वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 20
From जैनकोष
ततो जिनेंद्रभक्तोऽंयो वारिषेणस्तत: पर: ।
विष्णुश्च बज्रनामा च शेषयोर्लक्षतां गतौ ।।20।।
सम्यक्त्व के आठ अंगों का पुन: स्मरण―सम्यक्त्व के जो 8 अंग कहे गये हैं (1) नि:शंकित (2) नि:कांक्षित (3) निर्विचिकित्सा (4) अमूढ़दृष्टि (5) उपगूहन (6) स्थितिकरण (7) वात्सल्य और (8) प्रभावना ये 8 अंग है । ऐसा अपना व्यवहार नहीं बन पाता । इससे उल्टा व्यवहार चलता है तो समझिये कि उसके सम्यक्त्व नहीं है । जैसे शरीर में 8 अंग हों तब ही वह शरीर सही कहलाता है ऐसे ही सम्यक्त्व के 8 अंग हों तो वह सम्यक्त्व सही कहलाता है पूर्ण है । इन श्लोकों में वह उदाहरण बतलाया गया कि जो इन अंगों में प्रसिद्ध हुए हैं ।
नि:शंकित अंग के पालन में अंजनचोर का उदाहरण―नि:शंकित अंग में अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ है । एक अंजन नामक चोर था, उसमें कोई ऐसी कला थी कि वह आंख में आँज ले तो उसका शरीर दूसरों को न दिखे पर वह चोर वेश्या में आसक्त था । तो वेश्या एक हठ पर उतर गई कि तुम अगर रानी के गले का हार लावो तो हमारे घर आ सकोगे । तो उसने प्रयत्न किया और रानी का हार ले आया । हार लेकर जा रहा था अंजन चोर तो किसी को दिखे नहीं किंतु हार तो नहीं छुप सकता था, उस पर तो अंजन न चलेगा । तो वह चमकता हुआ हार सबको नजर आये । पुलिस ने उसका पीछा किया, वह भगा और भागते-भागते आखिर जब थक गया तो एक जगह उसने देखा कि मुनि बैठा हुआ ध्यान कर रहे थे सो उन्हीं के आगे हार फेंककर वह आगे भग गया । अब उन मुनिराज का क्या हुआ यह तो आप प्रभावना अंग में जानेंगे । वह थे वज्रकुमार मुनि । उनकी बात प्रभावना अंग में बतायी जायेगी । अभी नि:शंकित अंग की बात देखिये―अब वह अंजन चोर अकेला रह गया, उसे पुलिस न पकड़ सकी वह आगे भाग गया । वन में एक जगह उसने क्या देखा कि कोई सेठ आकाशगामी विद्या सिद्ध कर रहा था । वृक्ष पर 108 सूत का झूला डालकर उस पर बैठा हुआ था और नीचे तलवार, भाला, बल्लम आदि अनेक नुकेले अस्त्र खड़े थे । एक बार णमोकार मंत्र पढ़े और एक लर काटे दूसरी बार णमोकार मंत्र पढ़े फिर दूसरी लर काटे । यों 108 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कुल 108 लरे काटने पर आकाशगामिनी विद्या सिद्ध होनी थी, सो यह क्रिया वह सेठ कर रहा था मगर नीचे रखे हुए नुकेले शस्त्रों की वजह से उसको उस रस्सी के फंदे काटने की हिम्मत न पड़ती थी, सो कभी झूला पर बैठे कभी पेड़ की डाल पर बैठे । यह दृश्य देखकर उस अंजन चोर ने पूछा―भाई यह क्या कर रहे हो? तो उसने बताया कि हम आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर रहे हैं । तो अंजन चोर बोला―आप तो यह काम हमें दे दीजिए ।.... ठीक है ले लो । पर हमें कैसे-कैसे क्या-क्या करना पड़ेगा?.... एक मंत्र है णमोकारमंत्र उसकी उच्चारण करना होगा और प्रत्येक बार उच्चारण करके एक-एक काटना होगा । अंतिम लर कटने पर वह विद्या सिद्ध हो जायगी ।.... अच्छा तो मंत्र कौन सा है?.... णमो अरिहंताणं, णमोसिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमोलोए सव्वसाहूणं ।.... अच्छा तो ठीक है इस मंत्र को पढ़कर हम वह विद्या सिद्ध करेंगे । आखिर मंत्र पर सच्ची श्रद्धा रखकर और नि:शंक होकर उस मंत्र की आराधना करना शुरू कर दिया । एक बार मंत्र पढ़े और एक लर काटे यही क्रिया चालू रही । थोड़ी ही देर में वह मंत्र तो सही-सही याद न रख सका पर श्रद्धा सही बनी रही, सो बोलने लगा―आणं ताणं कछू न जाण, सेठ वचन परमाणं । सो आणं ताणं बोलता जाय और रस्सी की एक-एक लर काटता जाय । जब सारी रस्सी कट गई सिर्फ एक लर रह गई, और वहाँ णमोकार मंत्र की आराधना किया तो अंतिम लर के कटते ही आकाशगामी विद्या ने उसे झेल लिया और प्रकट होकर कहने लगी विद्या कि तुम जो चाहो सो आज्ञा करो हम करने को तैयार है? तो वहाँ उस अंजन चोर ने कहा कि हमें तो जिस मंत्र की वजह से यह विद्या सिद्ध हुई उसके शासन के आयतनों के दर्शन करावो । आखिर उस विद्या ने अंजन चोर को अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना कराया । अंजन चोर को आकाशगामिनी विद्या प्राप्त हुई । तो देखिये यह है नि:शंकित अंग का अनूठा उदाहरण । अंजन चोर को णमोकार मंत्र पर दृढ़ श्रद्धान था और उसे किसी प्रकार का रंच भी भय न था ।
निःकांक्षित व निर्विचिकित्सत अंग के पालन में प्रसिद्ध अनंतमती व उद्यायनराजा का उदाहरण―इस णमोकार मंत्र का अचिंत्य माहात्म्य है । इसकी श्रद्धा होने पर पाठ करने से और विशेष भी नहीं तो भूत प्रेतादिक का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता यह तो निश्चित ही है और-और भी कितनी ही बाधायें विनशती हैं । इस णमोकार मंत्र का चिंतवन करने से कितने ही आधि व्याधि रोग नश जाया करते हैं । कितने ही पुराणपुरुष ऐसे हुए जो कि इस णमोकार मंत्र के दृढ़ श्रद्धान के बल पर तिर गए । अनंतमती एक महापुरुष की पुत्री थी । उसने अनेकों वर्ष हरण आदि संकटों में भी अपने आपको शील व तपश्चरण में ही लगाया, उपसर्ग आने पर भी उसने अपने दृढ़ श्रद्धान को न छोड़ा, जिसका फल यह हुआ कि उसकी भव में देव रक्षा करते रहें । कितने ही लोगों ने उसे अनेक प्रकार के लालच दिये मगर उसे किसी तरह की विषयाकांक्षा नहीं उत्पन्न हुई । यह घटना सम्यक्त्व के निःकांक्षित नामक दूसरे अंग में बहुत प्रसिद्ध हुई । तीसरे अंग में उद्दायन राजा बहुत प्रसिद्ध हुए । तीसरा अंग है निर्विचिकित्सा अंग । मुनि, साधुवों की सेवा करते हुए में ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा है । उद्दायन राजा साधु, मुनि तथा साधर्मीजनों का बड़ा सेवक था । उनकी सेवा करने में रंच भी घृणा न करता था । उसकी चर्चा स्वर्गों में देव भी किया करते थे । सो एक बार एक देव के मन में आया कि उद्दायन राजा की परीक्षा करना चाहिए कि जैसी बात प्रसिद्ध है वैसा है अथवा नहीं, सो एक मुनि का भेष धरकर चल दिया परीक्षा के लिए । राजा उद्दायन तथा उसकी रानी दोनों ने चर्या के समय उन्हें पड़गाह लिया और विधि पूर्वक आहार दिया । आहार हुए बाद उस मुनि ने कय कर दिया उसका सारा शरीर कय से सन गया वहाँ उद्दायन राजा तथा उसकी रानी इन दोनों ने बिना किसी प्रकार की घृणा किये उनका सारा शरीर पोंछ कय साफ किया । बस क्या था वह परीक्षा में सफल हुए । वह देव आखिर परीक्षा करने ही तो आया था, सो वह यही कहकर गया कि धन्य है तुम्हारे श्रद्धान को । हमने जैसी तुम्हारी प्रशंसा स्वर्गों में सुनी था । सचमुच वैसा ही देखने को मिला । आखिर वह देव राजा उद्दायन से क्षमा याचना करके स्वर्गों में पहुँचा और वहां सभा में पहुँचकर बीती हुई सारी घटना सुनायी और कहा कि सचमुच राजा उद्दायन साधुसंतों का परमभक्त है वह उनकी सेवा करते हुए में रंच भी ग्लानि नहीं करता । तो यह सम्यक्त्व का तीसरा अंग हुआ।
आत्मा के सहज स्व―अष्ट अंगों सहित जिनके सम्यग्दर्शन होता है उनका ही सम्यक्त्व प्रशंसनीय है और वह ही मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सकता है । मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय संसार के संकटों से छूटने के उपाय का मूल सम्यक्त्व है । किसे छटना है, क्यों छटना है, इस बात का जिनको परिचय नहीं उनका मोक्ष कहना केवल शब्द मात्र है। छूटना किसको है? यह जो मैं आत्मा अपने स्वरूपास्तित्व मात्र हूँ पर अनादि से कर्म संबंध और शरीर संबंध चले आ रहे हैं जिससे हमारी विभाव पर्यायें चल रही हैं । आकार की भी विभाव पर्याय और भावों की भी विभाव पर्याय और उस अवस्था में मैं दुःखी रहता हूँ । यह दु:ख मेरा स्वरूप नहीं है । यह व्यर्थ ही लाद लिया गया है । इस दुःख से मुझे छूटना चाहिए । किसे छूटना चाहिए? जो अपना स्वरूपास्तित्व मात्र है अर्थात स्वरूपत: यह अन्य पदार्थ से मुफ्त ही है इसलिए यह पर्यायरूप में भी मुक्त हो सकता है अर्थात सांसारिक अवस्थावों से मुक्त बन सकता है ।
वस्तु के साधारण गुणों से वस्तु की व्यवस्थितता―प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूपास्तित्त्व को लिए हुए है अन्यथा सत् ही नहीं रह सकता । यदि कोई पदार्थ दूसरे से सत्त्व उधार ले तो वह सत् ही नहीं रह सकता । स्वयं सत् हैं सर्व पदार्थ । प्रत्येक जीव जो है वह पूरा है, स्वतंत्र सत् है । प्रत्येक अणु अपने-अपने स्वरूपास्तित्त्व से सत् है । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, प्रत्येक कालद्रव्य ये सभी अपने स्वरूपास्तित्त्व को लिए हैं । मेरा स्वरूप चेतन । मैं अस्तित्त्व से संपन्न हूँ और अपने ही साधारण गुणों से देख लो तो सारी व्यवस्था हैं मेरी मुझमें बनी हुई हैं। जैसे कि सर्व पदार्थों की व्यवस्था उनकी उसमें बनी हुई है। मैं हूं अपने स्वरूप से हूँ, पररूप से नहीं हूँ, यह वस्तुत्व गुण हैं कहीं मैं सर्वात्मक नहीं हो गया, किंतु अपने ही स्वरूप से हूँ परस्वरूप से नहीं हूँ । यहाँ स्याद्वाद की भी परख करना । कुछ थोड़ा सूक्ष्मदृष्टि से सुनने की बात है। मैं स्वरूप से हूं, पररूप से नहीं हूं, यह कहलाता है स्याद्वाद मैं मैं हूँ पर नहीं हूँ यह स्याद्वाद का रूप नहीं है । फलित अर्थ है यह कि मैं मैं हूँ मैं पर नही हूँ पर स्याद्वाद का रूप यों ही नहीं हूँ । स्याद्वाद एक वस्तु में प्रतिपक्ष धर्म का अवगाह है, अस्तित्व है । नास्तित्व है। मैं ही हूं और मैं ही नहीं हूं, दोनों बातें आती है। मैं स्वरूप से हूँ पररूप से नहीं हूँ तो मुझ में अस्तित्व भी बसा है और नास्तित्व धर्म भी बसा हुआ है । उसकी अपेक्षा ये दोनों हैं । अब इस ही स्वरूप में निरखते जाइये यह है, अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं, पर इतने से अभी सत् न कहलायेगा । है तो सत् मगर उसका परिचय नहीं बन पाया । इतना ही नहीं है कि वह है वह निरंतर परिणमता रहता है । ऐसा परिणमते रहने की बातें न निरखी जाय तो यही तो नित्यंत एकांत है । और सर्वथा नित्य कोई वस्तु हो ही नहीं सकती । जो है वह कोई न कोई अवस्था में रहेगा और अवस्थायें एक ही किसी की नहीं रहती, चाहे शुद्ध द्रव्य भी हो और शुद्ध अवस्था ही निरंतर चल रही है सिद्ध में, धर्मादिक द्रव्यों में, तो भले ही सिद्ध अवस्था चल रही है पर प्रतिक्षण की शुद्ध अवस्था उस क्षण की शुद्ध अवस्था है । वह अवस्था अगले क्षण की नहीं है । तो यों सत्त्व का परिचय नहीं बना, परिणमता रहता है तो किसी रूप परिणमता रहे । जो चाहे जो कुछ बन जाय । फिर तो एक कुछ ईश्वरसा रह गया कि किसी रूप बना रहे। सो नहीं है सत्। अपने रूप में परिणमेगा, पररूप से न परिणमेगा, यह व्यवस्था अगुरुलघुत्व करता है। अपने आपमें निहारते जाइये मैं हूं, अपने स्वरूप से हूं, पररूप से नहीं हूं, निरंतर परिणमता रहता हूं, अपने स्वरूप से परिणमता हूं, पररूप से परिणमता। इतना सब कुछ कहने सुनने बताने के बाद भी कुछ अभी एक वस्तु सो सामने नहीं आयी। कैसे आये? जब तक प्रदेशात्मक रूप से वस्तु को न समझ जाय तब तक सामने रहेगा क्या? यह तो फिर एक तरह की कल्पना भर रह जायगी। तो प्रदेशवत्व गुण से वस्तु का सीधा स्पष्ट परिचय हो जाता है। प्रदेशवान है सर्व पदार्थ। चाहे एक प्रदेश हो वह भी प्रदेशत्व संपन्न है, चाहे बहुप्रदेशी हो। इतने तक तो वस्तु का परिचय बना, लेकिन एक विशेषता यह बतायी जा रही है कि ज्ञेय सत् ही होता है, असत् नहीं होता। जो असत् है वह ज्ञेय कहां से हो? ज्ञान में ज्ञेयाकार कहां से होगा?
प्रमेयत्व गुण की सार्थकता के विषय में चर्चा―प्रमेयत्व गुण के विषय में लोग कभी शंका करते हैं कि वस्तु है जान गये, पर उस वस्तु में प्रमेयत्व गुण मानने की क्या आवश्यकता है? आवश्यकता क्या? यही तो धर्म है कि जो सत् है सो ही प्रमेय होता, असत् प्रमेय नहीं होता। जब कभी किसी असत् के बारे में बात करते हैं, जैसे गधे के सींग, खरगोश के सींग, बंध्या का पुत्र, यों बात तो करते हैं ना, और हैं असत्―मगर वहाँ पर भी सर्वथा असत् की बात है ही नहीं। कुछ है। बंध्या है कि नहीं, पुत्र भी आदमियों के होते कि नहीं, अब उनका एक मेलजोल करके बात कही जा रही है। जो असत् है वह ज्ञेयाकार रूप में नहीं आ सकता। गधे के सींग नहीं होते पर गधे और सींग ये दोनों कहीं तो होते हैं। गधे भी होते हैं और सींग भी होते। अगर ये कहीं पाये न जाते तो ये शब्द कहां से निकलते? गधे भी होते, सींग भी होते तब ही तो उसकी बात करते हैं। पर गधे में सींग यह बात तो असत् रूप से कहीं जा रही है? शब्द जितने है उनका वाच्य है। भले ही कोई निषेध रूप से रहे। जैसे एक असत् शब्द ही लो यह असत् जब कुछ है ही नहीं तो यह शब्द कहां से आया? तो सत् तो है, उस सत् के निषेध रूप में कह रहे हैं। तो वस्तु में प्रमेयत्व गुण होता है इसके मायने है कि सत् ही प्रमेय होता है, असत् प्रमेय नहीं होता।
आत्मस्वरूप परिचय के संबंध में प्रथम साधारण ज्ञातव्य―अपने आपके स्वरूप के परिचय की बात कही जा रही है। ऐसा यह मैं प्रदेशवान अखंड अपने स्वरूपास्तित्त्वमय निरंतर परिणमता रहने वाला एक चेतन पदार्थ हूं। इसका किसी भी अन्य सत् के साथ क्या संबंध है? भले प्रकार निरखिये अपने पर कृपा करते हुए, कल्याण बुद्धि रखते हुए अपने को संकटों से बचाने के उद्देश्य से सब मनन करते हुए निरखिये तो सही कि यह मैं जो स्वयं सत् हूं इस सत् का किसी अन्य सत् के साथ संबंध क्या कि वह मेरा कुछ कहलाने लगे। भले ही निमित्त नैमित्तिक योग से कर्म साथ लगे। शरीर साथ है तिस पर भी एक सत् का दूसरा सत् बन तो नहीं सकता। तो मेरा जगत के किसी भी पदार्थ के साथ स्वामित्व संबंध नहीं है, और मैं किसी को परिणमा दूं, ऐसा भी कर्तृत्व संबंध नहीं है। निमित्त नैमित्तिक योग से होता क्या है कि योग्य निमित्त के सान्निध्य में उपादान अपने में अपनी कला प्रकट कर लेता है। तो वस्तुत: वह प्रभाव उपादान का है, पर उपादान अपने इस प्रभाव को इस निमित्त सन्निधान के बिना प्रकट नहीं कर पाता, जैसा जो प्रभाव हो, तब उसके निमित्त का प्रभाव है यह ऐसा आरोप किया जाता है, पर यह भी नहीं है कि निमित्त सन्निधान के बिना उपादान में विकार होता है।
निमित्तनैमित्तिक भावप्रभाव में वस्तुस्वातंत्र्य का स्पष्ट दर्शन―बात यह कही जा रही है कि प्रत्येक वस्तु अपने आप में अपना परिणमन करता चला जा रहा है । जैसे आप किसी सड़क से चले जा रहे हैं, सड़क पर कोई वृक्ष है उसके नीचे से भी जा रहे है तो आप छाया रूप बने । आपको कुछ शीतलता भी आयी; आगे बढ़े धूप मिली, गर्मी मिली, छाया मिली, यह सब बात आपकी आप में ही होतीं चली आ रही है मगर उस-उस निमित्त सन्निधान में आपका वह कै गर्मी आदिकरूप वहाँ परिणमन चलता जा रहा है । हां आपके शरीर के परिणमन को वृक्ष ने अपनी जगह से हटकर आप में लगकर नहीं किया । पर उस सन्निधान बिना भी बात नहीं बनी, पर परिणमन देखो सबका स्वरूप अपने-अपने में है परिणमन-परिणमन अपने-अपने में है, वृक्ष अपने में परिणम रहा, यह मनुष्य शरीर अपने में परिणम रहा और निमित्त नैमित्तिक योग भी चल रहा । जिसे कह सकते कि निमित्त नैमित्तिक योग और वस्तुस्वातंत्र्य में दोनों एक साथ रहें हैं । रहो फिर भी वस्तु के स्वरूप को देखो वह अपने द्वारा अपने में अपने लिए अपने से परिणम रहा है । किस योग में परिणम रहा, वह भी एक चर्चा है पर केवल एक वस्तु को निरख करके तो देखिये उसका सर्व कुछ अपने आप में चल रहा है । जब मैं किसी परपदार्थ को कुछ परिणमाता भी नहीं, किसी का मैं कुछ करने वाला भी नहीं । भले ही आप अपने बच्चे की बहुत-बहुत सेवा करें और उसे देखकर अपना महत्त्व अनुभव करें, लेकिन वहाँ क्या है कि उस पुत्र का आप से अधिक पुण्य है । जिस पुण्य के निमित्त से आपको नौकर की तरह बनकर सेवा करनी पड़ती है पर करने वाला कौन किसका है? तो करने का भी संबंध नहीं है और परमार्थत: भोगने का भी संबंध नहीं है । यह जीव भोगता किसको है? अपने आपके परिणमन को भोगता है । परिणमन मुख्य है ज्ञान परिणमन । जैसा ज्ञान होता है वैसे ज्ञान को भोगता है और उस ही के अनुरूप दुःख सुख का अनुभव चलता है । किसी बाहरी पदार्थ से दुःख आता है क्या? आ ही नहीं सकता । बाहरी पदार्थ के बारे में कल्पनायें करते हैं उस ज्ञान की एक ऐसी दशा बनी है कि अपने आपके परिणमन में दुःख का अनुभव चल रहा है । किसी अन्य से मुझ में सुख आता क्या? सुख भी नहीं आता किंतु अपने आपके ही ज्ञान को इस दिशा में बढ़ाया जा रहा कि दुष्ट बुद्धि की कल्पनायें बना बनाकर अपने को सुख का अनुभव करता है, किंतु उस समय वे बाह्यपदार्थ, नोकर्म विषयभूत हैं इसलिए उनका नाम लदता है कि मैंने इसे भोगा, मैंने इसका सुख पाया ।
उपादान निमित्त व आश्रयभूत कारण के विषय में प्रकाश―बात यहाँ यों जानना कि जितने भी दुःख सुख आदि के परिणमन हो रहे हैं उनमें तीन प्रकार के कारणों की बात समझना है―(1) उपादान कारण (2) निमित्त कारण और (3) आश्रयभूत कारण । जैसे किसी को देखकर सुख हुआ तो उस सुख रूप कार्य का उस सुखानुभव का उपादान कौन? यह ही जीव, जो सुखरूप परिणमा । और निमित्त कारण क्या? साता वेदनीय का उदय आदिक । यहाँ इतनी सावधानी रखना कि जगत में ये जितने भी पदार्थ दिख रहे हैं स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, वैभव आदिक ये मेरी परिणति में निमित्त कारण नहीं कहलाते । निमित्त कारण तो केवल कर्म की दशा है । यह अंतर डालें तो बहुत सी समस्यायें सुलझ जायेंगी । हमारी स्थिति में, दशा में केवल कर्म दशा निमित्त कारण होती है। जगत के ये बाह्य पदार्थ मेरी दशा में, अवस्था में निमित्त कारण नहीं होते, क्योंकि इसका कारण क्या है कि निमित्त कारण वे कहलाते हैं कि जिनके कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध हो। होता तो है अत्यंताभाव वाला भिन्न पदार्थ । मगर जिसको जिस कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध का अर्थ क्या? जिसके होने पर विकार हो जिसके न होने पर विकार न हो, यह नियम जहां बना हो उसे कहते हैं निमित्त कारण। ये जगत के बाहरी पदार्थ ये निमित्त कारण नहीं हैं, क्योंकि इनके होने पर विकार हों और न होने पर विकार न हो ऐसा निमित्त पाया जाता । घर गृहस्थी छोड़कर साधु हो गया कोई और कल्पनायें कर-करके विकार कर रहा, सुख हो रहा दुःख हो रहा । सामने चीज नहीं है पर चल रहा है । एक बात और समझें । जैसे एक दृष्टांत दिया जाता है कि वेश्या मरी, तो उसको जलाने के लिए लोग श्मशान लिए जा रहे थे । उसको जब किसी साधु ने देखा तो उसके ये भाव हुए कि देखो इस बेचारी ने बड़ा दुर्लभ मानव जीवन पाकर व्यर्थ ही खो दिया, एक कामी पुरुष जो उसमें आसक्त था, देखा तो उसके ये भाव हुए कि यह वेश्या यदि कुछ दिन और जीवित रहती तो मुझे इससे और भी सुख मिलता, एक कुत्ते ने उस वेश्या के मृतक शरीर को देखा तो उसके ये भाव बने कि ये लोग इसे व्यर्थ ही जलाने के लिए ले जा रहे यदि इसे यों ही छोड़ देते तो हमारा कुछ दिनों का भोजन बनता । अब देखिये अगर वह वेश्या शरीर विकारभाव का निमित्त होता तो सबके एक सा ही विकारभाव होना चाहिए था । यहाँ फर्क क्यों आया? फर्क यों आया कि मुनिराज का तो निमित्त कारण और तरह का था, कषायों का क्षयोपशम, ज्ञानावरण का क्षयोपशम जिसके कारण वैराग्यमय वातावरण बना । तो उनको निमित्त कारण कर्मों का क्षयोपशम रूप था इसलिए उसके ऐसे ही परिणाम हुए देखा वेश्या को और उसके आश्रयभूत कारण करके ही समझा गया मगर निमित्त कारण इसका और प्रकार का है । तो कामी पुरुष का निमित्त कारण और प्रकार का है । उसके है पुरुषवेद का उदय, और उसकी जो-जो भी चीजें, वे सब कर्म दशायें उसके लिए निमित्त कारण थीं तब उसके अनुरूप उसका भाव बना और कुत्ता आदिक का क्या निमित्त कारण था? असाता वेदनीय का उदय, क्षुधा वेदनीय का उदय । तो दशा थी कर्म की इसलिए उसके अनुरूप भाव बने और तीनों के लिए आश्रयभूत कारण वेश्या रही। तो ये जगत के जितने बाह्य पदार्थ हैं इनको भी हम रूढ़ि से निमित्त? बोलते हैं और शास्त्रों में भी निमित्त कहते हैं पर अर्थ यों समझना चाहिए कि यहाँ आश्रयभूत कारण तो निमित्त शब्द से कहा है या वास्तविक कारण को निमित्त रूप से कहा है?
आश्रयभूत कारण के सद्भाव असद्भाव आदि से संबंधित कुछ तथ्यों का प्रकाश―अब आश्रयभूत कारण की बात देखिये―विकार होते है जीव में, उस प्रकार के मोहनीयकर्म के उदय का निमित्त पाकर । किंतु यदि कोई विवेकी है और अपने उपयोग को आत्मा के अनुभव की ओर लिये जा रहा है या कोई जाप सामायिक आदिक धार्मिक कार्यों में चल रहा है तो उदय तो बराबर निरंतर चल रहा है मगर आश्रयभूत कारण उसके लिए धन वैभव मित्रादिक नहीं बन रहे, क्योंकि उपयोग दूसरी ओर है । तो आश्रयभूत कारण न होने से विकार तो होंगे मगर वे अव्यक्त होंगे और आश्रयभूत कारण उपयोग में लिया जाय तो वह उपयोग व्यक्त हो जायगा । तो यहाँ यह बात जानना कि जो यह कहने की एक आदत है कि निमित्त कारण कुछ नहीं है उसकी आवश्यकता क्या? देखो बिना निमित्त के भी कार्य हो गया । तो वास्तविक दृष्टि से कथन करें तो यह बात नहीं कही जा सकती । होता क्या है कि निमित्त को तो झुठलाते हैं और उदाहरण देते हैं आश्रयभूत कारणों का । देखो वह वेश्या सामने आयी और मुनि महाराज के विकार न जगा तो निमित्त तो कुछ न रहा । और ये बाहरी समस्त पदार्थ आश्रयभूत कारण कहलाते हैं । ये निमित्त कारण नहीं कहलाते । इन्हें नोकर्म भी कहते हैं । इनका आश्रय करके इस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को पाकर कर्म अपने में एक विशेष रूप से प्रतिफलित होते हैं ।
निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय की प्रयोजकता―यह बात चल रही है एक आत्मस्वरूप की इस निमित्तनैमित्तिक की चर्चा से आपको आध्यात्मिक लाभ क्या होता है? ये जो विकार जगे ये मेरे स्वभाव से नही जगे । ये निमित्त पाकर जगे, और निमित्त पाना भी किस तरह का होता इस विकार के प्रसंग में कि उन कर्म प्रकृतियों में स्वयं अनुभाग पड़ा हुआ है । कब से पड़ा पडा है? जब से बंधा हुआ था । बंध के काल में प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग हुआ है । सो जब कर्मोदयवश या उदीरणा वश आत्मा से निकलते है तो जैसे किसी दुष्ट को घर में बसा लिया जाय तो जब तक वह घर में रहेगा तब तक आप पर उपद्रव न करेगा और जब वह मौका पायेगा घर से बाहर निकलने का तो वह कुछ भी दुष्टता का व्यवहार कर सकता है । यह करीब-करीब ऐसी बात है, ऐसे ही ये कर्म जब तक एक सत्त्व में पड़े है तब तक इनका फल नहीं भोगने में आता, ये कर्म न निकलते और सत्ता में पड़े रहते तब तो अच्छी बात होती । हम को दुःख ही न होता । पड़े रहेंगे सत्ता में पर ऐसा होता कहां है? जो आ रहा सो जायगा । तो जब वे कर्म विदा होते हैं तो उनका अनुभाग प्रस्फुटित होता है, फूटता है याने उनमें विकृति जो अनुभाग है वह एकदम फूल जाता है, बिगाड़ हो जाता । और उसका प्रतिफलन चूंकि चेतना है आत्मा, इस उपयोग भूमि में आता है, आक्रांत हो गया यह और उस समय यह विचक गया, स्वभाव से हट गया, उपयोग बदल गया, पर की ओर चला गया, यों दुःखी होता है । तो जब यह ज्ञान में आयगा कि यह तो प्रतिफलन है तो यह कर्म के उदय का प्रतिफलन है । मेरे स्वभाव में कष्ट नहीं मेरे स्वभाव में विकार नहीं । मैं तो अपने स्वरूपास्तित्त्व से अपने चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ । इसका जिस ज्ञानी संत ने परिचय पाया उसको जगत से विविक्तता आयी ।
अंतस्तत्त्व की रुचि का प्रभाव―मैं मैं हूँ । ज्ञानमात्र हूँ । मेरे स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं है । कोई मुझ में परिणमन करता नहीं है । निमित्त नैमित्तिक योग है । वही तो संसार है, वही तो सारी व्यवस्थायें चल रही हैं । निमित्त नैमित्तिक योग समझने से भी लाभ तो मिला, तथ्य समझे तो सही । यह मेरा स्वभाव नहीं है । मैं अपने स्वभावरूप रहूंगा, मैं इन प्रतिफलनों में उपयुक्त न होऊंगा । ऐसा जानने वाला अंतस्तत्त्व का रुचिया संत अपनी ओर आता है । आऊं, उतरूं, रमलूं । ये इसमें स्थितियां बनती है । कहां से आऊं? जहाँ भटक गये वहाँ से लौटकर आऊं । कहां भटक गये थे? जगत के इन सर्व बाह्य पदार्थों में वहाँ से लौटकर आऊं । उतरूं जो मेरा स्वरूप है, ज्ञानभाव है, मैं अपने ज्ञानस्वरूप में उतरूं । ज्ञानस्वरूप को जानूं, रमलूं और इस ही ज्ञानस्वरूप में मैं रम जाऊं । ये तीन बातें―ज्ञानमात्र, ज्ञानघन और आनंदमय इन तीन विशेषणों के मनन से संबंध रखती हैं । मैं ज्ञानमात्र हूँ इन-इन रूप नहीं हूँ । मात्र केवल ज्ञान हूँ इन बाहरी पदार्थोंरूप नहीं । ज्ञानमात्र विशेषण द्वारा समस्त बाह्य पदार्थो से हटकर मैं अपनी ओर आऊं और फिर करने क्या लगा? ज्ञानघन विशेषण के मानने से इस अपने आपके स्वरूप में उतरा मायने उस ज्ञानस्वरूप को ही जानने लगा, जानता रहा, इसी में बर्तता रहा और आनंदमय वह दशा कहलाती है जहाँ ज्ञानघन का भी विचार नहीं, मनन नहीं । भान होकर उस विकल्प से हट गया, वहाँ आनंद प्रकट होता है वही रमण होता है । तो आनंदमय इस विशेषण के मनन के साथ यह निर्विकल्प होकर अपने में रमता है, ऐसी अपने आप में अपनी क्रीड़ा करता हुआ, रमण करता हुआ यह ज्ञानी संत प्रसन्न रहा करता है । उस ही सम्यक्त्व की बात यहाँ चल रही है । उस सम्यक्त्व के 8 अंग बताये जा रहे हैं उसमें किस अंग में कौन प्रसिद्ध हुआ उनके संबंध में यह श्लोक चल रहा है ।
स्वभावविमुख व परभावोन्मुख मोही जीवों के जीवन की व्यर्थता―जीवन में रत्नत्रय नहीं पाया तो यह जीवन भी बीते हुए अनंत भवों की तरह व्यर्थ है । मानो लोक के वैभव कितने भी मिल गए, बड़े राजपाट मिल गए, बहुत बडे धनी हो गए, किंतु एक अपने आपका पता न पा सके, फिर यह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अपने आपका कुछ भी भाना करके दुःखी रहा करता हैं । मैं कौन हूँ इसका परिचय होना बहुत जरूरी है । मैं हूँ स्वयं हूँ और चैतन्यस्वरूप हूँ । मैं जो कुछ अपने आप में हूँ सो केवल प्रतिभास मात्र हूँ उसमें विकार का काम नहीं । स्वभाव अविकार है स्वभाव केवल जानने का है कोई कष्ट नहीं । मेरा स्वभाव परिपूर्ण है―अधूरा नहीं हूँ मैं जो कि कुछ करने को पड़ा हो अपने में जिससे कि मैं पूरा बनूं, ऐसा कुछ करने की आवश्यकता नहीं है । स्वरूप से पूरा हूँ और जब स्वयं मात्र जाननहार हूँ ऐसा मेरा निज का स्वरूप है, पर अनादिकाल से कर्मबंधन के कारण कर्म का विपाक आक्रमण करता है उससे दब जाने के कारण मैं अपने को न जान सकूं और बाहर में लगा रहूं तो यह तो अपने जीवन को खोना है । संसार का सुख केवल कल्पना का सुख है, वास्तविक सुख नहीं है, तब ही तो संसार का सुख भोगकर भी यह जीव तृप्त नहीं हो पाता, बल्कि बाद में पछताता है यदि संसार में वास्तविक आनंद होता तो यह तृप्त रहता और सदा रहता, कभी व्याकुल न होता । तो संसार के ऐसे उतार चढ़ाव हैं कि कभी सुख कभी दु:ख, कभी लोगों की इष्टि में बड़ा ऊँचा, कभी अत्यंत गिरा हुआ ये सब नटखट चलते हैं । तो इन बाहरी पदार्थों के लगाव से लाभ क्या है? लाभ है अपने आपकी समझ में । मर गये, इस भव से गये यह अकेला गया, इसके साथ कुछ जाता है क्या । फिर क्यों इन बाहरी पदार्थों में इतनी आसक्ति बनाते मेरा मैं हूँ, मेरा मैं शरण हूँ, मेरा मैं महान हूँ । किसकी छाया में मैं जाऊं? भगवान की भक्ति की छाया में जाने का अर्थ है अपने आपके स्वरूप की छाया में जाना, पर दुनिया के लोगों की छाया में जाने का क्या अर्थ निकल सकेगा? वह सब विडंबना है । तो एक बार हिम्मत करके जिसे कहते कि एक झटका देकर इन सबसे निराला ज्ञानघन यह मैं आत्मा हूँ इसकी दृष्टि एक बार तो पाले । आपके पड़ोसी के लिए आपके बच्चे पर है । और कदाचित मान लो आप इस भव में न होते, किसी और जगह होते तो ये आपके कुछ लगते थे क्या? कल्पना में भी कुछ न थे । तो यह सब व्यर्थ की माया है । ये व्यर्थ के झुकाव व्यर्थ के लगाव खुद को परेशान कर डालते है । इन सुखों से तो दुःख अच्छा है जिसमें एक फैसला बना हुआ है पर इस सांसारिक सुख में तो धोखा है । क्षोभ है, पाप का ही बंध है । तो इससे उपेक्षा करके कुछ अपने आत्मा के ज्ञान के अभिमुख होना चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि की नि:शंकता नि:कांक्षितता व निर्विचिकित्सता का स्मरण―जिनको आत्मस्वरूप का अनुभव हुआ उन्हें कहते हैं सम्यग्दृष्टि जीव । सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होता है । क्या होगा मेरा? यह उसको शंका नहीं रहती । सब मालूम है उसे कि मेरा क्या होगा । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और ज्ञान का परिणमन करता रहूंगा । यह मेरा होगा । पूरा तो पता है ज्ञानी को वह घबड़ायगा क्यों? वह बाहरी चीजों को तो अपनी कुछ समझता ही नहीं है । वह जानता है कि ये तो सब बाहर के परिणमन हैं । ज्ञानी को पूरा पता है कि मेरा क्या होगा । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ज्ञान का परिणमन होगा, बस यही चलता रहेगा । ज्ञानी को शंका नहीं रहती । ज्ञानी को किसी प्रकार का भय नहीं रहता । यह बात सब नि:शंकित अंग में कही गई है । और उसमें प्रसिद्ध हुआ अंजन चोर । उसकी भी बात आप सब जानते हैं । ज्ञानी जीव को बाह्य पदार्थो में इच्छा नहीं रहती, इसका नाम है निःकांक्षित गुण । धर्म धारण करके तो इच्छा रहती ही नहीं है किसी सांसारिक सुख पाने की । कभी अपने आप पर तीव्र पापकर्म का उदय आ जाय और बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़े तो ज्ञानीजीव उस खोटी दशा के बीच भी अपने ज्ञान को, अपने मन को नहीं गिराता । वहाँ साहस बनाता । आत्मा की शक्ति घटाकर वह दुःखी नहीं होता । इसे कहते हैं सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सित अंग ।
सम्यक्त्व के अमूढ़दृष्टि अंग में प्रसिद्ध रेवती रानी की अमूढ़दृष्टि का दिग्दर्शन―चौथा अंग है अमूढ़दृष्टि अंग, मुग्ध न होना । चाहे खोटे तापसी जैसा चाहे अपने आपको देव मानने वाले लोग कैसा ही अपना प्रभाव दिखायें किंतु वह ज्ञानी जीव उस चमत्कार में मुग्ध नहीं हो जाता । ऐसी सम्यग्दृष्टि को शुद्ध श्रद्धा है । एक बार रेवती रानी की बड़ी प्रसिद्धि थी कि वह अपनी श्रद्धा पर अटल है वह यहाँ वहाँ की देखी सुनी बातों पर विश्वास नहीं करती किंतु जो शास्त्रों में लिखा है उस पर उसकी श्रद्धा थी । यह बात किसी एक विद्यावान क्षुल्लक ने या किसी ने सुना तो उसने उस रेवती रानी की परीक्षा के लिए अपने विद्याबल से कई देवताओं के रूप रखा और उनका बड़ा चमत्कार दिखाया । लोगों की बड़ी भीड़ लगने लगी उनका वह चमत्कार देखकर, पर रेवती रानी उस चमत्कार से आकर्षित न हुई । ऐसी ही कई घटनायें विद्या के बल से दिखाया । एक बार तो ऐसी घटना दिखायी कि जहाँ समवशरण की रचना थी, वहाँ मानो कोई नया तीर्थकर उत्पन्न हुआ हो, ऐसा दृश्य दिखाया । तब वहाँ लोगों ने रेवती रानी से कहा कि अब तो तीर्थकर महाराज समवशरण में विराजे हैं, उनके दर्शन करने चलो, तो उसने कहा कि 24 तीर्थंकर तो हो चुके अब 25वां नया कोई तीर्थकर न होगा, यह तो किसी मायाजाल का रूपक है । वह नहीं गयी । तब उस भेषधारी ने अपना बनावटी रूप छोड़कर सही रूप प्रकट किया और रेवती रानी की भारी प्रशंसा की । अमूढ़दृष्टि अंग की मुख्यता है अपने आपके स्वरूप के बारे में बेहोश न होना और विशुद्ध किसी घटना को देखकर उसमें आकर्षित न होना । यह कला ज्ञानी में पायी जाती है क्योंकि उसे अपने बारे में परिचय मिल चुका है ।
सम्यक्त्व के उपगूहन अंग में पालन में प्रसिद्ध जिनेंद्रभक्त सेठ की जिनशासन भक्ति का दिग्दर्शन―ज्ञानी के सम्यक्त्व का 5 वां अंग है उपगूहन अंग । किसी धर्मात्मा से चाहे वह भेष वाला ही धर्मात्मा हो कोई बात दोष की बने तो उसको जगत में प्रकट न होने देना । आपके लिए सोचना होगा कि यह कोई बुद्धिमानी है क्या किसी से कोई दोष बन गया तो उसे दंड दिया जाय? हां यह भी एक न्याय है पर सम्यग्दृष्टि की मंसा है कि यह जैनशासन जो अनादि से चला आ रहा है, जिसका आलंबन लेकर भव्य जीव संसार से तिरते हैं, लोगों की दृष्टि में यह न आये कि यह जैनशासन भी मलिन शासन है । उस शासन में कलंक न आये । क्या किसी पुरुष का नियम लेना आलंबन से रहित हो जायगा, इसलिए वह उपगूहन अंग का आदर करता है । इस अंग में जिनेंद्र भक्त नाम का सेठ प्रसिद्ध हुआ है । उसका चैत्यालय था, जिसमें बड़ा कीमती छत्र लगा था, बड़ी कीमती मणि चढ़ी थी । एक बार किसी चोर के मन में आया कि इस छत्र को चुराना चाहिए पर वहाँ बड़ी व्यवस्था थी, कैसे चुरा सके? तो उसने कोई ब्रह्मचारी या क्षुल्लक का रूप रख लिया और बड़े ही निरारंभ, निष्परिग्रह रूप से उस चैत्यालय में रहने लगा । सेठ को भी उस पर क्षुल्लक पर बड़ा विश्वास हो गया । और विश्वास हो जाना संभव ही था क्योंकि धर्मात्मा का सच्चा रूप उसके अलावा और कौन हो सकता था? सो एक दिन वह सेठ कहीं बाहर जाने वाला था किसी व्यापार संबंधी कार्य, से तो उसने उस क्षुल्लक से कहा कि मैं एक दिन के लिए बाहर जाऊंगा, आप इस चैत्यालय की देखरेख रखना । ठीक है वह तो चाहता ही था कि कब मौका मिले और मैं छत्र चुराऊं । आखिर वह सेठ तो चला गया । इधर क्या घटना घटी कि मौका पाकर वह क्षुल्लक मंदिर के अंदर से छत्र चुराकर भगा । अब छत्र में मणि की चमक होने से उस नगर के रक्षक सिपाहियों ने उसे देख लिया और चोर समझकर उसका पीछा किया । वह चोर भगता हुआ चला जा रहा था और सिपाही उसका पीछा किये थे । इसी बीच उधर से वह सेठ अपने घर के लिए वापिस हो रहा था । रास्ते में उसने देखा कि वह चोर उसके ही मंदिर का छत्र लिए हुए जा रहा था और सिपाहियों ने उसको पकड़ लिया था । यह दृश्य देखकर सेठ ने सारा रहस्य जान लिया पर इस दृष्टि से कि इससे तो हमारे धर्म की अप्रभावना होगी, यहाँ धर्म की रक्षा करना चाहिए । सो इस भावना से प्रेरित होकर सेठ बोला सिपाहियों से कि आप लोग इन्हें छोड़ दे यह छत्र मेरा है और मैंने ही इनसे मंगाया था । बस छोड़ दिया सिपाहियों ने । यह है उपगूहन अंग का सच्चा उदाहरण । यहाँ लोगों को एक शंका हो सकती कि यह तो सरासर झूठ बोलना हुआ । तो ठीक है यहाँ झूठ बोलकर उस चोर को बचाने का भाव न था बल्कि धर्म शासन को अप्रभावना से बचाने का भाव था, इसलिए वह झूठ बोलना भी उस ज्ञानी पुरुष के लिए उस स्थिति में गुण हो गया । यह भी एक सम्यग्दर्शन का अंग है । आज जैन शासन के मानने वालों का चरित्र ऊंचा न रहा इस कारण जैनधर्म की अप्रभावना चल रही है । ऐसी स्थिति में किसी के मुख से कैसे निकल सकेगा कि ये जैनी हैं, ये धर्मात्मा है, ये कभी झूठ नहीं बोलते, ये कभी चोरी नहीं करते, ये रात्रि भोजन नहीं करते, ये बड़े सदाचारी हैं, ऐसा अब लोग कैसे बोल सकते क्योंकि कुछ संख्या में इनका चारित्र स्वयं गिर रहा है । हां कभी एक ऐसा जमाना था कि लोग जैनियों को बड़ी अच्छी दृष्टि से देखते थे और जैन धर्म की भी बड़ी प्रशंसा करते थे । पर आज बात नहीं देखने में आती । तो इस जैन शासन को विशुद्ध रखना यह अपने आचरण पर निर्भर है ।
सम्यक्त्व के स्थितिकरण अंग में प्रसिद्ध श्री वारिषेण मुनिराज का करुणा―सम्यग्दर्शन का छठा अंग है स्थितिकरण । किसी धर्मात्मा को धर्म से चिगते हुए में उसे स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है । इसमें वारिषेण नामक मुनि अधिक प्रसिद्ध हुए । वारिषेण महाराज जब पुष्पडाल के यहाँ से आहार लेकर जंगल की ओर चले तो पुष्पडाल उन्हें कुछ दूर पहुंचाने गए । जब कोई एक दो मील जगह तय कर गये तो पुष्पडाल ने सोचा कि हम कैसे इनसे कहें कि अब मुझे घर जाने की आज्ञा दे दीजिए, इस संकोच से न कहा, उधर वारिषेण महाराज ने भी पुष्पडाल को घर लौटने कि लिए न कहा । यद्यपि पुष्पडाल ने कई बातें ऐसी कहीं कि जिन में यह संकेत था कि अब मैं काफी दूर आ गया हूँ, घर वापस लौटने की आज्ञा दे दीजिए, पर वारिषेण ने नहीं कहा । क्या कहा था पुष्प-डाल ने महाराज यह वही तालाब है जहाँ हम तुम बचपन में नहाने आया करते थे यह नगर से कोई दो मील पड़ता है यह वही बगीचा है जहाँ हम आप घूमने आया करते थे, यह नगर से कोई तीन मील पड़ता है; वारिषेण महाराज ने कुछ न कहा । आखिर जंगल पंहुचे, पुष्पडाल के भाव भी कुछ विरक्ति की और बढ़े ओर वहीं मुनि हो गये । अब मुनि तो हो गये पर उन्हें अपनी स्त्री का याद बराबर बना रहा । यद्यपि उनकी श्रीमति जी थी कानी, पर राग उसके प्रति बराबर बना रहा । जब वारिषेण महाराज ने पुष्पडाल मुनि को विचलित होते हुए देखा तो क्या उपाय किया कि अपने घर माँ के पास खबर भेज दिया कि कल के दिन हम घर आ रहे हैं, आप सभी रानियों को सजाकर रखना । यद्यपि वारिषेण की माँ को बड़ा आश्चर्य हुआ अपने बेटे की उस करतूत पर, पर समझा कि इसमें कोई रहस्य छिपा होगा । खैर उस माता ने दो सिंहासन सजाये―एक तो स्वर्ण का और एक काठ का । सोचा कि अगर हमारा बेटा विचलित हो रहा होगा तो स्वर्ण के सिंहासन पर बैठेगा नहीं तो काठ के सिंहासन पर । खैर वारिषेण तथा पुष्पडाल जब घर पंहुचे तो क्या देखा कि बड़ा ठाठ अनेक सुंदर रानियां बड़ा वैभव । यह सब ठाठ देखकर पुष्पडाल का चित्त पलट गया सोचा ओह धिक्कार है मुझे जो एक कानी स्त्री का ध्यान नहीं छोड़ पाता, यहाँ तो इतनी-इतनी सुंदर रानियों को तथा इतने विशाल वैभव को त्यागकर ये वारिषेण महाराज मुनि हुए । बस पुष्पडाल मुनि का मोह गल गया और अपने धर्म में स्थिर हो गये । यह है धर्म में स्थिर करने का सुंदर उदाहरण ।
सम्यक्त्व के वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध श्री विष्णु मुनि की करुणा―सम्यक्त्व का 7वां अंग है वात्सल्य अंग । इस अंग की तो बड़ी कथा है । रक्षाबंधन पर्व जो आज चल रहा है उसकी कहानी आप सब जानते ही हैं । वात्सल्य के मायने है प्रेम । जब श्री अकंपनाचार्य आदिक 700 मुनियों पर विकट उपसर्ग हो रहा था बालि आदिक मंत्रियों ने 7 दिन का राज्य पाकर उन मुनिराजों को घेरकर एक बाड़े के अंदर बंद कर दिया था और उसके अंदर लकड़ियों में आग लगा दिया था । अब मुनियों के ऊपर आये हुए इस घोर उपसर्ग का निवारण कैसे हो यह किसी की समझ में न आ रहा था । आखिर यह घोर उपसर्ग देखकर श्रवण नक्षत्र कंपित हुआ देखा कि किसी मुनि का हाय शब्द निकला, जान लिया सब वृतांत । उनसे किसी विद्याधरी क्षुल्लक ने पूछा―महाराज क्या मामला है जो रात्रि को हाय शब्द निकला? तो वहाँ बताया कि इस समय हस्तिनापुर में 700 मुनिराजों पर घोर उपसर्ग है । तो महाराज इसके निवारण करने का क्या उपाय है?... जावो, विष्णुकुमार मुनीश्वर अमुक जंगल में तप कर रहे हैं वहाँ जाकर घटना बतावो वे ऋद्धिबल से सब उपाय सोच लेंगे और संकट टाल सकेंगे । सो वह क्षुल्लक विष्णुकुमार मुनि के पास पहुंचे और सारी घटना बताया तो विष्णुकुमार मुनि ने पूछा―इस उपसर्ग के निवारण का क्या उपाय किया जा सकता है? तो क्षुल्लकजी ने बताया कि आपको विक्रिया ऋद्धि सिद्ध है, उसके बल पर आप उन मुनियों का संकट निवारण कर सकते हैं । यह बात सुनकर विष्णुकुमार मुनि को महान आश्चर्य हुआ कि हमें विक्रिया ऋद्धि कैसे सिद्ध है, हमें तो इसका कुछ पता ही नहीं आखिर इसका पता लगाने के लिए जो उन्होंने हाथ उठाया तो उनका हाथ लवणसमुद्र पर्यंत बढ़ गया । अब तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि हमें विक्रिया ऋद्धि सिद्ध है । अब क्या था, विष्णुकुमार मुनि तुरंत ही अपना मुनि पद छोड़कर एक 52 अंगुल वाला बोनारूप रखकर वहाँ पंहुचे जहाँ कि मुनियों पर वह उपसर्ग आया हुआ था । वहाँ जाकर देखा कि बलिराजा उन मुनियों को जलते हुए देख-देखकर बड़ा खुश हो रहा था उस समय बड़े-बड़े पंडित बुलवाकर मंत्रेच्चारण करवाकर यज्ञ जैसा कर रहा था उसकी खुशी में सभी को मन चाहा दान दिया जा रहा था । आखिर 7 दिन को मांगा हुआ राज्य उसे मिल गया था वह उस समय मनमाने कार्य कर सकता था आखिर जब मुफ्त ही उसे मिला था तो उसमें कंजूसी की क्या जरूरत? सो वहाँ राजा बलि ने विष्णुकुमार से कहा कि आप भी कुछ मांगिये तो वहाँ विष्णुकुमार ने तीन पग भूमि मांगा । उस समय राजा बलि बड़े आश्चर्य में पड़ा कि एक तो यह वैसे भी कद का बौना और फिर तीन पग भूमि मांगता इतने से इसे क्या होगा सो कहो―अरे इतने से क्या होगा कोई बड़ी चीज मांग लो या भूमि ही मांगना है तो काफी सी मांग लो तो वहाँ विष्णुकुमार बोले राजन् मुझे इससे अधिक न चाहिए ।... अच्छा तो आप तीन पग भूमि जहाँ चाहे ले लीजिए दे दूंगा यह मैं संकल्प करता हूँ । तो वहाँ विष्णुकुमार मुनि ने अपना एक पग उठाया तो विक्रिया से वह पग इतना अधिक बढ़ गया कि एक पग से खड़े होकर दूसरे पग से सारा मनुष्यलोक घेर लिया फिर दूसरा पग घुमाया तो मानुषोत्तर पर्वत घेर डाला । अब तीसरा पग रखने को जगह न मिली तो बलि से कहा―बताइये अब मैं तीसरे पग की भूमि कहां नापूं? तो उस समय वह राजा बलि अत्यंत शर्मिंदा हुआ और विष्णुकुमार के चरणों में लोटकर क्षमा याचना किया और विष्णुकुमार के कहे अनुसार मुनिराजों का वह घोर उपसर्ग दूर किया । सारे मुनिराजों को उस बाड़े से निकाला गया उस समय उनकी क्या हालत थी सो तो ध्यान दो । उन मुनिराजों के सारे अंग अग्नि से झुलस गये थे अग्नि के धूम से कंठ अवरुद्ध हो गये थे, उनका सारा शरीर अत्यंत क्षीण हो गया था मगर उपसर्ग दूर हो चुका था, अब उन्हें कैसे जीवित रखा जाय इसका उपाय क्या किया लोगों ने कि जब वे चर्या को निकले तौ उन्हें आहार में सिवइयां दिया था ताकि उनके कंठ में आहार लेते हुए में कष्ट न पहुंचे । तभी से रक्षाबंधन पर्व चला और उसमें सिवइयां बनने की प्रथा चली । वह प्रथा आज भी चली आ रही । तो विष्णु कुमार मुनि ने वात्सल्य अंग की पूर्ति की, पश्चात् फिर दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे ।
सम्यक्त्व के प्रभावनांग के पालन का एक उदाहरण―सम्यक्त्व का 8 वां अंग है प्रभावना । इस अंग में प्रसिद्ध हुए हैं वज्रकुमार । इनके दो रानियां थी एक थी, वैष्णवमत के मानने वाली और एक थी जैन धर्म के मानने वाली । दोनों ने अपना-अपना रथ निकालने के लिए होड़ मचायी । एक ने कहा―पहले हम निकालेगी, दूसरी ने कहा हम पहले निकालेगी । इसी प्रसंग को लेकर दोनों रानियां अनशन करके बैठ गई तो वहाँ वज्रकुमार ने अपने चमत्कार बल से वैष्णवमत को मानने वाली रानी का विचार बदल दिया और जैनरथ पहले निकला, जैन धर्म की प्रभावना हुई । वास्तविक प्रभावना तो ज्ञान की प्रभावना को कहते है । बाहरी शो दिखा देना यह कोई प्रभावना नहीं है । जनता के मन में आ जाय कि ये लोग बड़े संपन्न है, अपने धर्म की प्रभावना के लिए बहुत कुछ धन लुटाने को तैयार है ।
इस प्रकार की बात मन में रखकर बाहरी आडंबर का प्रदर्शन करके लोगों को दिखाना यह कोई वास्तविक प्रभावना नहीं है । प्रभावना कहते है ज्ञान का प्रचार प्रसार करने को । सो ऐसे 8 अंगों से युक्त सम्यक्त्व को जो प्राप्त करता है वह पुरुष धन्य हैं, जो संसार संकटो से सदा के लिए पार हो गए ।