वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-10
From जैनकोष
नारकतैर्यग्योनमानुषदैंवानि ।।8-10।।
(270) आयुकर्म का लक्षण व आयुकर्म के भेद―नारकायु, तिर्यगायु, मानुषायु और देवायु, इस प्रकार आयु चार प्रकार की उत्तर प्रकृतिरूप हैं । नरकभव में जो होवे उसे नारक कहते हैं और नारक की आयु को नारक आयु कहते हैं । इस प्रकार शेष 3 गतियों में भी लेना । आयु का अर्थ है―जिसका सद्भाव होने पर जीवन रहे और जिसका अभाव होने पर मरण हो जाये उसे आयु कहते हैं । अर्थात् भव धारण कराये सो आयु है । यहाँ शंकाकार कहता है कि जीवन का कारण तो अन्नादिक है, फिर उसी को ही आयु समझ लेना चाहिए । अन्न आदिक का लाभ मिले तो जीवन रहता है, अन्नादिक न मिलें तो मरण हो जाता है । फिर आयु का क्या अर्थ रहा? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह संदेह यों न करना कि भवधारण का निमित्त तो आयु ही है और उस आयुकर्म का अनुग्राहक अन्नादिक है, जैसे मृत्पिंड से घड़ा बने, उसका अंतरंग कारण तो मृत्पिंड है, किंतु उसका उपग्राहक दंड, चक्र आदिक हैं, इसी प्रकार भवधारण का अंतरंग कारण तो आयु ही है और अन्नादिक उसके उपग्राहक है । जब आयु का अभाव होता है, आयु क्षीण होने लगती है उस समय अन्नादिक कितने ही सामने रख दे तो क्या वे जीवित रख सकेंगे? उसका तो मरण ही देखा जाता है । दूसरी बात यह है कि देव और नारकियों में तो अन्नादिक नहीं हैं, न उनका सेवन है, फिर भी उनका जीवन मरण है । तो अन्नादिक को जीवनमरण का कारण नहीं कह सकते । जो सभी आयुवों में घटित हो वह बात यही समझनी चाहिये ।
(271) आयु के चार उत्तरप्रकृति प्रकारों का विवरण―नरकायु के उदय से जीव का नरकों में लंबा जीवन होता है । वहां तीव्र शीत, उष्ण की वेदना हुआ करती है । उसके निमित्त से दीर्घ जीवन होता है । तो जो नरकभव को धारण कराये उसे नरकायु कहते हैं । तिर्यक् आयु के उदय से क्षुधा, प्यास, ठंड, गर्मी, डांस, मच्छर आदिक जहाँ वेदनायें हैं ऐसे तिर्यंचभव में बसना होता है । जो तिर्यंच के भव को धारण कराये उसे तिर्यगायु कहते हैं । मनुष्यायु के उदय से मनुष्यभव में जन्म होता है । जहाँ शारीरिक मानसिक दुःख भी हैं, ऐसे मनुष्यों में इस आयु के उदय में जन्म होता है । देवायु के उदय से देवगति में जन्म होता है । जहाँ प्राय: साधारण मानसिक सुख ही पड़े हुए हैं । प्राय: शब्द इसलिए लगाया है कि कहीं यह न समझें कि हर समय देवों को पूरा सुख रहता है । देवों की जो देवियाँ हैं उनकी आयु बहुत कम होती है और एक देव के जीवन में लाखों करोड़ों देवियां गुजर सकती । उनका वियोग होता है, उससे भी उन्हें दुःख होता है । अपने से बड़ी ऋद्धि वाले देवों की संपन्नता, आज्ञा आदिक जब निरखते हैं तो उससे भी उन्हें कष्ट होता है । मरण का चिन्ह उनकी ही छाती पर बनी हुई प्राकृतिक माला का मुरझा जाना है । तो जब उस माला को मुरझाया हुआ देखते हैं तो उनको मानसिक दुःख होता है । तो सर्वथा सुख ही हो देवगति में यह बात नहीं है, किंतु प्राय: करके सुखी रहा करते हैं । ऐसा इन चार आयुवों का वर्णन किया । अब उस आयु के अनंतर क्रम प्राप्त नामकर्म की उत्तरप्रकृतियां बतलाते हैं ।