वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-20
From जैनकोष
अणुव्रतोऽगारी ।। 7-20 ।।
(170) व्रतित्व की दृष्टि से अगारी का स्वरूप―जिसके अणुव्रत हुए है वह अगारी होता है, गृहस्थ श्रावक कहलाता है । व्रतों में अणुपना कैसा, जिससे कि अणुव्रत नाम कहलाये? उत्तर―समस्त सावद्य से वह हटा नहीं है, इस कारण उसके व्रत को अणु कहते हैं । पूरा पाप से न हटने के कारण उसके व्रत का नाम अणु है । तब फिर यह किससे हटा हुआ है? यदि समस्त पापों से नहीं हटा तो किससे हटा है । उत्तर―दो इंद्रिय आदिक जीवों की हिंसा से निवृत्त हुआ है मन से, वचन से, काय से । अब यह ज्ञानी जीव दो इंद्रिय आदिक जंगम प्राणी का घात नहीं करता, घात से निवृत्त हो गया । उसका अहिंसक अभिप्राय बन गया, नियम हो गया । यह तो अहिंसा विषयक अणुव्रत है । और सत्यविषयक अणुव्रत क्या है गृहस्थ के कि स्नेह के, द्वेष के, मोह के उद्रेक से जो असत्य कथन होता है उस असत्य कथन से निवृत्त हो गया, ऐसी असत्य वाणी से उसका आदर नहीं रहा तो वह लक्षणीय असत्याणुव्रत का धारी है । तीसरा व्रत हैं अचौर्याणुव्रत । दूसरे पुरुषों को पीड़ा पहुंची हो या राजा का भय हो या किसी कारण से उसे छोड़ना ही सोचा हो कि इस चीज को छोड़ना ही चाहिए, किसी तरह छूट गया हो या किसी के भूल से गिर गया हो तो वह अदत्त है, किसी का दिया हुआ तो नहीं है । तो ऐसे अदत्त धन के प्रति आदर न रहना सो यह अचौर्याणुव्रत है । ब्रह्मचर्याणुव्रत―विवाहित या जिसके साथ विवाह न हुआ हो ऐसे अन्य स्त्रियों के संग से विरक्त रहना यह ब्रह्मचर्याणुव्रत है । 5 वां अणुव्रत है परिग्रहपरिमाणुव्रत । धन धान्य खेत आदिक की जितनी अपनी इच्छा से सीमा ले ली है उस सीमा को न तोड़ना और उस परिमाण किए हुए वैभव में ही अपना निर्वाह करना यह 5वां परिग्रह परिमाणाणुव्रत है । इस प्रकार जिसके ये 5 अणुव्रत पाये जाते है वह अगारी है, गृहस्थ श्रावक है । अब जिज्ञासा होती है कि जो 5 पापों से विरक्ति बतायी गई है, जिसने ऐसी स्थूल विरति पायी है उस श्रावक के क्या इतनी ही विशेषता है या अन्य भी कुछ विशेषता है? अन्य विशेषता अर्थात् शील बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।