वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-35
From जैनकोष
नारकाणां च द्वितीयादिषु: ।। 4-35 ।।
द्वितीयादिक नरकों मे नारकियों की जघन्य स्थिति―अर्द्धलोक के इन जीवों की जघन्य स्थिति बताने के बाद अब शेष जो भी जीव रहे अधोलोक में या मध्यलोक में, उनकी जघन्य स्थिति बतलायी जा रही है । इनमें सबसे पहले नारकियों की जघन्य स्थिति कहनी है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तो तीसरे अध्याय में कह दी गई थी । अब नारकों की जघन्य स्थिति कहने के लिये सूत्र में जैसे लाघव हो उस प्रकार वर्णन करने के ध्येय से द्वितीय आदिक नरकों में जघन्य स्थिति यहाँ बतायी गई है । नारकियों में भी दूसरे आदिक नरकों में वह जघन्य स्थिति है जो उससे अनंतर पूर्व नरकों की उत्कृष्ट स्थिति है । यहाँ प्रथम नरक की जघन्य स्थिति न बता कर द्वितीय आदिक नरकों की जघन्य स्थिति बताने का प्रयोजन है―सूत्र लाघव । इससे पहले सूत्र में जितने भी पद कहे हैं उन सब पदों की अनुवृत्ति इस सूत्र में ली गई है, अत: इस छोटे से सूत्र से ही वह सब अर्थ निकल आता है । दूसरे आदिक नरकों में अनंतर पूर्व-पूर्व नरकों की उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति कहलाती है । जैसे पहले नरक की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर है । तो दूसरे नरक में जघन्य स्थिति एक सागर होगी । दूसरे नरक की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागर है । तो यह तीन सागर जघन्य स्थिति तीसरे नरक में है । इस तरह नीचे-नीचे नरकों की जघन्य स्थिति समझना । अब प्रथम नरक की जघन्य स्थिति बतलाते है ।