वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1174
From जैनकोष
यस्य ध्यानं सुनिष्कंपं समत्वं तस्य निश्चलम्।
नालयोर्विद्धयधिष्ठानमन्योऽन्यं स्याद्विभेदत:।।1174।।
जिस पुरुष का ध्यान निश्चल हैउसका साम्यभाव भी निश्चल है और ध्यान व समता का परस्पर भेद नहीं है तो ध्यान का आधार संभाव है और समता का आधार ध्यान है। जहाँ समता है वहाँ ध्यान जगता है जहाँध्यान विशुद्ध होता है वहाँ संभाव प्रकट होता है। तो जिसके निश्चल ध्यान है उसके ही समता की सिद्धि होती है। जैसा लोग सोचते हैं सुख शांति के लिए कि अमुक काम कर लें, धन संचय कर लें, अपना नाम बना लें तो उससे सुख शांति मिलेगीपर यह तो उनका केवल स्वप्न है। बजाय इसके ऐसी उत्सुकता जगना चाहिए कि मैं अपने आपमें कितनी अधिक समता प्रकट कर सकता हूँ? जितनी मुझमें समता बनेगी उतना ही आनंद मिलेगा, विश्राम मिलेगा, संकटों से मुक्ति होगी। तो जैसे लौकिक जनों को धन की तृष्णा लगी हुई है ऐसे ही ज्ञानी जनों को एक समताभाव की तृष्णा जगती है। तृष्णा क्या? यह भावना बनती हे कि मेरे में समता प्रकट हो और वे निहारते हैं कि मुझमें समता कितनी आयी है, मैं कितने समागम को निरखकर ज्ञाताद्रष्टा रह सकता हूँ? लोक में सार का कहीं नाम नहीं है। किसी भी समागम में क्या है समागम? अनंतानंत जीवों में से कोई दो एक जीव आ गए समागम में तो वे क्या हित कर देंगे? हित तो दूर रहो, उनमें स्नेह जगेगा तो हम ही उनके आराम के साधन बनाने के लिए श्रम किया करेंगे दूसरों से मिलता कुछ नहीं है। मानो लखपति हो गए, करोड़पति हो गए, बड़ा धनसंचय कर लिया तो अंत में होगा क्या? उसे छोड़कर जाना ही पड़ेगा? लाभ कुछ नहीं है इन बाह्य समागमों से, यह पूर्ण सुनिश्चित बात है, लेकिन जब मोह बसा हुआ है तब तो अपने आपको परेशान ही कर डालेंगे। है वहाँ कुछ नहीं, ये सभी स्वप्नवत् बातें हैं। जैसे स्वप्न में जो कुछ दिखता हैवह स्वप्न के समय में सही प्रतीत होता है पर सही कुछ नहीं है। जहाँ नींद खुली तहाँ वहाँ कुछ नहीं ऐसे ही इन आँखों के देखते हुये की स्थिति में भी जो-जो भी समागम प्राप्त हैं उनमें सार कुछ नहीं है। केवल कल्पनाएँजगा-जगाकर अपने आपको परेशान किया जा रहा है। स्मरण तब होगा जब तत्त्वज्ञान जगेगा या उन प्राप्त समागमों का विछोह होगा। फिर किसके लिए इस अपने मन को परेशानी में डाला जाय? आत्मस्वरूप को निरखिये और खूब धर्मपालन कीजिए। धर्मपालन ही एक सार है। धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी श्रम विकल्प हितरूप नहीं है। समतापरिणाम के जगाने का उद्यम करना चाहिए।