वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1170
From जैनकोष
उन्मत्तमथ विभ्रांतं दिग्मूढं सुप्तमेव वा।
साम्यस्थस्य जगत्सर्व योगिन: प्रतिभासेत।।1170।।
समतापरिणाम में स्थित मुनि को वह जंगल ऐसा जँचता है कि मानो वह जगत उन्मत्त है या विक्रयरूप हे या दिग्मूढ़ है अथवा रीता है। जिसने अपने आपमें समता का स्वभाव लिया हो, केवल ज्ञानमात्र तत्त्व का अनुभव किया है वह बाहर में भी जीवों को देखेगा तो उनमें भी यही निश्चल चित्स्वरूप नजर आयगा। पीछे कुछ सोचेगा तो यह बात आयगी क्या कि यह यह है, ऐसी पर्याय है, अमुक का अमुक है? जैसे ज्ञान के कम अभ्यासियों को सबसे पहिले ये मायामय शरीर मुद्रायें पर्यायें नजर आती हैं फिर कुछ तो चित्त चलायें, ज्ञान की ओर ले जायें तो श्रम से फिर उन सबका अंत: जो मर्म है, चैतन्य स्वरूप है उसकी दृष्टि जाती है। जैसे कोई पुरुष दोष देखने की आदत वाला है तो जिस किसी को भी वह देखेगा तो वह उसमें दोष ही पायगा और पीछे कोशिश करने पर फिर गुणों की भी बात कुछ समझ सकेगा। और जिसे गुण देखने की आदत हे वह दूसरे को देखकर सर्वप्रथम आनंद से सहज ही विलासपूर्वक गुण देखेगा, पीछे कोशिश करने पर, श्रम से विचार करने पर फिर दोष भी हों तो समझ में आयेंगे। ऐसे ही ज्ञान के कम अभ्यासी जनों को जगत के इन जीवों में एकदम साफ तौर से यह भाव ही नजर आयगा, यह मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, अमुक जाति का है, अमुक जगह का है। पीछे कोशिश करने पर फिर उनका जो वास्तविक मूलरूप है उसमें दृष्टि बड़े श्रम से पहुँच सकती है और अभ्यासी जनों को विश्व के इन समस्त जीवों में सीधे ही एक चैतन्यस्वरूप दृष्टि में आता है, पीछे फिर सोचने पर पर्याय भेद ये सब भी ज्ञान में आ सकते हैं। ज्ञान का ऐसा अभ्यासी पुरुष उसको यह जगत कैसा नजर आता है? उसकी बात इस छंद में कही जा रही है। समतापरिणाम में स्थित योगी को यों भासता है कि मानो यह जगत पागल है। तत्त्व तो कुछ है, आनंद तो निकट है, आनंद तो स्वरूप है, पर उस ओर दृष्टि नहीं दे रहा यह जीवलोक। और बाहर-बाहर ही दृष्टि देकर अपने आपको पागल बनाये जा रहा है। निकट ही क्या? वहाँ दृष्टि ही न दे और बाहर ही बाहर उपयोग दृष्टि चलित हो रही है यों वह पागल दिखता है। इसी से मिला जुला वह भी दर्शन होता है उन जीवों में अथवा ये सब विकृतरूप हैं, अब कुछ थोड़ी सी इज्जत की है। जैसे किसी पुरुष के बारे में यह कहें कि भाई इसका क्या अपराध है? इसको जरा भ्रम हो गया है तो भ्रम का नाम लेने से कुछ ऐसा नजर आता हे कि कुछ इसकी महिमा बढ़ायी है। बजाय पागल कहने के विक्रय रूप कह दिया जाय तो कुछ इसकी इज्जत है अथवा यह दिशाशूल हो गयी है लेकिन कुछ इज्जत और बढ़ा दी है। विक्रय में जितना भ्रांति का दोष है दिशाशूल में उतना दोष नहीं माना जाता। लो थोड़ी और इज्जत बढ़ा दी है। मानो यह विश्व सो रहा है लेकिन अचल चैतन्यस्वरूप में दर्शन के मुकाबले ये सब विरुद्ध ही वृत्तियाँ बतायी जा रही हैं। ज्ञान और समता के अभ्यासी योगी को यह विश्व इस प्रकार भासता है, क्योंकि उनमें भी हमने अपने ही समान विशुद्ध चित्स्वभाव का अवगम किया है।