वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 75
From जैनकोष
नयत्मात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव वा ।गुरुरात्माऽऽत्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:॥75॥
परमार्थत: स्वयं का स्वयं गुरु – यह जीव अपने आपको अपने आप ही जन्मअवस्था में ले जाता है और अपने आपको ही निर्वाण प्राप्त करता है । इस कारण परमार्थ से आत्मा का गुरु आत्मा ही है । मुक्ति का मार्ग असहाय मार्ग है, पर की सहायता जहां रंच न हो ऐसा स्वसहाय मार्ग है । यह जीव अपना जैसा परिणाम बनाता है, उस परिणाम के अनुकूल इसकी गति स्वयं होती रहती है । जैसे कि पहिले श्लोक में बताया है कि शरीर में आत्मभावना की जाए तो नए नए देह मिलते रहेंगे और आत्मा में आत्मभावना की जाए तो देहरहित अवस्था हो जाएगी । यों निर्वाणअवस्था को प्राप्त कराने के लिए कोई दूसरा गुरु नहीं है । स्वयं का ही परिणाम निर्मल करना होगा, तब मुक्ति मिल सकती है । भले ही हितकारी गुरुवों का उपदेश सुना जाए, किंतु अपना ही परिणाम जब तक उसके अनुकूल न बनाया जाए, तब तक तो उसको शांति और सुख का मार्ग कैसे मिल सकता है ?
परमार्थतत्त्व व उसका परमार्थश्रद्धान् – भैया ! शांति व शांति के मार्ग को प्राप्त करने वाला सर्वप्रथम परिणाम है कि अपने आपका जैसा यर्थाथस्वरूप है, तैसा विश्वास करना । स्वयं पर के संबंध बिना अपने आपकी जो स्थिति हो, वह ध्यान में न आये तो अपना विश्वास नहीं किया समझिये । कल्पना कर लो कि यह शरीर अपने साथ न होता और जो कार्माणवर्गणाएँ हैं, वे भी न होतीं इस आत्मा के साथ तो आत्मा कैसी स्थिति में रहता ? इसका अंदाज करने से आत्मा के स्वरूप की परख होती है । यह शरीर न होता और केवल मैं ही होता तो यह मैं अमूर्त आकाशवत् निर्लेप ज्ञानानंदस्वरूप एक चेतन द्रव्य सकल अंजनों से रहित केवल प्रकाशमात्र होता । ये कर्म भी न होते तो मैं ऐसा शुद्ध ज्ञानज्योतिमात्र होता, न वहां राग का उदय होता, न द्वेष का, न मोह का – ऐसा मेरा सहज स्वरूप है ।
भ्रांति का कष्ट – यह जीव ऐसे अपने सहजस्वरूप को भूलकर व्यर्थ की जो भिन्न वस्तुयें हैं, उन्हें यह ‘मेरा है’ यों मानता है तो मानने से कुछ अपना हो न जायेगा, पर अपना मान लिया, इससे जो कलंक आत्मा में लगा, बर्हिमुखता हो गई उसके फल में, फिर यह जन्ममरण के चक्कर लगाता है । लोक में सबसे बड़ी दुर्लभ वस्तु है सम्यग्ज्ञान । जिस जीव को यथार्थ ज्ञान है, उसे आकुलता कभी नहीं हो सकती । काहे की आकुलता । मान लो आज धनी थे, कुछ गड़बड़ी हो गई रात्रि को । न रहा धन, कल के दिन, तो ज्ञानीपुरुष इसमें खेद नहीं मानता है । वह तब भी यह जान रहा है कि मैं जितना था, जैसा था, वैसा का वैसा आज भी हूं । जो व्यर्थ के अज्ञान अंधकार में पड़े हैं, इस मायामयी लोक में जो अपनी शान बढ़ाना चाहते हैं, उनको तो कष्ट ही है ।
परमार्थ व माया के रुचियों की स्थितियां – जिसको जीवन प्यारा बाहरी बातों का इतना मूल्य न समझे । कुछ मिल गया तो ठीक, न मिल गया तो ठीक । जैसी परिस्थिति हो वह ठीक । यदि मन स्थिर है, मन भी चंगा है तो समझो कि अपना आनंद अपने पास है । कोई भी बाह्यसंपदा हो, धन प्यारा हो और इस लोक में मेरी शान रहे, ऐसी कल्पना प्यारी हो उनको कर्म सताया करते हैं। जो अपने सहजस्वरूप को जानते हैं, उससे ही जिसका प्यार है, जीवन को भी एक औपाधिक घटना जानते हैं, मैं तो अजर अमर हूं, अजन्मा हूं, ऐसे ज्ञायकस्वरूप की जिन्हें रुचि है, उनको जीवन भी रुचिकर नहीं है । अशांति है, अशांति अशांति ही बढ़ रही है और यहां के कुछ लोगों के स्वार्थवश थोड़ा हाहा-हूहू कह दिया और उसमें बह गए, यह बुद्धिमानी नहीं है ।
ज्ञानी का विवेक – भैया ! ज्ञानी का परिणाम बड़ा और घोर होता है, विवेकपूर्ण होता है, उसे न जीवन से प्रेम है, न धन से प्रेम है और न यहां इज्जत से प्रेम है । उसे तो प्रेम है अपने अंत:स्वरूप में बसे हुए इस कारणपरमात्मतत्त्व से । ऐसा शुद्ध ज्ञानस्वरूप का आलंबनरूप परिणाम जहां होता है, वहां निर्मलता बढ़ती है, तब यह आत्मा अपने ही ज्ञानबल से अपने आपको अपने आपके ही द्वारा निर्वाण की प्राप्ति करा लेता है । दूसरा कोई निर्वाण न करा देगा । मरने से तो कोई बचा नहीं सकता अथवा किसी के मन में कोई विकल्प उठ रहा हो, उस विकल्प की पीड़ा हो, उस दुख से तो बचा नहीं सकता, निर्वाण जैसी बात तो बहुत बड़ी बात है । किसी के वश की बात नहीं है कि अन्य किसी को कोई कुछ कर सके । बड़े-बड़े पुरुषों की भी यहां मनचाही बात नहीं हो सकी । अंजना और पवनंजय का किस्सा, श्री राम और सीता की कहानी आदि अनेक उदाहरण हैं कि इतने महान् होकर भी मनचाही बात नहीं हो सकी । कौन किसे निर्वाण करा सकता है ? एक रावण के ही वंश में उत्पन्न हुए उनके लड़के तो मोक्ष चले जायें और रावण ज्यों का त्यों बल्कि अधोलोक में उत्पन्न हो, सब अपने अपने परिणामों की बात है ।
तत्त्वदर्शन के अभाव में झंझटों का संकट – इस जीव का गुरु यह जीव स्वयं है, दूसरा कोई गुरु नहीं है । जब तक यह जीव अपने कषायभाव पर विजय नहीं करता, जिस तरह की इच्छा उठी, जिस तरह का विकार जगा, उस विकार के वश होकर उस विकार से मलिन हो गया तो यह जीव अपने उद्धार का यत्न कैसे करेगा ? यह तो संसाररूप कीचड़ में फंसा रहेगा। जैसे स्वप्न में कोई किसी की बढ़ाई कर रहा हो, कोई किसी का यश गा रहा हो और वह खुश हो रहा हो वहां वास्तविकता कुछ भी नहीं है । केवल स्वप्न के दृश्य हैं – ऐसे ही यहां पर कुछ मोही दूसरे मोहियों की प्रशंसा कर रहे हों तो वहां वास्तविकता कुछ नहीं है, केवल कल्पना ही कल्पना है । तत्त्व आत्मा के अंतर में केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ही पड़ा हुआ है, वह तत्त्व है । उस तत्त्व की ही दृष्टि हो, तब तो इस संसारसमुद्र से पार हो सकते हैं।
मोही प्राणी की भटकन – यह अपना परमात्मा अपने आपकी दृष्टि में न हो तो यह भूला भटका, यत्र-तत्र भ्रमण करता रहता है, कहीं इसको स्थान नहीं मिलता । जैसे फुटबाल पूजने के लिए नहीं होता है, यहां से वहां दौड़ाने के लिए है, ठोकरें खानें के लिए होता है, उसे कहीं आराम नहीं मिलता है – ऐसे ही फुटबाल की तरह यह मोही प्राणी ठोकरें खाने के लिए है । स्त्री की, पुत्रों की, पड़ौस के लोगों की ठोकरें खाने के लिए है । कोई राग भरी ठोकर मारता है तो कोई विरोधभरी ठोकर मारता है । जैसे यहां पर फुटबाल को कोई पैर से ठोकर मारता है तो कोई हाथ से ठोकर मारता है तो कोई सिर से ठोकर मारता है । फुटबाल तो ठोकरें खानें के लिए है – ऐसे ही कोई अपनी प्रीति, राग दिखाए, द्वेष दिखाए तो आकुलता सब में एक सी है । द्वेष के व्यवहार में, राग और असमता के व्यवहार में कम आकुलता नहीं होती ।
राग और द्वेष की चोटें – कोई मेरे प्रतिकूल मेरा मुकाबला करने के लिए आ गया । बातों से वह मुझे परास्त करना चाहता है । इस मुठभेड़ में जैसी हमें आकुलता है, उससे भी अधिक आकुलता परिवार के प्रेमभरे वचनों के सुनने में होती है, पर यह मोही यह महसूस नहीं करता है । उसे तो वे स्नेहभरे वचन प्रिय लग रहे हैं । भीतर कैसी खिचड़ी पक रही है, कैसा विह्वल परिणाम हो रहा है ? वह द्वेष के मुकाबले से कम नहीं है । राग का अंधा सप्तम नरक तक जन्म ले लेता है । द्वेष से कितने भी कुछ उपद्रव प्राप्त किए गए हों, उससे भी अधिक दुर्गति इस राग के अंधे की होती है । सप्तम नरक से भी निम्न गति है निगोद की। निगोद में जन्म राग के अंधे का होता है । द्वेष से ग्रस्त पुरुष का जन्म निगोद में नहीं होता है । राग की चोट द्वेष की चोट से बुरी है । द्वेष में तो यों समझो कि ऊपरी चोट सी है, ये तुरंत विदित हो जाता है, महसूस होता है, समझने लगता है, पर राग की बहुत गहरी चोट होती है ।
आत्मगुरुता – रागद्वेष से प्रेरित होकर यह जीव अपने आपको इस संसार में घुमा रहा है, किंतु आत्मबुद्धि, आत्मा में ही आत्मबुद्धि करने वाला पुरुष अपने आपको शांति के मार्ग में बढ़ा ले जाता है । इसका गुरु यह आत्मा ही स्वयं है । हमें अपने आपके परिणामों पर दृष्टि देनी चाहिए । बाहरी बातों का इतना मूल्य न समझें । कुछ मिल गया तो ठीक, न मिल गया तो ठीक, जैसी परिस्थिति हो वह ठीक । यदि मन स्थिर है, मनचंगा है तो समझो कि अपना आनंद अपने पास है कोई भी बाह्य संपदा हो, ज्ञान नहीं है तो वहां आकुलता ही मचेगी । अपने आपको अपना गुरु मान कर अपने परिणामों पर निर्भर रहना चाहिए ।
सुभवितव्यता – जब इस जीव की संसार की स्थिति संनिकट होती है अर्थात् निर्वाणप्राप्ति के सम्मुख होती है तो दर्शनमोहनीय का उपशम अथवा क्षयोपशम होता है, क्षय भी होता है । उस समय यह जीव अपने आपके ज्ञानबल से अपने आपमें अपने आपकी पहचान कर लेता है। तब कभी-कभी यह सद्गुणियों के उपदेश के बिना भी यह जीव आत्मस्वरूप को पहिचान लेता है और रागद्वेष आदिक कषायभाव और विभाव परिस्थितियों का त्याग करके स्वयं कर्मबंधन से छूट जाता है । इस कारण परमार्थ दृष्टि से देखो तो यह खुद आत्मस्वरूप अपने आपका गुरु है । दूसरा कोई गुरु नहीं है । गुरु से आशा किया गया काम इष्ट पदार्थों का श्रद्धान् करना और इष्ट पदार्थों का ज्ञान करना और इष्ट पदार्थों का आचरण करना है । इस आत्मा का अभीष्ट तत्त्व है एक शुद्ध आत्मतत्त्व । इस शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान कोई दूसरा नहीं करा सकता, इस आत्मतत्त्व का रमण कोई दूसरा नहीं करा सकता । इसलिये यह आत्मा ही गुरु है, आत्मा ही स्वयं कर सकता है । हम मानें तो मान लें, न मानें तो न मानें, पर दूसरे में यह सामर्थ्य नहीं है कि किसी बात को वह मुझसे मना ही ले । कोई कितना ही समझाये, हमारे ज्ञान में वह बात बैठे तो हम उसके जानकार हो सकते हैं । जब हमीं ने अपने में ज्ञान का परिणाम किया तभी तो जाना, हमारी दृष्टि स्वयं निर्मल हो और हम यथार्थतत्त्व का ज्ञान करके शुद्ध आत्महित में लग जायें तो हमारा कल्याण है ।
मोह में पतन और निर्मोहिता में उद्धार – भैया ! मोह ममता में रह कर कुछ उद्धार नहीं होने का है बल्कि मलिनता आ जाती है । यह जीव सब जीवों से न्यारा है, लेकिन दो चार जीवों को यह अपना मान लेता है यह सब मोह का गहन अंधकार है । है सबसे न्यारा, इससे सब जुदे हैं पर उन जुदों में से दो चार में स्नेह भाव है तो इसे क्या कहा जाय ? यह सब विकल्प व्यामोह का फल है और उस व्यामोह में केवल दुःख ही है । बड़े-बड़े पुरुष श्री रामचंद्र, पांडव और-और भी सब जब तक घर में रहे तब तक एक न एक कष्ट आता रहा। शांति तब मिल पायी जब सर्वपरिग्रह का त्याग करके, सर्वसंबंधों का नाता तोड़कर केवल निज ब्रह्मस्वरूप से ही अपना नाता रखा तब शांति मिली । बड़े-बड़े पुरुष भी त्यागमार्ग में आकर ही शांत हो सके, मुक्त हो सके । तब समझिये वही सबके लिए मार्ग है । जो जितना चल सकेगा वह उतना फल पायेगा । मगर संचय का मार्ग अपनाने से, मोह ममता का मार्ग अपनाने से शांति प्राप्त नहीं हो सकती है ।
आकिंचन्यभाव का प्रसाद – शांति का कारण तो निर्मोहता, वैराग्य, ज्ञान, आत्मसंतोष, धैर्य, आत्मदृष्टि ये ही हैं । उद्धार का उपाय मोह नहीं है राग नहीं है । अब जाना ना । जितना जो कुछ अपनी शांति के लिए किया उस सबको एक बार में मिटा दीजिएगा तब शांति का मार्ग मिलेगा । सीधा अर्थ यह हुआ । इस विकल्प से जितना धनसंचय माना, कुटुंब वाला माना, शान वाला माना उन सबको भूल जाना होगा और अपने आपको आकिंचन्य मानना होगा तब ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की दृष्टि होगी और इस ही में रुचि होगी, तृप्ति होगी । इस ज्ञान के अनुभव से ही संतोष होगा और उस स्थिति में फिर यह जीव सर्वसंकटों से मुक्त हो जायेगा ।
निर्वाण की उपादेयता – हमें अपने आनंद के लिए अपने आपसे ही अपने आपमें कुछ विलक्षण पुरुषार्थ करना है, ऐसा निर्णय करके अपने हित के अर्थ ज्ञान बढ़ायें ! उस ज्ञान को बनाये रहे, ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान करते रहें, ज्ञानमात्र अपने आपको मानते रहें तो इस ज्ञानभावना के मार्ग में लगना चाहिए । मोक्ष का मार्ग है अपने आपके आत्मा का यथार्थ विश्वास कर ज्ञान करना और उस ही स्वरूप में मग्न होना । इस रत्नत्रय के प्रसाद बिना मुक्ति का लाभ नहीं हो सकता है । अपने आपको अपने कल्याण के लिए अपनी ही जिम्मेदारी समझकर अंतर में अपना शुद्ध परिणाम बना लेना चाहिए तब हमारा यह जीवन सफल है ।
परमब्रह्मस्वरूप की उन्मुखता का अनुरोध – भैया ! जो कुछ भी यहां दिख रहा है वह सब कुछ भी मेरा नहीं है । मैं तो शाश्वत ज्ञानज्योति मात्र हूं । इस ज्ञानज्योति के ज्ञान के अभ्यास में पहिले मोहवासना से वासित होने के कारण कष्ट मालूम होता है, किंतु ज्ञान का अभ्यास हो जाने पर सत्य आनंद प्रकट होता है । हमारा कर्तव्य है कि हम इस ही परमशरण अंतस्तत्त्व की ही चर्चा करें और इसमें ही लीन होने का यत्न करें । अन्य कुछ कल्पनायें इस जीव के क्षेम को करने वाली नहीं है । इस निश्चल ज्ञानस्वरूप की निश्चल धारणा होने पर निश्चलता ज्ञानदृष्टि में रहने के कारण यह सब झूठा चलायमान सा नजर आता है । हम अचलित परविविक्त आत्मतत्त्व में अपने उपयोग का निवास बनायें, यह परमयोग हमें सदा के लिये संकटों से मुक्त करा देगा । ऐसा यह परमनिर्वाण सदा मुक्त, सदाशिव, सनातन, ज्ञायकस्वरूप परमब्रह्म की दृष्टि के प्रसाद से प्राप्त होता है और यह दृष्टि हमारे किये ही होगी । अंत: ज्ञानस्वरूप, कारणसमयसार, परमब्रह्म के ज्ञान का हम निरंतर यत्न करें । इस ही पुरुषार्थ से हमारा मानव जीवन प्राप्त करना सफल होगा ।
* इति समाधितंत्र प्रवचन तृतीय भाग समाप्त *