वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-6
From जैनकोष
मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानाम् ।।8-6 ।।
(249) ज्ञानावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियों का नामनिर्देश―मतिज्ञान का श्रुतज्ञान का अवधिज्ञान का, मनःपर्ययज्ञान का और केवलज्ञान का आवरण है । तो ज्ञानावरण कर्म के 5 भेद इस प्रकार हैं―(1) मतिज्ञानावरण (2) श्रुतज्ञानावरण (3) अवधिज्ञानावरण (4) मन:पर्ययज्ञानावरण और (5) केवल ज्ञानावरण । इन पाँचों ज्ञानों का संक्षेप रूप में लक्षण प्रथम अध्याय में बताया गया है । उन ज्ञानों का आवरण जिस कर्म के उदय से होता है उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं । यहां यह शंका होती है कि केवल मत्यादीनां, इतना ही शब्द कहते तो इसका वही अर्थ आ जाता जो कि इतना बड़ा सूत्र बनाने में किया गया है । इस सूत्र में 5 के नाम ही तो लिए गए हैं सो मति आदिक में भी वे ही 5 नाम आ जाते क्योंकि ये ज्ञान पहले कहे गए थे । सो आदि शब्द कहते ही उन सबका ग्रहण हो जाता है और सूत्र में भी लाघव हो जाता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इन सबके नाम जो दिए गए हैं उससे सिद्ध यों होता है कि आवरण का प्रत्येक के साथ संबंध लगाना चाहिए । याने मतिज्ञान का आवरण श्रुतज्ञान का आवरण आदिक । यदि ये 5 नाम यहाँ न देते तो यह भी संबंध बन जाता कि मति आदिकों का एक ही आवरण है, याने एक ज्ञानावरण मति आदिक पांचों ज्ञानों का आवरण करता है, पर ऐसा नहीं है । मतिज्ञानावरण मतिज्ञान को ढाकता है, श्रुतज्ञानावरण श्रुतज्ञान को ढाकता है, अवधिज्ञानावरण अवधिज्ञान का आवरण करता है, मन:पर्ययज्ञानावरण मन:पर्ययज्ञान को ढाकता है, केवल ज्ञानावरण केवलज्ञान नही होने देता ।
(250) आवरण का संबंध बताने के लिये पांचों ज्ञानों का नाम देने का कारण―यहाँ शंकाकार कहता है कि मत्यादीनां ऐसे बहुवचन का प्रयोग करने से और चूँकि ज्ञान के 5 प्रकारों की प्रसिद्धि है सो 5 संख्या की प्रतीति तो स्वयं ही हो जायेगी, फिर सूत्र में सभी ज्ञानों के नाम लिखने की क्या आवश्यकता है? इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि सूत्र में समान ज्ञानों के नाम न लिखे जाते और केवल बहुवचन देकर ही उनमें आवरण जोड़े जाते तो यह भी जोड़ा जा सकता था कि मतिज्ञान के 5 आवरण हैं अर्थात् प्रत्येक ज्ञान में 5-5 आवरण सिद्ध हो जाते हैं जो कि अनिष्ट हैं । मतिज्ञानावरण से तो मतिज्ञान ही ढकेगा, श्रुतज्ञानावरण से श्रुतज्ञान ही ढकेगा, लेकिन अब यह अर्थ हो जायेगा कि पांचों आवरणों से प्रत्येक ज्ञान ढका हुआ है । और जब सूत्र में पांचों ज्ञानों के नाम लिख दिए तो इन पांचों के नाम लिखने की सामर्थ्य से यह सिद्ध हो जायेगा कि मतिज्ञान का आवरण करने वाला श्रुत ज्ञानावरण है, ऐसा प्रत्येक ज्ञानावरण सिद्ध हो जाता है ।
(251) कथंचित् सत् कथंचित् असत् मतिज्ञान आदि के आवरण की संभवता―यहां कोई शंकाकार कहता है कि यह बताओ कि वह मतिज्ञानादिक जिसका आवरण बतला रहे हो वह सत् है या असत् है ? याने सद्भूत मतिज्ञान का आवरण बतला रहे हो या असद्भूत मतिज्ञान का आवरण बतला रहे हो? यदि सत् मतिज्ञान का आवरण करते हो तो जब मतिज्ञान सत् है, उसने आत्मस्वरूप पा लिया है तो उसका आवरण नहीं बन सकता, और यदि कहा जाये कि मतिज्ञान असत् है जिसका आवरण बतला रहे हैं तो जब कुछ है ही नहीं तो आवरण किसका किया जायेगा? इस तरह आवरण सिद्ध नहीं होते । जैसे गधे का सींग असत् है तो उसके बारे में कोई कहे कि उसको कपड़े से ढाक दो तो भला बताओ कपड़ा किसमें ढाका जायेगा? सींग तो है ही नहीं । तो ऐसे ही मतिज्ञान अगर सत् है तो उसका आवरण नही हो सकता । अगर सत् है तो उसके आवरण का अभाव है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका यों न करना चाहिए कि नयदृष्टि से इसका समाधान मिलता है । याने मतिज्ञान कथंचित सत् है, उसका आवरण है मतिज्ञान कथंचित असत् है, उसका आवरण है । ऐसी ही सब ज्ञानों में बात लगाना । वह किस तरह? द्रव्यार्थिकनय से देखा जाये तो वे मतिज्ञानादिक सत् हैं, उनका आवरण है । यह नय तो एक जीव को देखता है और जीवद्रव्य में ये सारी शक्तियां हैं । तो उस द्रव्यदृष्टि से तो सत् हुआ और जब पर्यायदृष्टि से देखते हैं तो उस समय मतिज्ञान है ही नहीं इसलिए असत् हुआ । तो इस प्रकार कथंचित सत् और कथंचित असत् मतिज्ञान का आवरण होता है । ऐसा ही सभी ज्ञानों में समझना । यदि यह कहा जाये कि एकांत रूप से सत् ही हो तब आवरण बनता है याने मतिज्ञान है ही, उसका आवरण है ऐसा मानने पर तो फिर मतिज्ञान क्षायोपशमिक भी न कहलायेगा, क्योंकि वह तो है, और जो है सो पूरा है । यदि कहा जाये कि एकांतत: मतिज्ञान असत् है, है ही नहीं, उसका आवरण होता है तो ऐसा मानने पर भी मतिज्ञान का क्षयोपशम न कहलायेगा, क्योंकि वह असत् है । जो असत् है उसकी तारीफ क्या की जा सकती है?
(252) कुछ उदाहरणों द्वारा मतिज्ञान आदि के आवरण में आवरणत्व का समर्थन―अथवा यही मान लीजिए कि मतिज्ञानादिक सत् हैं और उनका आवरण है तो क्या सत् का आवरण नहीं देखा जाता ? आकाश सत् है और उसका मेघपटल आदिक के द्वारा आवरण देखा जाता है तो सत् का भी तो आवरण हो सकता है । तो यों यही समझ लीजिए कि मतिज्ञानादिक सत् हैं और उनका आवरण है । आवरण होने से प्रकट नहीं हो सकता । सो यह बात पर्यायदृष्टि से बताया ही है कि वे सब सत् हैं और उनका आवरण होने से वे पर्यायरूप में प्रकट नहीं हैं । अब दूसरी बात देखिये जैसे प्रत्याख्यान अर्थात् संयम त्याग ये कोई प्रत्यक्षीभूत तो नहीं हैं कि लो यह कहलाता है त्याग । तो प्रत्याख्यान नाम का कोई पर्याय प्रत्यक्षभूत नहीं है, जिसके आवरण से प्रत्याख्यानावरण नाम पड़ा, किंतु है क्या कि प्रत्याख्यानावरण होता है प्रकृति के सानिध्य से । उसके उदय से आत्मा प्रत्याख्यानरूप पर्याय से उत्पन्न नहीं हो सकता, याने नियम का घात करने वाले कर्मों के उदय से आत्मा संयम पर्याय में नहीं आ सकता । तो यही तो कहलाया ना प्रत्याख्यान का आवरण । इसी प्रकार ज्ञान में भी घटा लीजिए । मति आदिक ज्ञान कोई भी यों प्रत्यक्षभूत नहीं हैं, जैसे कि चूल्हा, खंभा आदिक प्रत्यक्षभूत होते हैं सो ये मतिज्ञानादिक प्रत्यक्षभूत तो नहीं हैं जिसके आवरण से मतिज्ञानावरण में आवरणपना हो, किंतु तथ्य यह है कि मतिज्ञानावरण के सान्निध्य में अर्थात् इस प्रकृति के उदय में आत्मा मतिज्ञान पर्याय से उत्पन्न नहीं हो सकता, इसलिए मतिज्ञानावरण में आवरणपना है, सो पर्यायरूप में प्रकट नहीं है और परमार्थदृष्टि से देखा जाये तो वह असत् है । वह अवस्था अभी है ही नहीं । सो कथंचित् सत् और कथंचित् असत् मतिज्ञानादिक के आवरण सिद्ध होते हैं ।
(253) अभव्य जीव के मनःपर्ययज्ञानावरण व केवलज्ञानावरण की अनुपपत्ति की आशंका―यहाँ शंकाकार कहता है कि जो अभव्य जीव हैं उनके मन:पर्ययज्ञान और केवल ज्ञान इनका सामर्थ्य है या नहीं? यदि कहा जाये कि मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान की शक्ति भी अभव्य में है तो फिर वह अभव्य नहीं कहला सकता । और यदि कहा जाये कि अभव्य में इन दोनों ज्ञानों का सामर्थ्य नहीं है तो फिर उनका आवरण मानना ही व्यर्थ है और इस तरह फिर ज्ञानावरण तीन ही कहे जाना चाहिए । मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये कुछ न रहे, क्योंकि मन:पर्ययज्ञान अभव्य में है ही नहीं, सामर्थ्य भी नहीं, केवलज्ञान की भी शक्ति नहीं । तो अभव्य जीव में तीन आवरण कहे जायेंगे, अंतिम दो आवरण नहीं क्योंकि यह बात प्रसिद्ध है कि मन:पर्ययज्ञान भव्य जीवों के ही हो सकता है, केवलज्ञान भी भव्य जीव के ही होता है । हाँ मति, श्रुत, अवधि ये भव्य के भी हो सकते हैं और अभव्य के भी हो सकते हैं । अभव्य में होंगे तो ये तीन विपर्ययज्ञान कहलायेंगे―(1) कुमति, (2) कुश्रुत और (3) कुअवधि । भव्य के होगे तो यदि वह सम्यग्दृष्टि है तो ये तीन ज्ञान सम्यक् कहलायेंगे और यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो उसके ये तीनों ज्ञान विपर्यय कहलायेंगे, किंतु मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान ये तो भव्य के ही होते हैं अभव्य के नहीं । तो जब इसकी सामर्थ्य भी नहीं अभव्य में है तो इसके आवरण की कल्पना करना व्यर्थ है ।
(254) अभव्य जीव के मन:पर्ययज्ञानावरण व केवलज्ञानावरण की उपपत्ति बताते हुए उक्त शंका का समाधान―उक्त शंका के उत्तर में कहते हैं कि नय दृष्टि से समझने पर यह शंका न रहेगी । जब द्रव्यार्थदृष्टि से देखते हैं तो मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान सत् हैं और उनका आवरण है । जब द्रव्यार्थदृष्टि व देखते हैं तो मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये असत् हैं । यहां यह भी शंका न करना कि यदि द्रव्यार्थदृष्टि से सब जीवों में अभव्य के भी मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान है ऐसा माना जाये तो अभव्य जीव अभव्य न रहा, वह भव्य ही बन गया । यह शंका यों न करना कि भव्य और अभव्यपना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की शक्ति होने या न होने के आधार पर नहीं है, अर्थात् जिस जीव में सम्यग्दर्शन की शक्ति हो वह भव्य है, जिसमें सम्यग्दर्शन की शक्ति न हो वह अभव्य है । यह सिद्धांत नहीं है, किंतु सिद्धांत यह है कि सम्यक्त्वादिक की प्रकटता की योग्यता जिसमें है वह भव्य है और सम्यक्त्वादिक प्रकट करने की योग्यता जिसमें नहीं है वह अभव्य है । जैसे स्वर्णपाषाण और अंधपाषाण, इनमें ऐसा न लखना चाहिए कि जिसमें स्वर्णत्व शक्ति न हो वह स्वर्ण नहीं, किंतु यह सिद्धांत निरखना चाहिए कि जिस पाषाण में स्वर्णपना प्रकट होने की योग्यता हो वह तो है सही स्वर्ण पाषाण और जिस पाषाण में स्वर्णपने की शक्ति तो है पर स्वर्णत्व शक्ति की प्रकटता की योग्यता नहीं है उसे कहते हैं अंधपाषाण । दूसरा दृष्टांत लीजिए―जैसे सही मूँग और कुरडू मूंग । मूंग के दानों में कुछ दाने ऐसे होते हैं कि उन्हें कितने ही घंटे लगातार पकाया जाये फिर भी वे सीझेंगे नहीं, ज्यों के त्यों पत्थर की तरह रहेंगे । तो वहाँ अगर जाति की अपेक्षा देखा जाये तो दोनों मूँग एक समान हैं, पर पकने की प्रकटता की योग्यता से देखा जाये तो सही मूंग दाल के काम आती है और कुरडू मूंग अयोग्य है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदिक की शक्ति की अपेक्षा देखा जाये तो भव्य अभव्य सब जीव द्रव्यार्थिक दृष्टि से समान हैं किंतु सम्यग्दर्शन की प्रकटता की योग्यता के ध्यान से देखा जाये तो भव्य जीव तो सम्यग्दर्शन प्रकट करने की योग्यता रखते हैं किंतु अभव्य जीव नहीं । तो यों शक्ति की दृष्टि से द्रव्यार्थनय से वहाँ मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति है । वह शक्ति जिस आवरण के उदय से प्रकट नहीं होती है उसे मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कहते हैं ।
(255) ज्ञानावरण के उदय में होने वाले क्लेशों का दिग्दर्शन कराते हुए ज्ञानावरण की उत्तर प्रकृतियों के प्रकरण का उपसंहार―ज्ञानावरण के उदय से ज्ञान का सामर्थ्य रुक जाता है, स्मृति लुप्त हो जाती है, धर्म सुनने में उत्सुकता नहीं रहती है और ऐसा जीव अज्ञानकृत और अपमान कृत बहुत दुःखों को भोगता है । अज्ञानकृत दुःख तो यह है कि जब दूसरे ज्ञानियों को देखता है तो अपने में दुःख अनुभव करता कि मुझे कुछ ज्ञान न हुआ, मैं मूढ़ ही रहा । अपमान का दुःख मानता, इस प्रकार जब ज्ञानियों की गोष्ठी होती हो, उसमें यह भी बैठ जायेगा तो ज्ञानी तो चर्चा करेगा, उसकी ओर लोग दृष्टि देंगे तो यह अपना अपमान महसूस करता है । इस प्रकार ज्ञानावरण की उत्तर प्रकृतियों के भेद कहा, अब दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियां कहना चाहिए, सो सूत्र में कहते हैं ।