वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 15
From जैनकोष
उग्गतवे दित्ततवे तत्त्ततवे महातवे य घोरतवे।
वंदामि तवमहंते तवसंजमइडि्ढ्संजुत्ते।।15।।
तपस्वी योगियों का अभिवंदन- जो उग्रतप के धारक हैं, बड़े कठिन जो व्रतों के धारक हैं, जैसे एक उपवास करके आहार लेना, दो उपवास करके लेना, 3 उपवास करके लेना, ऐसा बढ़ाते जाते हैं तो इस तरह की प्रक्रियावों वाले, इस तरह से कठिन-कठिन अनशन आदिक जो तपश्चरण हैं ऐसे उग्र तपश्चरण करके भी जिनके शरीर की दीप्ति कम नहीं रहती प्रत्युत बढ़ती जाती है और न अपने आत्मा के किसी हितकार्यों में व आवश्यक कार्यों में हीनता आती है, ऐसे दीप्ततप वाले योगीश्वर हैं। जो तपश्चरण से खूब और तपश्चरण के द्वारा अपने अंतरंग चैतन्यस्वरूप में भी जाते हैं, प्रताप बढ़ता रहता है, ऐसे तप्ततप योगीश्वर बड़ा तपश्चरण करके भी जिनके शरीर में हीनता नहीं आती, शीलब्रह्मचर्य आदिक गुणों में किसी भी प्रकार हीनता नहीं आती, ऐसे बड़े तपश्चरण के धारण करने वाले योगीजनों का मैं वंदन करता हूं, जो तप और संयम के कारण आत्मसमृद्धि से संयुक्त हैं। आत्मा में अनंत शक्ति है इसमें रंचमात्र भी आश्चर्य नहीं। जो आश्चर्योंत्पादक कार्य हैं- जैसे आकाश में गमन करना, छोटा बड़ा शरीर बनाना, पर्वतों के भीतर से विहार करना आदिक के समस्त कार्य तप और संयम से उत्पन्न होते हैं, ऐसे अनेक अतिशयों से संपन्न योगीश्वरों को मैं नमस्कार करता हूं।