वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 575
From जैनकोष
हृदि यस्य पदं धत्ते परवित्तामिषस्पृहा।
करोति किं न किं तस्य कंठलग्नेव सर्पिणी।।
परधन की इच्छा से अनर्थ- जिस पुरुष के हृदय में परधनरूपी माँस भक्षण की इच्छा स्थान पा लेती है अर्थात् जो दूसरों के धन हरने रूप माँस भक्षण करता है उसके कंठ में तो सर्पिणी के समान इच्छा लगी हुई है। जैसे किसी के गले में सर्पिणी पड़ी हो तो वह पुरुष अरक्षित है, काल के सन्मुख है, इसी तरह जिसके चित्त में परधन को ग्रहण करने की इच्छा लगी है वह भी अरक्षित है, निरंतर व्याकुल है। परधनासक्ति में कितने विकल्प उठाये पाते हैं, क्या उपाय किये जाते हैं, कितने मायाचार किये जाते, विषय कषाय व्यसन सब उसमें स्थान पाये हुए हैं। तो इच्छा क्या क्या अनिष्ट नहीं करती, जितनी जो कुछ आपत्तियाँ हैं वे सब इच्छा के कारण हैं। आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप है, अब भी वह आनंदतृप्त है, उसे कोई क्लेश नहीं है मगर इस ज्ञानसमुद्र में इच्छा तरंग उठी कि सारा आत्मा विह्वल हो गया। अब उसे यह स्वप्न समान असार जगत् भी सार दिखने लगा। विषयभोग सामग्री भी उसे सार नजर आने लगी और जो यत्न न करना चाहिए इस भगवान आत्मा को वे यत्न किये ता रहे हैं। तो इस जीव को दु:ख देने वाली इच्छा है।
आत्मा का आनंदस्वभाव- भैया ! इच्छा न हो तो जीव को कोर्इ क्लेश नहीं है। देख लो सब मनुष्य अकेले-अकेले नजर आ रहे हैं। अकेला आत्मा अकेला ही देह के संबंध को प्राप्त है। सबकी अपने-अपने अकेलेपन की बात है, लेकिन भीतर क्या मैल पड़ा है, क्या विकार पड़ा है कि इन सब मोही जीवों के हृदय विकल्पों का भार लादे हुए हैं। कोई किसी तरह का विकल्प करता, कोई किसी तरह का। मान लो किसी तरह का विकल्प आपमें है उस तरह का विकल्प क्या हममें आ सकता है? वह विकल्प आपका आपमें है और हमारा हममें है। हम सोचें कि आप न विकल्प करें और आप हमारे प्रति सोचें कि यह विकल्प न करे तो ऐसा सोचने से क्या किसी के कोई विकल्प मेट देगा? कोई किसी के विकल्प मेटने में समर्थ नहीं है। अपना ज्ञान जगायें और अपने विकल्प मिटायें। निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप में अपना उपयोग जगायें तो अपना क्लेश मिट सकता है, अन्य कोई क्लेश मिटने का उपाय नहीं है। आत्मा का तो आनंद स्वभाव ही है, उसकी आस्था कीजिये। बाहरी पदार्थों का संचय कर-करके क्लेश मिटने की आशा करना अग्नि में घी और ईंधन डाल-डालकर अग्नि को शांत देखने की इच्छा की तरह है। यह कभी हो नहीं सकता कि हम परभावों का संचय कर-करके तृष्णा को दूर कर लें या शांति पा लें। यह तो ज्ञान से ही संभव है। ज्ञानी जीव अपने चित्त में ऐसा विरक्त है, फकीर है कि उसे किसी परद्रव्य से लेप नहीं है। वह तो अपने को शुद्ध अलिप्त ज्ञानमात्र मानता है।
इच्छाओं के त्याग से ही शांतिलाभ- जिसके हृदय में परवस्तु की तृष्णा लगी है और परधन को ग्रहण करने की इच्छा लगी है उसकी सब इच्छायें, उसके सब अनिष्ट कर्तव्य ये जितनी बड़ी-बड़ी घटनायें हैं ये सब हैं क्या? दूसरों के धन को ग्रहण करने की इच्छा का परिणाम है। बड़े नेता हो गए, मिनिस्टर हो गए, ऊँचे अधिकारी बन गए, तिस पर भी उनकी लालसा जगी है, वैभव बढ़ा रहे हैं तो उसका फल क्या होगा? कोई किसी तरह गुजरता, कोई किसी तरह। तत्त्व क्या निकला? कुछ भी नहीं। जैसा परिणाम किया, विकार किया उस भाव के अनुसार वह अपना फल भोगता है, संसार में रुलता है, तत्त्व कुछ भी नहीं है इन समागमों में। जो ज्ञानी जितना अपने आत्मा की उपासना कर लेगा, प्रभु भक्ति, स्वाध्याय, अपने अंतस्तत्त्व की उपासना कर लेगा वह उतना पवित्र है और वह मोक्षमार्गी है, वही संसार से छूट सकता है। शेष तो सर्वसमागममात्र अनर्थ हैं।