वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 7
From जैनकोष
णववंभचेरगुत्ते णवणयसब्भावजाणगे वंदे।
दहविहधम्मट्ठाई दससंजमसंजदे वंदे।।7।।
योगियों की नवविधब्रह्मचर्यसुरक्षितता एवं नवनयसद्भावज्ञायकता- ये योगी 9 प्रकार के ब्रह्मचर्य से गुप्त हैं अर्थात् सुरक्षित हैं। गुप्त का अर्थ है सुरक्षित। जैसे लोग कहते ना कि इस जीव को इस बक्से के अंदर गुप्त कर दो, तो इसका अर्थ है कि उस चीज को सुरक्षित कर दो। जब उपदेश में निकले कि अपने आत्मा को अपने में गुप्त करो। तो मोटेरूप से उसका अर्थ करते हैं लोग कि आत्मा में अपने को छिपा लो। और छिपाने का अर्थ क्या है? सुरक्षित कर लेना। तो सुरक्षित के अर्थ में ‘‘छिपा लेना’’ यह अर्थ चल गया है। ये योगीजन ब्रह्मचर्य से सुरक्षित हैं। और ये नव नय के सद्भाव को जानने वाले हैं। आगमसिद्ध 7 नय और अध्यात्मदृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय- इनके यथार्थस्वरूप को वे जानने वाले हैं। जो नय में कुशल नहीं होते वे साधना में और वस्तु के जानने में सभी में धोखा खाते हैं। नय का एकांत होने पर ज्ञान ही मलिन नहीं हुआ किंतु साधना भी मलिन हो गयी। जैसे कोई अपने स्व का सर्व ओर से परिचय रखने वाला है वह पुरुष निर्भय होकर घर में पडौ़स में रहता है, इसी प्रकार समस्त नयों के विषयों से परिचित रहने वाले पुरुष निर्भय रहकर अपने उद्देश्यपूरक आशय में लक्ष्य में अपने को लगा लेते हैं। तो ये योगीश्वर समस्त नयों के यथार्थस्वरूप के जाननहार हैं। ऐसे इन योगियों को मैं मन, वचन, काय से वंदन करता हूं। जब योगियों के योगस्वरूप का ध्यान होता है तो भक्तों का स्वयं ही तन, मन, वचन उनकी ओर आकर्षित होता है। इसी आकर्षण का नाम है यथार्थवंदन।
योगियों की दशधर्मावस्थितता- योगीश्वर 10 प्रकार के कर्मों में स्थित रहते हैं, क्षमा की मूर्ति हैं। कोई क्या करेगा, वह अपनी चेष्टा करेगा। जो विरोध करता है उस पर तो करुणा जगती है कि इसने ऐसा विरोधभाव करके अपने आपको कितना बरबाद कर लिया, उनके प्रति करुणा जगी। क्रोध तो दूर रहे, ऐसी क्षमा की मूर्ति हैं। मान उनके निकट नहीं, नम्र होने से ही तो वे अपने इस ज्ञानसागर में जाकर मिलते हैं। कोई नदी निम्न ही जाय तभी तो समुद्र में मिलती है। तो नदी की भाँति उनके निम्नतावृत्ति है। वे नम्र होकर अपने स्वरूप में मिल जाते हैं। योगीश्वर आर्जव की मूर्ति हैं, सरल हैं। छल कपट करने का कोई प्रयोजन रहा नहीं, किसी वस्तु की चाह उनके है नहीं, यश कीर्ति की भी उनके चाह नहीं है। एक ही उनकी धुनि है कि मेरा यह संसार का रोग कैसे दूर हो? जन्म मरण की परंपरा कैसे मिटे? इस प्रकार असार संसार में कुछ भी उनके वान्छा नहीं। स्वप्न की दुनिया में जैसे नाना विकल्प करता है सोने वाला इसी तरह मोह की नींद में इस दृश्यमान दुनिया को कुछ सच्चा सा समझकर उससे कुछ आशा रखते हैं, हित चाहते हैं, पर किसी पदार्थ से मेरा हित कहाँ? जब सर्व विकल्प तोड़कर अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करें, तब ही वे अपना हित पा सकते हैं। तो ये योगीश्वर सरलता की मूर्ति हैं। कपट करने का न साधन है और न उनकी वृत्ति ही है। ये योगी पवित्र हैं, तृष्णा से पूर्णतया रहित हैं, कोई प्रकार की तृष्णा नहीं अतएव सत्य जिनके प्रकट है, संतोषी हुए हैं, संयम का पालन करते है और विभावों का परिहार करने की चेष्टा किया ही करते हैं। एक ज्ञानभाव है। ज्ञानभावना द्वारा समस्त विभावों का परित्याग करते हैं और बाह्य में बाह्य ग्रंथों का त्याग किया ही है, ऐसे ये योगी अपने को अकिन्चन अनुभव करते हैं। कुछ भी नहीं है जिसका उसे अकिन्चन कहते हैं। मेरा इस लोक में कुछ है ही नहीं। जो कुछ है वे 5 इंद्रिय के विषय ही तो पड़े हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श ही तो पड़े हुए हैं, इनमें चित्त रमने से गुजारा क्या चलेगा? थोडे़ समय को भोग-
भोग लिया तो उससे क्या पड़ेगा? जीभ पर कोई सरस वस्तु रखी तो उसके सुख पर कितने विकल्प करने पड़ते हैं। तो उन योगियों के किसी भी विषय में प्रवृत्ति नहीं होती। कहीं सार है ही नहीं। किस पुरूष को हम प्रसन्न करने की चेष्टा करें? हम क्या आशा करें कि कोई मेरा सुधार करेगा? कोई जीव किसी को प्रसन्न करने में कहाँ समर्थ है? और फिर लोक में कौन किसका शरण हो सकता है? और हो भी व्यवहार से अपनी कल्पना में तो कब तक रहेगा? कब तक संयोग है? आखिर वियोग होगा। अन्य के त्यागने की तो बात क्या? इस देह को तजकर भी तो कुछ निकट शीघ्र में जाना ही तो है। और मृत्यु के निकट आते ही तो जा रहे हैं। क्या है इस लोक में? किसमें कल्पनायें बढ़ाना और अपने उपयोग को मलिन करना। वे योगीजन अपने को अकिन्चन अनुभव करते हैं और आकिन्चन्य भावना के प्रसाद से अपने स्वयं में परिणमन किया करते हैं। यों वे 10 प्रकार के धर्मों के पालन करने वाले हैं। पालने का भी विकल्प क्या? स्वयं वे धर्मरूप हो रहे हैं, अतएव वे धर्म में अवस्थित हैं।