वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1141
From जैनकोष
चिदचिल्लक्षणैर्भावैरिष्टानिष्टतया स्थितै।
न मुह्यति मनोयस्य तस्य साम्ये स्थितिर्भवेत्।।1141।।
जिस प्राणी का मन चेतन और अचेतन पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता उस पुरुष की ही साम्यभाव में स्थिति होती है। समस्त चेतन अथवा अचेतन पदार्थ मेरे स्वरूप से अत्यंत भिन्न हैं, उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उनमें है, मेरा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझमें है। मेरा मेरे सिवाय अन्य पदार्थों से मेरा कुछ भी संबंध नहीं है। न कर्तव्य है और न भोक्तृव्य है, न कोई मेरा अधिकारी है, न में किसी का स्वामी हूँ, ऐसा जिनके स्पष्ट निर्णय है वे पुरुष अन्य पदार्थों में मोह को प्राप्त नहीं होते। राग अथवा द्वेष उनके चित्त में नहीं आता, अतएव उनके समतापरिणाम प्रकट होता है। जहाँ समता हो वहाँ ही आत्मध्यान है, आत्मस्पर्श है। जहाँ रागद्वेष अथवा किसी पदार्थ में इष्ट अनिष्ट बुद्धि हो वहाँ ही इस जीव का संसार है। समता का घात करने वाला मूल में तो मोहभाव है। जहाँ शरीर में आत्मबुद्धि हुई, यह मैं आत्मा हूँ ऐसा शरीर में पर्याय का लगाव हुआ कि वहाँ सर्वप्रथम तो एक नामवरी की चाह उत्पन्न होती है। पोजीशन का परिणाम जगा फिर वहाँ इस पूर्ति के लिए सर्व कुछ इसे करना पड़ता है। नीति अनीति कुछ भी इसके लिए शेष नहीं रहते। तो इस मोह के आधार पर रागद्वेष का परिणाम होता, और रागद्वेष होने पर समता नहीं ठहर सकती। जिन पुरुषों को साम्यभाव चाहिए उनको यथार्थ ज्ञान समक्ष रहना चाहिए।