वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1139
From जैनकोष
इति मोहवीरवृतं रागादिवरूथिनौसमाकौर्णम्।
सुनिरूप्य भावशुद्धया यतस्व तद्बंधमोक्षाय।।1139।।
मोहसुभटबंधन से मुक्ति पाने के प्रयत्न का अनुरोध:― यह सब मोहरूपी सुभट का कृतांत जो यह परेशानी का जितना भी समाचार है यह मोहरूपी सुभट के पराक्रम का समाचार है। यह मोह सुभट रागादिक सेना से सहित हे। इसकी सेना है रागद्वेषादिक परिणाम। तो हे आत्मन् ! भली प्रकार से विचार करके इसके बंधन से ही छूटने का यत्न कर। लोग मन को वश में करने का यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदिक उपचार करते हैंतथापि उनके मन में रागद्वेष मोह का यथार्थस्वरूप ज्ञात नहीं है और उससे बचने का मार्ग भी विदित नहीं है, अतएव वे बहुत-बहुत श्रम करके भी मन में शांति नहीं पाते हैं। रागादिक भावों के जीते बिना मोक्ष के कारणभूत ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। रागद्वेषमोह की व्यर्थता समझ लो।ये रागद्वेष मोह व्यर्थ के परिणाम हैं और जरा सा स्नेह विकार किया, कलंक बनाया उसके फल में ऐसा कर्मबंधनहोता है कि चिरकाल तक वह उस अपराध के बंधन से छूट न सकेगा। प्रथम तो यह ही समझ लें कि ये रागादिक विकार बैरी हैं, मेरे स्वरूप नहीं है और व्यर्थ ही ये उत्पन्न होते हैं, इनसे लाभ नहीं है। इतना निर्णय तो बसा फिर रागादिक सुगम ही जीत लिए जायेंगे। तत्त्वज्ञान करके जो आत्मा की साधना करते हैंउनके ही विशुद्ध आत्मध्यान जगता हैजिसके प्रसाद से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब मिथ्यात्व कर्म का उदय होता है तब रागद्वेष मोह उत्पन्न होते हैं। जब मिथ्याभाव दूर होता है तो चारित्र के घातक जो रागादिक भाव हैं वे भी दूर हो जाते हैं।
आत्महित के उपाय पर संक्षिप्त प्रकाश:― आत्महित में कर्तव्य यह हे कि अपने आपको घिसे। बारबार भावना भावें कि मैं सिवाय भावों के कुछ करता तो हूँ नहीं। बाह्यपदार्थों में मेरी कोई करतूत नहीं। अपने को भावों में सुधार बिगाड़ दिखता है, किन भावों से मेरा बिगाड़ है? कौन से भाव बिल्कुल व्यर्थ हैं? न होते तो क्या नुकसान था मेरा? सबमें स्वरक्षित रहता। ये सब व्यर्थ के परिणाम हैं और ऐसे ही परिणामों में अनंतकाल खो दिया। और अनंत काल की बात दूर रहो, इस ही भव की बात सोच लो जो समय गुजर गया है उसही समय की बात परख लो। लगता है ना ऐसा कि जो रागादिक भाव किया, विकल्प किया, कल्पनायें की, मोह बसाया, आसक्त रहे वह सब व्यर्थ ही समय गया। तो ऐसे व्यर्थ अनर्थ रागादिक विकारों से दूर होने के लिए अपने आपको घिसिये, देखिये ये सब विकार भाव मेरे विनाश के ही कारण हैं। मैं उन विकारोंरूप नहीं हूँ। में तो विशुद्धसहज ज्ञानस्वभाव हूँ। वही परमात्मतत्त्व है, इसकी दृष्टि बने, इसका आश्रय मिले तो यह जीव अमीर है। सब कुछ पा लिया उसने।क्या पा लिया? शांति और आनंद का मार्ग। अपने आपका शोधन करना, सबसे न्यारा अपने आपको चैतन्यस्वरूप मात्र निरखना, ऐसी भावना बनाना, ज्ञानदृष्टि में अपने आपको घिसना यही तो काम है, इसके बिना शांति का रास्ता मिलता नहीं। एक ही उपाय है। अब जब बने तब करें। जितने दु:खी जन होते हैं उतना दु:खी होने की बात कर लो अथवा विवेक जगाकर अपने को सुखी कर लो। अपने को विकाररहित केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप अनुभव करो कि मैं यह हूँ, इसका किसी से जुड़ाव नहीं, वह किसी के आधीन नहीं। यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं हैं कि में अधूरा रहूँ और कभी पूरा बन जाऊँ, आनंद से ही भरा हूँ, और जब विकृत होता हूँतो यह पूरा ही तो विकृत हुआ जब यह चेतता है तो पूरा ही चेतता है, ऐसा परिपूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वभाव मात्र हूँतो यह ऐसा अपने आपमें अनुभव करना चाहिए। जैसे अब तक किसी भी इष्ट के चिंतन में, विचार में, स्नेह में समय खाया ना वह समय खोयाऔर एक आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की भावना बनाया तो वह समय का सदुपयोग किया। कुछ तो समय आत्मविश्राम में अवश्य रहना चाहिए। जैसे लोग थककर हँसी-खुशी के क्लब में जाकर दिल बहलावा करते हैं, थकान मेटते हैं, पर आत्मा की थकान उन उपायों से नहीं मिट पाती और एक आत्मस्वरूप का भान करें, दृष्टि करें और रुचि पूर्वक उस स्वरूप को ही निरखें और इस निरखने के फल में ज्ञानमात्र अपने को परिणमा लें तो शांति की अवस्था मिलती है। आत्मविश्राम सत्य यही है। इतना काम करने को 24 घंटे में 10-5 मिनट तो लगाना ही चाहिए।सब महिमा तत्त्वज्ञान की है। सब कुछ सुलभ है दुनिया में।बड़े-बड़े राजपाट भी सुलभ हैं किंतु एक यथार्थज्ञान दुर्लभ है। जिस ज्ञान की चर्चा में ही बड़े आनंदरस उमड़ते हैं। वह ज्ञान जब ज्ञानरूप होकर परिणमता है तब उसके आनंद का कौन वर्णन कर सकता है? मैं शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप हूँ ऐसी अपने आपमें बारबार भावना करें तो आत्मा की शुद्धि होने लगेगी। यही कल्याण का उपाय है।10 मिनट तो रखिये आत्मदया के लिए। अपने आपको दु:खी तो किया करीब-करीब 24 घंटे में यह भी पद्धति निरखलो कि जब उपयोग अपने श्रोत में आता है जहाँ से यह उपयोग उठा उसी विशुद्ध धाम में उपयोग मग्न होता है तो सत्य विश्राम वहाँ ही मिलता है। उसका बारबार अभ्यास बने तो आत्मध्यान बनता है और आत्मध्यान से ही मुक्ति का लाभ होता है। अब रागद्वेष के परिहार करने का उपदेश देने वाला परिच्छेद समाप्त हुआ। अब उस साम्यभेद का वर्णन किया जायगा, जिस साम्यभाव से ध्यान की सुगम सिद्धि होती है।