वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-21
From जैनकोष
दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकओषधोपवासोपभोगपरि-
भोगपरियाणातिथिसंविभागब्रतसंपन्नश्च ।। 7-21 ।।
(171) दिग्व्रत और देशव्रत का निर्देश―वह अणुव्रती गृहस्थ श्रावक 7 शीलों से संपन्न होता है । तीन गुणव्रत और 4 शिक्षाव्रत इनका नाम शील कहलाता है, क्योंकि इन 7 व्रतों में प्रथम तीन तो हैं गुणव्रत । गुणव्रत उसे कहते हैं जो व्रती के गुणों की वृद्धि में उपकारक हो । वे तीन हैं―(1) दिग्व्रत, (दे) देशव्रत और (3) अनर्थदंड व्रत । पाप आरंभ के त्याग के लिए जीवनपर्यंत दिशावों में सीमा रख लेना, उससे बाहर आना, जाना आदिक संबंध न रखना सो अहिंसा दिग्व्रत है । दिशायें कहते हैं आकाश के प्रदेशों को । उस ओर के आकाश प्रदेश जहाँ से सूर्य निकलता है उसे कहते है पूर्व दिशा । और, वह सूर्य गोल घूमकर उसके सीध में पहुंच जाये तो उसे पश्चिम दिशा कहते हैं । जितना पूर्व और पश्चिम के बीच है वह कहलाता दक्षिण और जितना पश्चिम और पूर्व के बीच हो वह कहलाता उत्तर । तो सर्व दिशावों में आजीवन व्यापार आदिक का नियम कर लेना कि इससे बाहर मेरा संबंध न रहेगा, यह हुआ दिग्व्रत । देशव्रत―दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर और थोड़ा क्षेत्र, थोड़े समय के लिए करने पर देश व्रत कहलाता है । जिसमें यह भाव होता है कि मैं इतने समय तक इससे बाहर आने जाने का संबंध न रखूँगा । तो इसे कहते हैं देशव्रत । दिग्व्रत और देशव्रत में जितनी सीमा रखी है उस व्रत के समय उस सीमा के बाहर वह पाप से रहित है ।
(172) अनर्थदंडविरति के लक्षण व प्रकार―अनर्थदंडव्रत अनर्थ में अर्थात् अपना कोई काम नहीं है, अपना कोई भला नहीं होना है, उपकार नहीं होना है, फिर भी पाप के साधनों से संबंध करना, प्रयोग करना सो अनर्थ दंड है । इन सबसे विरक्त होना सो व्रत कहलाता है । इस सूत्र में विरति शब्द पूर्व में कहने से शब्द के साथ लगेगा । जैसे दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति । समस्त अनर्थदंडों के साथ विरति शब्द का प्रयोग होगा । यहाँ शंकाकार कहता है कि 7 वे अध्याय के इस पूर्व प्रकरण में सब जगह प्रथम सूत्र में कहे गए विरति शब्द की अनुवृत्ति ली जायेगी । सो विरति की अनुवृत्ति होने से अपने आप विरति सिद्ध हो गया । फिर इस 21 वें सूत्र में विरति शब्द रखने की जरूरत नहीं है । इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि सूत्र में विरति शब्द न दें तो यहां किस किसके साथ विरति शब्द लगाना चाहिए? यह अर्थ न मिलेगा । उसका अर्थ सामान्य विरति होगा और यहाँ विरति शब्द देने से सबमें नाम बन जाता है―जैसे दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति । अनर्थदंड 5 तरह के होते है―(1) अपध्यान, (2) पापोपदेश, (3) प्रमादचर्या, (4) हिंसादान और (5) दुश्रुति । दूसरे जीव का जय पराजय सोचना, किसी के वध बंध का विचार करना, किसी का कोई अंग छेदना, किसी का धन हरना अपध्यान नाम का अनर्थदंड है, क्योंकि ऐसा विचार करने वाले पुरुष को इस विचार से क्या लाभ होता? दूसरे का बुरा विचारने से इस आत्मा को क्या लाभ होता, चाहे कितनी ही किसी ने बाधा दी हो, फिर भी उसका बुरा विचारना ठीक नहीं है, क्योंकि बुरा विचारने से उसका बुरा न होगा, बल्कि स्वयं का परिणाम मलिन करने से स्वयं के परिणाम से स्वयं का बिगाड़ होगा । तो किसी का भी बुरा न विचारना यह है अपध्यान अनर्थदंडविरति । पाप का उपदेश न करना । जैसे इस देश में पशु को खरीदकर अमुक जगह जाकर बेचा जाये तो वह लाभ देता है, ऐसे पापयुक्त वचन बोलने को पापोपदेश कहते हैं । हिंसादान―किसी शिकारी जाल वाले को यह कहना कि इस वन में पक्षी बहुत हैं । इस वन में हिरण आदिक रहते हैं, ये वचन पापोपदेश हैं, क्योंकि उसका प्रयोग तो शिकारी लोग उसका वध करने से मानेंगे, इसी प्रकार खेती आदिक के प्रयोगात्मक युक्तियाँ बताना, इस तरह खोदना, इस तरह जलाना, इस तरह अग्नि लगाना आदिक के आरंभ इन उपायों से करना चाहिए, यह कहना आरंभिक उपदेश है । प्रमादचर्या―कुछ प्रयोजन नहीं है फिर भी वृक्षादिक को छेदना, भूमि को कूटना, पानी बखेरना आदिक सावद्यकर्म प्रमादचर्या कहलाते हैं । हिंसादान―जैसे शस्त्र, अग्नि, बरछी, ढाल, तलवार आदिक जो-जो भी हिंसा के उपकरण हैं उनको देना हिंसा दान है । दुश्रुति―हिंसा में राग बढ़ाना, दुष्ट कथावों को सुनाना, खोटी शिक्षा करना आदिक व्यापारों को अशुभ दुश्रुति कहते हैं । ऐसे इन 5 अनर्थदंडों से बचना अनर्थदंडविरति कहलाता है ।
(173) सामायिक एवं प्रोषधोपवास नाम के शिक्षा व्रतों का निर्देश―उक्त कथन में तीन गुणव्रत का स्वरूप सुना, अब शिक्षाव्रतों का स्वरूप सुनिये―सामायिक नाम है समता परिणाम का । नियत देश में नियतकाल तक प्रतिज्ञा की हुई सामायिक में रहकर अविकार आत्मस्वरूप के अनुभव का पौरुष करना सामायिक है । जैसे दिग्व्रत में मर्यादा के बाहर न चलने से वह श्रावक सीमा बाह्य क्षेत्र के प्रति महाव्रती की तरह है, देशविरत में क्षेत्र मर्यादा के बाहर गृहस्थ महाव्रती की तरह है, ऐसे ही सामायिक में आत्माभिमुखता के समय में वह महाव्रती की तरह है, पर दिग्व्रती देशव्रती व सामायिक शिक्षाव्रती श्रावक वस्तुत: कहीं महाव्रती न कहलायेगा, संयमी न कहलायगा, क्योंकि संयम का घात करने वाले कर्म का उदय उसके चल रहा है, फिर भी महाव्रत जो कहा जाता है वह उपचार से कहा जाता है । हिंसा आदिक बाह्य क्रियावों में जिसकी बुद्धि आसक्त नहीं है किंतु अंतरंग में संयम का घात करने वाले कर्मों का उदय होने से सर्वदेश से विरति नहीं हैं तो भी जितने देश में, जितने काल में वह इस आरंभ में रहता है उससे बाहर के देशकाल में निरांभ होने से उसके महाव्रत का उपचार किया जाता है तभी तो भाव महाव्रतों की अंतःस्थिति न होने पर भी निरतिचार द्रव्य महाव्रत के धारी, निर्ग्रंथलिंगधारी कोई अभव्य पुरुष भी हो, उसके 11 अंग का अध्ययन हो जाता है, महाव्रत का पालन भी हो जाता है फिर वह नवग्रैवयक तक उत्पन्न भी होता है । उपवास कहते है अपने धर्मध्यान के लिए आत्मा के लक्ष्य पूर्वक रहने को । उपवास शरीर का संस्कार नहीं होता, शृंगार भी नहीं होता, स्नान भी नहीं होता, आभरण पहिनना आदिक भी नहीं होता, तो ऐसी स्थिति में यह श्रावक साधु के निवास क्षेत्र में रहकर, चैत्यालय में रहकर या अपने ही घर में जो एक अलग स्थान बनाया है, जिसमें धर्मध्यान किया जाने का संकल्प है वहाँ बैठकर, रहकर, धर्मकथायें सुनकर, चिंतन कर जिसका मन पवित्र हो गया, ऐसा पवित्र चित्त होकर अपने आत्मा के निकट निवास करे वह निरारंभ श्रावक वृत्ति है―यह कहलाता है उपवास । उप मायने निकट वास मायने रहना । प्रोषध एकाशन को कहते है, प्रौषधपूर्वक व प्रोषधपरक उपवास को प्रोषधोपवास कहते हैं ।
(174) शुभास्रव के प्रकारण में मोक्षमार्गपात्रतानुकूली अणुव्रतों का वर्णन―इस सप्तम अध्याय में आस्रव का प्रकरण है । किस भावकर्म से किस द्रव्यकर्म का आस्रव होता है यह बात तत्वार्थ सूत्र के छठवें और 7वें अध्याय में कही गई है । छठवें अध्याय में आस्रव का सामान्य वर्णन था । यहाँ पुण्यास्रव का वर्णन चल रहा है । व्रत करने से कर्मनिर्जरा नहीं किंतु पुण्य का आस्रव है और शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । यद्यपि जो व्रत करता है उसके भी शुद्ध ध्यान कुछ-कुछ साथ है और अंतरंग में सम्यग्दर्शन और पापनिवृत्ति का परिणाम है इसलिए वहाँ भी निर्जरा चलती है । पर व्रत क्रिया करने से निर्जरा नहीं किंतु पाप से निवृत्ति हो गई है, उसका कारण निर्जरा है । जैसे मानो कि राग के 100 अंश हैं और राग के 15 अंश निकलने पर सम्यक्त्व हुआ और उसके बाद मानो 25 अंश और निकले तब अणुव्रत हुआ अर्थात् अणुव्रती के जो कुछ राग निकल गया, कुछ राग रह गया, यह स्थिति है श्रावकों की । अब व्रतों में जो प्रवृत्ति चलती है दया करना, सच बोलना, ऐसी जो शुभ प्रवृत्ति चलती है उसका कारण है वह बचा हुआ राग, और जो राग निकल चुका था, न रहा, उसका काम है कि पाप से हट जाना । तो पाप से जो हट गया उससे तो है निर्जरा और शुभ क्रियावों में जो लग रहा उससे है पुण्य का आस्रव । इसी शुभ आस्रव के प्रकरण में इस सूत्र में श्रावक के अणुव्रतों के पोषक शील व्रतों का वर्णन चल रहा है ।
(175) अणुव्रतपोषक सप्त शीलों का निर्देश―दिग्व्रत, देशव्रत अनर्थदंडव्रत ये तीन गुणव्रत हैं अर्थात् दिशावों की मर्यादा कर लेना कि मैं इन चारों दिशावों में इतने से बाहर किसी दूसरे देश से लेनदेन न रखूँगा, कोई संबंध न रखूंगा, आना जाना न रखूँगा, यह दिग्व्रत कहलाता है । इसका प्रयोजन यह है कि यह श्रावक अपनी सीमा के अंदर ही विकल्प विचार करेगा, आना जाना रखेगा, इसके बाहर से संबंध न रहेगा तो निराकुलता रहेगी, धर्मसाधना में बढ़ेगा । देशव्रत में उस दिग्व्रत की मर्यादा के अंदर भी और छोटी मर्यादा रख ली कुछ समय नियत कर । जैसे दसलक्षण पर्व के दिनों में अपने नगर से बाहर न जाना, ऐसे ही कुछ और मर्यादा रख ले वह है देशव्रत । उसका भी यही प्रयोजन है कि विकल्प तरंग इच्छायें न उठें । अनर्थदंडव्रत―जिस काय के करने से आनंद में अटक आ पड़े और कर्मों का बंध होता है उनको त्यागना यह अनर्थदंडव्रत है । जैसे व्यर्थ के पाप के उपदेश करना, हिंसा की चीज दे देना, अधिक जल बखेरना, चलते-चलते पत्तों को छेद देना, इनमें मेरा कुछ अटका नहीं है फिर भी करना अनर्थदंडव्रत है । यों अनर्थदंड से विरक्त होना व्रत है । 4 शिक्षाव्रत हैं, ( 1) सामायिक करना, नियत समय पर नियत काल में आत्मचिंतन करना, (2) प्रोषधोपवास करना अर्थात् अष्टमी को उपवास किया तो सप्तमी को एकाशन, नवमी को एकाशन, फिर दशमी को उपवास यह प्रोषधोपवास है । इसके अतिरिक्त दो और व्रत हैं । (3) भोगोपभोग परिमाण और (4) अतिथिसम्विभागव्रत । इन दोनों व्रतों का वर्णन आगे आयेगा ।
(176) भोगोपभोगपरिमाणव्रतनामक शिक्षा व्रत का विवरण―भोगोपभोग परिमाणभोग और उपभोग की चीजों का परिमाण कर लेना । भोग कहते हैं उसे जो एक बार भोगने में आ जाये, फिर दुबारा न भोगा जा सके । जैसे भोजन, पानी, तेल मालिश या नहाना जिस जल से नहा लिया उस नहाये गए जल से फिर नहीं नहाया जाता तो यह सब भोग कहलाता है । उपभोग वह कहलाता कि भोगे छोड़े फिर भी वही चीज भोग सकता है । जैसे रोज-रोज कपड़े पहनते है, वही घर है, वही आभरण है । जिसे रोज-रोज बर्तते हैं । तो ये उपभोग की चीजें कहलाती हैं । तो भोगोपभोग दोनों का परिमाण कर लेना, मैं इतनी चीज रखूँगा इससे अधिक नहीं । जिनके परिमाण नहीं है उनके दिल का कहीं टिकाव नहीं हो पाता । प्रथम तो परिग्रह का परिमाण होना चाहिए । 5 लाख, 10 लाख जो भी उचित समझे, उतने का परिमाण कर लेना । परिमाण होने से उसके चित्त में तृष्णा की दाह नहीं रहती । यों तो लखपति हैं तो करोड़पति होने का भाव बनता, करोड़पति हैं तो अरबपति होने का भाव बनता, फिर और भी आगे के भाव बनते, बस इसी तृष्णा की दाह में जलते हुए सारा जीवन यों ही व्यर्थ खो दिया जाता, उसका कोई सही उपयोग नहीं हो पाता । इस मानव जीवन का सही उपयोग हे धर्मपालन में । धर्मपालन की दृष्टि रहे इसी लिये गृहस्थ को परिग्रह परिमाण करना बताया गया । भोगोपभोग में परिमाण रखना कि मुझे इतनी ही चीज रखना, उससे आगे नहीं । आज जो प्राय: करके सब दुःखी नजर आते हैं उसमें कारण यही है कि लोगों के चित्त में परिमाण की भावना नहीं है । अब जो बात कभी घर में होती ही न थी, वे होने लगी । रेडियो आया, फिर टेलीविजन हुआ, फिर फ्रीज हुआ, बिजली के पंखे हुए, पंखों से भी काम न चला तो कूलर लगवाये, कपड़ा धोने की मशीन हुई, आराम करने के समय कोई शरीर दाबने वाला न हुआ तो उसकी भी मशीन हो गई । भला बताओ ऐसा कौनसा काम बाकी रह गया जो मशीनों से न होता हो? अब परिग्रह का परिमाण न होने से मन में एक ऐसी लालसा बनी रहती कि अभी अमुक चीजें चाहिएँ, अमुक चाहिएं । भला बताओ इसी इसी में चित्त बसा रहने से उसे आत्मा की सुध कहां से हो सकती? जिनका जीवन किसी न किसी कष्ट में बना रहता है ऊपरी कष्ट में, अज्ञान के कष्ट में नहीं किंतु शारीरिक कष्ट, धन वैभव का कष्ट, परिजन का कष्ट । तो उस सुखी आदमी से वे अधिक अच्छे हैं जिनको ज्ञान जगा है और उन कष्टों में अपने आत्मा का स्मरण करता है और परमात्मा का स्मरण करता है । बाहर से कष्ट होने पर भी भीतर में उसको शांति है और एक को बाहर में कोई कष्ट के साधन नहीं है, बड़ा ठंडा मकान है, बहुत नौकर चाकर हैं, गद्दों तकियां पड़े हैं, ये सब आराम हैं मगर अज्ञान बसा है इससे चित्त में उसे शांति नहीं मिल सकती । शांति का आधार ज्ञान है, बाहरी चीज का मिलना नहीं । तो जिसको अपने आत्मा को पवित्र करने का ध्यान है वह बाहरी भोग । और उपभोग की सामग्री में चित्त न रमायेगा । तो परिग्रह का परिमाण रखें ।
(177) पंच प्रकार के अभक्ष्यों की आजीवन हेयता―भोग की चीजों में मुख्य हैं खाने पीने की चीजें । 5 चीजें तो ऐसी हैं कि वे तो जीवन में कभी लेनी ही न चाहिएँ । वे क्या-क्या हैं―(1) त्रसघात― जिसमें त्रस का घात होता हो, जैसे फूलगोभी, शराब, मांस, अंडा, बाजार की सड़ी गली जलेबी, दही अचार मुरब्बे वगैरह । (2) दूसरी चीज है बहुघात अनंत स्थावरघात―जैसे आलू अरवी, गीली हल्दी, गीली अदरख आदि ऐसी चीजें जिन्हें व्रती न खायें वे त्यागने योग्य हें । (3) तीसरी चीज है प्रमाद करने वाली वस्तुएं । जिनमें तंबाकू मुख्य है । उसी का आज घर-घर रिवाज है । जो घर बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू आदिक से बचा हुआ है उसके ये दोष नहीं आ सकते । व्यर्थ की चीज, नशा करने वाली चीज, व्यर्थ पैसे भी खोये, इतना तो गरीबों को दे दिया जाये तो उनका भला हो । और लोग तो बताते हैं कि तंबाकू खाने के कारण कैन्सर रोग हो जाता है । तो ये प्रमाद करने वाली चीजें अभक्ष्य हैं । (4) चौथी चीज है अनिष्ट । जिसके स्वास्थ्य में जो चीज नुक्सान करे वह चीज वहाँ अभक्ष्य है । जैसे बुखार वाले को घी नुक्सान करता तो घी उसके लिए अभक्ष्य है । 5 वीं चीज है अनुपसेव्य―जैसे गाय का मूत या लार । तो इनका तो वैसे ही त्याग होता है पर इनके अतिरिक्त जो खाने पीने योग्य पदार्थ हैं उनका परिमाण होना, मैं इतना सेवन करूँगा इससे अधिक नहीं ।
(178) अतिथिसंविभाग नामक शिक्षाव्रत का निर्देशन―12वां व्रत अथवा 7 वां शील है श्रावक का अतिथिसम्विभाग । जिसकी कोई नियत तिथि न हो, आने, जाने, रहने आदि की उसका नाम है अतिथि । अतिथि शब्द से व्रती ग्रहण किया जाता है, मुनियों का ग्रहण होता है । उनको 4 प्रकार का दान करना अतिथिसम्विभाग है । जो मोक्ष के लिए उद्यमी है ऐसे अतिथि के लिए संयम में जो प्रवीण हैं, शुद्ध चित्त वाले हैं उनको निर्दोष भोजन देना, धर्म के उपकरण देना, औषधि देना और रहने का उत्तम स्थान देना इसको कहते हैं अतिथिसम्विभाग । पहले रिवाज था और आज भी कोई कर्तव्यपालन करना चाहे तो कर सकता कोई मुश्किल बात नहीं । पहले रोज-रोज शुद्ध भोजन बनता था और उसमें कोई अतिथि आ जाये, कोई व्रती त्यागी आये तो उसको आहार कराकर आहार करूँ, ऐसा संकल्प रहता था । अब मानो पूरा निर्दोष भोजन बनाने में आजकल सुविधा नहीं है । इसलिए लोग क्या कहते कि जब पूरा शुद्धभोजन हमारे यहाँ बन नहीं सकता तो उसका क्यों विकल्प रखना? पूरा ही अशुद्ध भोजन बनने दो । तो उनकी यह बात ठीक नहीं । मान लो दो ही चीजें शुद्ध बनती हैं दाल, चावल तो वह चौका अधिक अशुद्ध तो न रहा । कम से कम इतना तो शुद्ध रखना ही चाहिए कि कोई अतिथि आ जाये तो उसे भोजन कराया जा सके । मान लो आटा घी दूध आदिक रोज-रोज शुद्ध नहीं रख पाते तो कम से कम दाल चावल तो शुद्ध बना सकते । कभी अचानक कोई व्रती आ जाये तो उसको भोजन करा के दिक्कत तो न हो । पहले रिवाज था ऐसा कि प्राय: करके शुद्ध भोजन बनता था । उसे कहते हैं अतिथिसम्विभाग । उसमें अतिथि का विभाग बनाना । आजकल भी कई घरों में ऐसा रिवाज देखने में आता कि चौके में पहली रोटी जो निकलती उसे घर के लोग नहीं खाते, किसी अन्य प्राणी को दे देते, तो यह रिवाज मानो इस बात की निशानी है कि पहले अतिथि को भोजन कराकर लोग खुद भोजन करते थे । तो अतिथि को आहारदान, शास्त्रदान, औषधिदान और अभयदान देना आदि ये श्रावक के बाहर व्रत कहे । अब वह बतलाते हैं कि उन बाहर व्रतों का जीवनभर पालन करने वाला गृहस्थ अंत समय में क्या करे, उसका उपदेश करते हैं ।