वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 4
From जैनकोष
चउविहकसायडहणे चउगइसंसारगमणभयभीए।
पंचसवपिऽविरदे पंचिंदियणिज्जिदे वंदे।।4।।
योग में चतुर्विधकषायदहन- यह पूर्वाचार्यों से चली आयी हुई योगभक्ति है। बहुत पुराने पूजन, पुराने स्तवन पहिले ऐसे ही थे और इसी के आधार पर भक्तजन अपनी आत्मशुद्धि करते थे। उस योगभक्ति में यहाँ कह रहे हैं कि ये योगी पुरुष चार प्रकार की कषायों को दहन करते हैं, नष्ट करते हैं। कषायें चार हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ। जितने भी विकल्प हैं, जितनी भी प्रवृत्तियां हैं वे सब इन चारों में शामिल हैं। कोई क्रोधरूप वृत्ति है, कोई मानरूप, कोई मायारूप और कोई लोभरूप। सारी बातें दुःख लो। जहां यह कहते हैं कि आतम के अहित विषय और कषाय हैं तो ये विषय कषाय से अलग कोई चीज नहीं हैं। दो का नाम जरूरी है कि विषय कषाय का त्याग करना चाहिये। किंतु विषय बिल्कुल अलग चीज होती हो कषाय से, ऐसा नहीं है। लोभ नामक जो चौथी कषाय है उस ही कषाय को विषय कहते हैं। विषय में लोभ ही तो होता है। पंचेंद्रिय के विषयों के जो उपभोग हो रहे हैं वे लोभ कषाय में शामिल हैं। लेकिन यह परिणाम इतना खतरनाक है चूँकि अनुराग भरा है ना तो यह एक विषफल के समान घातक है। जैसे चखते समय विषफल मीठा लगता है लेकिन उसका परिणाम प्राणघातक है, इसी प्रकार इन विषयों का उपभोग है। ये कषाय उपभोग तो बड़े मधुर लगते हैं लेकिन इनका परिणाम खोटा है। तो ये विषय लोभ में ही शामिल हैं। तो जिन साधुजनों ने इन चार प्रकार की कषायों पर विजय किया है ऐसे योगियों की मैं वंदना करता हूं।
योगियों की चतुर्गतिगमनागमनभयभीतता- इन योगियों ने चारगति के संसार के गमनागमन से भय माना है। ये अज्ञानी जीव बड़े सुभट हैं क्योंकि ये संसार के गमनागमन से भय नहीं खाते, पर ये योगीजन इस संसार के परिभ्रमण से डरते हैं। उनके चित्त में यह भावना है कि यह संसार का आवागमन, जन्म मरण धारण करते रहना यह सारहीन है और आत्मा की बरबादी के ही कारण हैं। तो यों चतुर्गति परिभ्रमण रंचमात्र भी इन योगियों को रुचता नहीं है। वे अपने स्वभाव को निरखते हैं और स्वभाव के दर्शन अनुभव के समय में वहां एक परमात्मस्वरूप ही अनुभूत होता है। वहां भव नहीं, देह नहीं, जन्ममरण नहीं- ऐसा उपयोग यदि निरंतर बना रहे तो सर्वकर्मों का क्षय करने का कारण बनता है। योगीश्वर चार गति के संसार गमनागमन से भयभीत हैं।
योगियों की पन्चास्रवविरतता- ये योगी 5 प्रकार के आस्रवों से विरक्त हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह। इन 5 पापों से अत्यंत दूर हैं। इनकी मुद्रा भी ऐसी है कि 5 पापों का परिहार इनके सहज चलता रहता है। हिंसा का कोई साधन नहीं, झूठ बोलने का उनके पास कोई कारण नहीं कोई परिग्रह हो, धन जायदाद हो, उसकी व्यवस्था हो, तो उसमें झूठ भी बोला जाय। चोरी करने का कोई साधन नहीं। कुछ चीज चुरा भी लें तो कहां छिपाकर रखें। पिछी, कमंडल ये ही मात्र जिनके उपकरण हैं और जिनका शरीर मल पटलों से लिप्त है, जिनके केशलोच करने से जिनकी मुद्रा अलौकिक बन गयी है ऐसे शरीर को निरखकर वैसे भी कोई अपने चित्त में बुरी वासना नहीं रख सकता है, परिग्रह के वे त्यागी हैं ही और ज्ञानयोग से वैराग्य उनका इतना बढ़ा चढ़ा है कि वे इन 5 पापों से अत्यंत विरक्त रहा करते हैं। ये योगीश्वर निष्पाप हैं और इसी कारण बड़े बड़े महापुरूषों के द्वारा, देवेंद्रों के द्वारा वंदनीय होते हैं।
योगियों का पंचेंद्रियविजय- इन योगियों ने पंचेंद्रियों को जीत लिया है। इंद्रिय के विषय उन्हें अब वशीभूत नहीं कर सकते हैं। अपने ज्ञान उपासना के प्रताप से ऐसे अद्भुत आनंदरस का पान किया है कि अब उन्हें इंद्रियविषय रंच भी नहीं सुहाते हैं। येविषय एक मन की कल्पना से ही सुहावने और असुहावने लग जाते हैं। उनका असली स्वरूप निरखा जाय तो सुहाने की बात नहीं रहती है। यह शरीर ऊपर से निरखने पर थोड़ा पवित्र सा नजर आता है, कुछ साफ सुथरा सा लगता है लेकिन जब उसके स्वरूप पर विचार करते हैं तो सारा शरीर महा अपवित्र नजर आता है। तो ऐसे इस अपवित्र शरीर से वे योगीजन राग क्या करें, जिन्होंने अपने पवित्र ज्ञानस्वरूप आत्मा का दर्शन किया है। यों ही खट्टे मीठे रसों का वे आनंद क्या मानें, सुगंध, दुर्गंध का भी वे क्या निर्णय रखें, रंगरूप का भी वे क्या अवलोकन करें, राग रागिनी सुनने का भाव अब वे कैसे बनायें? वे योगीश्वर पंचेंद्रियविजयी होते हैं। ऐसे इन समस्त गुणधारी योगीश्वर का मैं मन, वचन, काय संभाल करके वंदन करता हूं।