रायाइमलजुदाणं णियअप्पारूवं ण दिस्सए किं वि।
स-मलादरिसे रूवं ण दिस्सए जह तहा णेयं।।92।।’’
रागादिमलव्याप्त जीवों की निजात्मस्वरूप के दर्शन की अपात्रता―अज्ञानी जीवों का हृदय उपयोग रागादिक मल से युक्त है तो उस हृदय में, उपयोग में अपना आत्मस्वरूप जरा भी नहीं दिख सकता। परमात्मतत्त्व दो प्रकार से निरखिये एक तो ऐसा आत्मा जो समस्त रागादिक विकारों से मुक्त हो गया है, जिसका ज्ञान लोकालोक को जानने वाला है, सर्वज्ञ सर्वदर्शी है ऐसा आत्मा परमात्मा है, यह तो हुआ व्यक्त परमात्मा ओर एक अपने आत्मा के स्वरूप निरखें, दूसरी वस्तु का यहाँ संबंध न दिखे। एक में जो अहं प्रत्ययवेद्य है उस एक ज्ञान से जो जाना जा रहा है, यह आत्मा स्वयं अपने आप अपने ही सत्त्व से पर के संयोग बिना क्या स्वरूप है उस पर निगाह दें तो वह स्वरूप मिलेगा सहज ज्ञानमात्र चैतन्य ज्योतिमात्र। यह कहलाता है कारण परमात्मा और जिसका पहले वर्णन किया कि जो सर्वज्ञ है, कर्ममल से रहित है वह परमात्मा है उसे कहते हैं कार्य परमात्मा तो अपना जो सहज स्वरूप है जिसे कहते हैं कारण समयसार उस रूप में अपने को अनुभवें तो रागादिक मल हट जाते हैं। कर्म दूर हो जाते हैं अपने-अपने आप स्वयं आपका विकास हो जाता है, कार्य परमात्मा हो जाता है, तो उस कारण परमात्मतत्त्व की बात कह रहे हैं वह अपने में अंतः प्रकाशमान है, पर जो रागादिक मल से लिप्त है, जो ऐसा मान रहे हैं कि मैं ये रागादिक रूप हूँ तो ऐसे जीवों को अपना आत्मस्वरूप दिखता नहीं है मायने यह परमात्मतत्त्व विराजता नहीं हैं। यदि कोई ऊंचा अधिकारी आफीसर आया कर घर में तो आप घर को कितना साफ करते हैं, कितना सजाते हैं और उसकी प्रतीक्षा करते हैं। वहाँ आकर उच्च अधिकारी विराजता है, तो परमात्मतत्त्व से उच्च है क्या लोक में? उसको मुख से तो बुलाते हैं, पर हृदय गंदा कर रखा है, तो मैले कुचैले दिल में परमात्मतत्त्व कैसे आयेगा, कैसे बनेगा? पहले अपने घर को साफ किया जाय। अपना उपयोग स्वच्छ किया जाय। ये रागादिक परभाव मैं नहीं, मैं तो केवल ज्ञानमात्र तत्त्व हूँ, देखिये यह सब बात पूर्ण वैज्ञानिक विधि में उतरेगी, आत्मविज्ञान परख लीजिए। कोई भी पदार्थ होता है जो भी सत् है वह अपने आप अपना स्वरूप रख रहा है किसी अन्य की दया पर किसी अन्य की सत्ता नहीं होती। जो सत् है वह स्वयं है। तो मैं आत्मा सत् हूँ, स्वयं हूँ तो स्वयं कैसा हूँ? ज्ञान ज्योतिमात्र। ज्ञानमय वही स्वरूप मेरा, उस तत्त्व को जो नहीं जानते और रागद्वेषादिक मल से युक्त हैं उनको आत्मस्वरूप दिखता नहीं है। मलिन दर्पण में रूप न दिखने की भांति रागसंयुक्त उपयोग में परमात्मतत्त्व का अदर्शन― जैसे मलिन दर्पण में रूप नहीं दिखा करता है दर्पण में कुछ तैल सा पुता हो, कुछ कूड़ा सा लग गया हो, कुछ मलिन हो गया हो तो उस दर्पण में रूप नहीं दिखता, देखो दर्पण के ऊपर मैल लगा हो एक तो ऐसा मलिन दर्पण और दूसरा ऐसा मलिन कि उस दर्पण के भीतर ही या दर्पण के पीछे मसाला निकल जाय, भीतर कुछ रेखायें हो गई, कुछ भीतर ही बिगड़ गया तो एक ऐसा बिगड़ा दर्पण, तो बताओ दोनों बिगाड़ों में से अधिक बिगाड़ का दर्पण कौन सा है? जो भीतर ही भीतर रेखायें खिंची, काला हो गया, चिटक गया, कुछ भी हो गया वह बिगाड़ बुरा है और दर्पण के ऊपर तैल कूड़ा लग गया तो उसे कपड़े से साफ कर लिया जाता है। तो ऐसे ही जीव दो बिगाड़ हैं। एक तो बिगाड़ यह है कि रागद्वेष जगता है और एक यह बिगाड़ है। कि उन रागद्वेषों को ही आत्मा मानना कि यह मैं हूँ। इन दो बिगाड़ों में से कौन सा बिगाड़ कठिन बिगाड़ है? रागादिक भाव होना और उन्हें मानना कि यह मैं हूँ यह कठिन बिगाड़ है, रागादिक हो गए, कर्म उदय में आयें, उनकी छाया हो गई यह एक बिगाड़ है ऊपरी और उनको यह मान लिया कि यह ही मैं सब कुछ हूँ तो यह है उसका कठिन बिगाड़, जिसके फल में संसार में जन्म मरण करना पड़ता है तो जैसे मलिन दर्पण में रूप नहीं दिखता ऐसे ही रागादिक मलों से युक्त उपयोग में निज सहज परमात्मतत्त्व का रूप नहीं दिखता, इससे क्या करना कि सत्य ज्ञान करना, जो औपाधिक भाव हैं उनको मूल तत्त्व न मानना जैसे दर्पण में सामने पड़े हुए रंगीन कपड़े का फोटो आ गया तो वह फोटो दर्पण के अन्य स्वरूप में तो नहीं हैं। ऐसे ही मुझ पर पहले बँधे हुए कर्मों का उदय रस छा गया, प्रतिफलन हो गया, छाया आ गई, फोटो आ गया, मगर मैं तो उस रूप नहीं होता। मेरे स्वरूप में इन पर पदार्थों का प्रवेश नहीं हैं, ऐसी दृष्टि रहे और अपने आप के स्वरूप का अनुभव रहे तो इस जीव का कल्याण है। लोकसम्मति से उपेक्षाकर ज्ञानिसम्मति का आदर करने का अनुरोध―आत्मा के उद्धार की बात वोटिंग से समझ में न आयेगी कि भाई दुनिया में इतने लोग रहते हैं, इन सब की वोट लें, सम्मति लें कि आत्मा का हित किसमें है, तो क्या वोटिंग आयेगी? कौन सी वोट अधिक आयेगी। यही कि खूब खावो पियो, विवाह करो, लड़के हो, धन जोड़ो, नाम बढ़ावो, ये वोट यहाँ अधिक मिलेंगे, तो मिथ्यात्व संसार को बढ़ाने वाले ही वोट यहाँ मिल पायेंगे। हर एक काम वोटिंग से नहीं चलता। बुद्धिमानी का काम बुद्धिमानों की वोट से चलेगा, सर्व साधारण की वोट से न चलेगा। जो स्वयं ज्ञान का अनुभव किए हुए हों उनसे पूछो कि आत्मा की भलाई किसमें है? तो उनसे मिलेगी सही सम्मति तो सारा जगत रागादिक मल का प्रेमी है, अपने भीतर की निर्मलता उन्हें नहीं पसंद आती ऐसा यह जीव लोक है। यहाँ बसने वाले रागादिक मलों से युक्त लोगों के चित्त में परमात्मस्वरूप आत्मस्वरूप नहीं ज्ञान में आ सकता। तब क्या करना? थोड़ी सी कुँजी हैं, जो कुछ गुजर रहा उसके नीचे से खिसककर और अंतः झुककर अनुभव करना कि मैं तो यह ज्ञानमात्र हूँ, अन्य किसी रूप नहीं हूँ। यह पौरुष बने तो उस जीव के सम्यक्त्व है, ज्ञान है, चारित्र बनता है।