वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 18
From जैनकोष
भवप्रभवदुर्वारक्लेशसंतापपीडितम्।
योजयाम्यहमात्म नं पथि योगींद्रसेविते।।18।।
ग्रंथरचना का लक्ष्य―शुभचंद्राचार्य इस छंद में कहते हैं कि इस ग्रंथ की रचना से संसार में जन्म लेने के दुर्निवार क्लेश के संताप से पीड़ित मैं अपने आत्मा को योगीश्वरों से सेवित ज्ञानध्यानरूपी मार्ग से जोड़ता हूँ। यहाँ ग्रंथ रचना का प्रयोजन दिखाया है, यह ग्रंथ रचना क्यों की जा रही है? ग्रंथरचना का उद्देश्य यही है कि मैं अपने आत्मा को ऐसे ज्ञानतत्त्व में लगाऊँ जिस ज्ञानतत्त्व में जुड़ने से मेरे संसार के समस्त संकट कट जायेंगे। जगत में सब कुछ सुलभ है। जो भी वैभव मिला है, कल्पना कर लो कि तीनों लोकों का भी जड़पदार्थों का समूह इकट्ठा आपके घर में आ जाये तो भी उससे आपके क्लेश न मिटेंगे। क्लेश मिटाने का वह साधन ही नहीं है। क्लेश मिटेंगे तो एक सम्यग्ज्ञान से। अपने आपके ज्ञानस्वरूप की खबर होने से क्लेश दूर होंगे।
ग्रंथकर्ता की भावना― मैं ऐसे ज्ञानतत्त्व का प्रतिपादन करूँगा जिस प्रसंग में अपने ज्ञानतत्त्व का स्पर्श कर सकूँ और अपने आपको ज्ञान में जोड़ सकूँ। फिर दूसरे का उपयोग होता है तो वह हो, पर आचार्यदेव इतने मात्र भाव से कि मैं दूसरे लोगों का उपकार करूँ, ग्रंथ रचें तो उसका उद्देश्य तो लोग झट कह देंगे, बड़ा अच्छा है, पर हित के अनुकूल नहीं है। जिसकी ग्रंथरचना में अथवा उपदेश में भी अपने आपकी सुध लेने का लक्ष्य भी नहीं है, केवल एक यही भाव बनाया है कि मैं लोगों को समझाऊँ, इनका उद्धार कर दूँ, तो पर कर्तव्य का भाव हो सकता है और इससे मिथ्या आशय बन सकता है। मुख्य प्रयोजन यह था के मेरा उपयोग ज्ञान के प्रसंग में जुड़ा रहे, नाना जगहों में मेरा उपयोग न भ्रमे। शुभचंद्राचार्य भी इस ग्रंथ रचना की भूमिका में यह बात बता रहे हैं कि मैं अपने आत्मा को योगींद्रसेवित ज्ञानपथ में जोडूँ, इस आशय से इस ग्रंथ को रच रहा हूँ।