वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1098
From जैनकोष
विलीनविषयं शांतं नि:संगं त्यक्तविक्रियम्।
स्वस्थं कृत्वा मन: प्राप्तं मुनिभि: पदमव्ययम्।।1098।।
स्वस्थ मन करके ही योगियों की अव्यय पद के लाभ की संभवता― मुनिजनों ने अपने मन को ऐसा स्वच्छ बना लिया जिससे अविनाशी पद की प्राप्ति उन्होंने की। कैसा मन बनाया कि जहाँ विषय विलीन हो गये हैं देखिये कोई भी पदार्थ हो उसमें प्रतिसमय नवीन-नवीन पर्याय बनती है। तब पुरानी पर्याय का क्या होता है? उससे निकल जाती है क्या? उसे किसी ने देखा है क्या निकलते हुये? क्या होता है उस पुरानी पर्याय का? पुरानी पर्याय न तो उस पदार्थ में बनी रहती और न निकलकर बाहर जाती। जैसे कोई पुरुष कभी क्रोध कर रहा था। अब उसके शांति जग गयी तो शांति की पर्याय बनने पर यह तो बताओ कि क्रोध का अब क्या हुआ? जो क्रोध पहिले इतना उमड़ रहा था उसका क्या हुआ? क्या उस आत्मा में कुछ भी दबाव पड़ा हे अथवा वह क्रोध उस आत्मा से निकलकर बाहर आ गया क्या? न उस पदार्थ में है, न वह बाहर निकला है और न उसका सत्त्व। इसी को कहते हैं विलीन। समुद्र में जैसे बहुत सी तरंगें उठ रही थी, अब हवा न रहने से निष्तरंग हो गया समुद्र। यह तो बताओ कि समुद्र की वे तरंगें कहाँगयी? समुद्र में पड़ी हुई है या समुद्र से निकलकर कहीं पहुँची हैं? समुद्र की एक अवस्था थी, उसके विपक्षभूत दूसरी अवस्था आ गई तो इसी को कहते हैं विलीन होना। तो जहाँविषय विलीन हो गए, पहिले विषयरूप परिणम रहा, यह मन निर्विषय हो गया, शांत हो गया तो वहाँ विषय विलीन हो गया। वह मन अब शांत हो गया वह मन अब नि:संग हो गया। उसके साथ अब न कोई मिथ्याभूत पर है और न भाव भूत पर है, न विकार है, न उपाधि है। जिसने अपनी विक्रिया छोड दी, निर्विकार बन गया ऐसे स्वच्छ मन को करके मुनीश्वरों ने नाशी परमपद को प्राप्त किया। तो जो उत्कृष्ट पद है, परम निराकुलता का स्थान है उसकी प्राप्ति का उपाय मूल में मन को शुद्ध बना लेना है, और मन की शुद्धस्थिति वह है जहाँ सब जीवों के प्रति सुखी होने की भावना या सबमें समानरूप से रहने की भावना बन जाय, सबसे विलक्षण यों कहो कि अहंकार में वासित अपने आपको यह न माने और सर्व के समान अपने को समझ ले तो समझो कि यह मन की शुद्धि प्रकट हुई है।