वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 153
From जैनकोष
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति क: ॥153॥
1213- कर्मफल की चाह की विपत्ति से ज्ञानी की विविक्तता-
इस लोक में इस जीव को विपत्ति है तो एक कर्मफल चाहने की है। इच्छा और कर्मफल ऐसे मिलें ऐसा सुख हो, इंद्र होऊँ, राजा बनूँ, इत्यादि जो इच्छा आकांक्षा है वह ही इस जीव पर विपत्ति है। सम्यक्दृष्टि में और कौनसी कला उत्पन्न होती है जिससे कि वह सदा निर्व्यग्र रहता है। नरक का नारकी भी हो तो भी वह अंत: निर्व्यग्र रहता है। मारधार में लगा है, पिट रहा है फिर भी अंदर देखो तो एक निर्व्यग्रता है। क्यों है? उसको अपने सहज आनंदधाम का परिचय हो गया है। कौन है सहज आनंद धाम? यह मेरा निरपेक्ष सहज चित्प्रकाश मात्र यह स्वरूप। उसका प्रवचन होने से उसको विश्राम रहता, आराम रहता। जिस बालक को पता है कि यह मेरा घर है, यहाँ वहाँ खेलता है, किसी ने पीटा, कुछ किया, आखिर एक दम जब देखा कि आकुलता हो गयी, तकलीफ हो रही तो झट घर आ गया। अपनी तकलीफ को दूर कर लेता, तो ऐसे ही वह उपयोग विपाकवश यहाँ वहाँ कुछ थोड़ा बहुत गया भी, कहीं लगा तो वह देर तक बाहर नहीं लगता और कुछ व्यग्रसा होता, कुछ क्षोभ सा होता। तो उसकी निवृत्ति के लिए वह अपने घर आ जाता है। ऐसी प्रकृति है ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव की, जिसने यह समझ लिया कि मेरा आनंद, मेरा महत्त्व, मेरा ज्ञान, मेरा कल्याण सब कुछ मेरे स्वरूप में है मेरे स्वरूप से बाहर मेरा कुछ नहीं। किसी भी चीज की आशा, आश्रय, आकांक्षा है, सब इस जीव के क्षोभ के ही कारण होते हैं, शांति के कारण नहीं। क्षोभ भी होता है किसी ज्ञानी के, मोह से रहित ही तो होता है अविरत सम्यग्दृष्टि आदि कुछ गुण स्थानों तक वीतराग चारित्र से पहले वह मोहरहित ही तो होता है, क्षोभरहित नहीं होता। क्षोभरहित होता है सम्यक्चारित्र की पूर्ति में। तो न हो क्षोभरहित मगर उसका क्षोभ ऊपर ऊपर लोटने वाला होता है, भीतर बसा हुआ नहीं है, उसका कारण क्या है? बस सहज आनंदधाम का परिचय। कहीं लुट पिट गया तो झट अपने धाम में आ गया, बस उसका एक ही निर्णय है, कहीं कुछ रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा की बात आये तो झट थोड़ी देर में ही प्रतीति है, अभ्यास है ज्ञानी का, अंत: सहज ज्ञान स्वरूप की ओरअभिमुख होता।
1214- सहज आनंद के अनुभव के पौरुष का महत्व-
भैया एक बार प्रयत्न करके, पौरुष करके एक क्षण ऐसा तो प्राप्त कर लेना चाहिए कि जहाँ सहज आनंद का अनुभव बने, याने ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ज्ञेय हो, सहज ज्ञानस्वरूप ही जहाँ ज्ञेय बने तो वहाँ विकल्प नहीं दौड़ता। ऐसी स्थिति में स्वयं ही सहज एक आल्हाद का अनुभव होता है, वह चीज प्राप्त हुई तो ऐसी प्रतीति हो जाती है कि मेरा सब कुछ यह है, इसे नहीं मिटाता, इसमें बाधा नहीं डालता, और बाकी सारी बातें जैसी हों सो हों, छिदे-भिदे, जो बात बनती हो बने, परपदार्थ में बने, किंतु मेरी यह प्रतीति न मिटे बस एक ही आग्रह बन जाता है इस ज्ञानी जीव का। सब कुछ सह्य है, मगर अपने आपकी प्रतीति मिट जाय तो इसका बड़ा खोटा फल होता। वह सह्य नहीं इसको करणानुयोग में बताया है कि किसी जीव को एक बार सम्यक्त्व का लाभ हुआ और इतना ही क्यों, मुनि भी बना और उपशय श्रेणी में भी चढ़ा और 11 वें गुणस्थान पर पहुंचकर वीतराग भी हो गया और उसके बाद कषाय का उदय आता है और गिरता है, और गिर गिरकर मिथ्यात्व में आ गया तो उस मिथ्यात्व में कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन तक घूमे और बाद में फिर सम्यक्त्व जगे और फिर मोक्ष जाय। एक बार वीतराग दशा हो जाने पर भी, उपशांतमोह हो जाने पर भी, वीतराग छद्मस्थ हो जाने पर भी कहो प्रमाद बने, अपनी सम्हाल में नहीं आये तो ऐसी स्थिति हो जाती है। इतना ऊँचा पहुंचने पर भी जहाँ इतना खतरा आ गया, भला हम आप लोग कौनसी बड़ी चीज हैं। हम आप लोगों को तो बड़ी सावधानी रखने की आवश्यकता हैऔर उस सहज स्वरूप का अनुभव करने के लिये प्राण तक भी न्योछावर हों तो कुछ भी नहीं गया, उसने सब कुछ पाया। अपने भीतर पक्ष हठ कोई चीज या रागद्वेष भाव सुख आराम ये सारे त्यागे जाते, जाते हों और दृश्य सर्वस्व त्याग होने पर अगर एक अनुभूति की दिशा मिलती है तो उसका गया कुछ नहीं, उसने सर्वस्व पाया।
1215- दुर्लभ नरजीवन में सहजानंदमय सहजज्ञान के लाभ का अनुरोध-
भैया एक बार मनुष्य भव में सहजानंदमय सहज ज्ञान की प्राप्ति तो करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना अब तक संसार में भ्रमण करते करते चारों गतियों में खोटी योनियों में सब जगह भ्रमण करते करते यह जीव अब तक कष्ट में ही तो रहा। इसने क्या आनंद पाया? राजा भी हुआ, बड़ा धनी हुआ, शासन वाला हुआ, देव भी बना, पर आखिर इसकी बात रही क्या। एक बार तो संसार की जड़ मेटने का पौरुष कर लो। अधिक से अधिक यह ही तो बात होती है हर एक भव में मेरा नाम, मेरी ख्याति, मेरी प्रसिद्धि, मेरा यश, मेरा परिवार, मेरा अमुक बने, ऐसे ही सोच लीजिए कि मानो हम इस मनुष्य पर्याय में न होते और किसी पर्याय में होते, क्या हुए न थे, तो उस पर्यायों में रहते हुये मेरे लिए यहाँ का दिखने वाला समागम क्या चीज थी? यह दृश्य कुछ ज्ञान मेंरहता क्या? यहाँ मूढ़ता न करें तो क्या बिगाड़ होता है? जैसे और भव गुजर गये वैसे ही यह भी गुजर जाने वाला है। अगर एक भव में एक मूल बात पा ली जाय अपने सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव बन जाय तो उसने सब पा लिया। और एक यह आत्मा के इस सत्य आनंद का परिचय नहीं होता तो जैसे अंत भव बीते वैसे ही एक यह भव भी बीतेगा, हाथ कुछ न आयगा। परिश्रम तो किया जायगा बहुत, अपने आपमें उधेड़ बुन तो सारी जिंदगी कर ली जाएगी पर फल रहेगा जीरो (0) तो भाई ऐसा दुर्लभ नर जन्म पाया, जैन शासन पाया, बुद्धि पाई तत्त्व विचार का हम सबमें सामर्थ्य हुआ तो यह सब होने पर इसको सफल बनने का भी कुछ सोचें। अपनी एक यह प्रकृति बने कि हम कर्म करते, कर्म हो गये, मगर उस कर्म के फल को न चाहें, इसके एवज में मुझको ऐसा मिले, मुझको ऐसा बने, ऐसा कर्मफल नहीं चाहना।
1216- कर्मफलपरित्यागशील ज्ञानी संत की अद्भुत अंतर्दशा-
जिसने फल का परित्याग किया, वह कर्म करता है, यह ही हम विश्वास में नहीं ले पाते, क्योंकि फल की बात जिन्होंने तज दी उनकी कर्म में आसक्ति कभी नहीं हो सकती। कर्म में आसक्त वह ही होता है जो उससे कोई फल की आशा रखता है। तो जिन ज्ञानी जनों ने फल का त्याग कर दिया वे कर्म करते हैं इति न प्रतीम: विश्वास नहीं आ रहा कि वे कर्म करते हैं फिर भी इस ज्ञानी जीव के किसी कारण कुछ भी कर्म विवश होकर आये, योग ऐसा बने कर्म करना पड़े, तो ऐसी स्थिति में यदि कर्म उस पर आ पड़े तो वे ज्ञानीजन क्या करते हैं, क्या नहीं करते हैं। इसकी व्याख्या करने का अधिकार मिथ्यादृष्टियों को नहीं, वे पार नहीं पा सकते। अकंप परम स्वभाव में ठहर रहा वह ज्ञानी। वहाँ दृष्टि हैं, अपने आपके स्वभाव में, यह मैं हूँ, इस प्रकार का अनुभव करने की उसकी आकांक्षा रहती है। एक ही निर्णय हैं। उसका निर्णय बदलता नहीं, अचलित है। बस कल्याणमय है यह स्वभाव। आराम है वास्तविक तो इस ज्ञानस्वभाव के आश्रय में है। ऐसे निर्मल ज्ञानस्वभाव में ठहरा हुआ ज्ञानी क्या करता है, क्या नहीं करता है। इसको कोई दूसरा क्या जाने? याने जिन्होंने अनुभव नहीं किया सो क्या जानें? यह तो बात ज्ञानी की है, मगर लोक में कहते हैं ना कि ‘‘जाकी फटी न पैर बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई?’’ एक ही नहीं, ऐसी-ऐसी अनेक कहावतें हैं। जिसको खुद का अनुभव नहीं वह दूसरे का अनुमान क्या कर पायेगा? ज्ञानी ज्ञानी की अंतवृ्त्ति का अनुमान कर सकता है कि वह क्या किया करता हे अपने अंतर में? इसे ज्ञानी ही जान सकता है कि वह क्या किया करता है अपने अंतर में? इसे ज्ञानी ही जान सकता, अज्ञानी नहीं।
1217- अपनी-अपनी सम्हाल का प्रताप-
ज्ञानी की वृत्ति जानने और न जानने से भी क्या? अपनी-अपनी सम्हालो, अपनी-अपनी सम्हालोगे तो सबकी सम्हाल हो सकती, और कोई अपनी तो सम्हाल न करे, दूसरों के सम्हाल की बात सोचे तो उनमें से कोई नहीं सम्हाल सकता। अपनी अपनी सम्हाले कोई दो चार लोग भी तो कम से कम सम्हालने वालों की गिनती तो बनी। और अगर सभी लोग यही सोच लें कि एक हम न सम्हले तो क्या हुआ, हम तो दूसरों की सम्हाल करते, तो इस तरह से सम्हालने वालों की कुछ गिनती भी न आ सकेगी। यदि अपने आप पर करुणा उपजी हो तो उसका एक कर्तव्य है कि वह अपने आत्मा की सम्हाल करे। सम्हालने के मायने सहज निरपेक्ष स्वयं अपने आप अपने में जो भाव है पारिणामिक भाव, जो अपना वास्तविक तथ्य है उस रूप अपने को अपने में मान लेता कि मैं यह हूँ, उसके सारे काम सिद्ध होंगे, मायने सब समृद्धियाँ बन पायेंगी, आत्मवैभव के सारे दृश्य इसके ऊपर गुजरेंगे, एक ही बात बनाना है, ध्येय एक ही है। अब देखिये- इस ध्येय में कहीं विवाद नहीं, इस ध्येय में कहीं उलझन की बात नहीं और इस ध्येय की पूर्ति होती है शुद्धनय के प्रयोग के बाद।। वहाँ वह शुद्धनय ऐसे इस अनुभव के नजदीक है कि वचनात्मक शुद्धनय हो तो नय का स्थान मिलता है और ज्ञानात्मक शुद्धनय का प्रयोग हो तो वह अनुभव का स्थान ले लेता है। इतना निकट है शुद्धनय में। परउसशुद्धनय पर पहुंचने के लिये प्राथमिक और उपाय भी नयात्मक विविध हैं। किसी भी प्रकार हो विभाव से उपेक्षा हो और स्वभाव की ओरउपयोग बने, बस यह ही काम करने का है। तो जिस घर में किसी परिवार में सबका भाव रहता है कि घर बने, आमदनी बढे़...सब लोग एक ही बात सोचते हैं और काम करते हैं लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के। महिलायें अपना घर का काम करती, पुरुष लोग अपने अपने काम करते। घर में जितने लोग हैं वे सब भिन्न-भिन्न प्रकार के काम करते, पर सबका लक्ष्य एक होने से उन सबका एक बड़ा अच्छा आवास रहता है। तो ऐसे ही ज्ञानी के विकल्प नाना प्रकार के हैं, असख्ंयाते विकल्प हैं सोचने के, चिंतन के, मनन के, चर्चा के, मगर सभी ज्ञानियों का लक्ष्य मात्र एक ही है कि अपने सहज ज्ञान प्रकाश में यह मैं हूँ, ऐसा परिचय बने, अनुभव बने, इसके सिवाय लोक में मेरा कुछ भी शरण नहीं है।
1218- स्वरूपानुभव होने पर अंतस्तत्त्वप्रापक कलावों की सुगमता-
जिन्होंने कर्म के फल का परित्याग किया उनमें सब कलायें आ जाती हैं। जिन्होंने स्वरूप का परिचय पाया उनमें ये सब कलायें आ जाती हैं जिनके बल से शुद्धनय प्राप्त होता है, सीखनी नहीं पड़ती। जिसके प्रतिभा जगी है उसको सब समाधान है, जिसके यह प्रतिभा नहीं जगी उसको समाधान नहीं मिलता, अंधकार रहता तो वह चिंता में र्किकर्तव्यविमूढ़ सा बना रहता है। बताये बताये, सीखायेंसीखायें किसी पर पार पाया जा सकता है क्या? खुद की जागृति, खुद का अनुभव, खुद का समाधान, खुद का आराम, खुद के स्वरूप की दृष्टि, इनके होने के लिए सिखाने बोलने चालने आदिक की आवश्यकता नहीं होती। मूल बात अपने स्वभाव का परिचय। गुरुजी एक घटना बताते थे इसी बुंदेलखंड की। शायद राजा छत्रसाल के संबंध में वह बात थी। बताया कि उनके पिता गुजर गए तो राज्य का साराअधिकार एजेन्ट लोगों के हाथ में आ गया। जब वह बालक छत्रसाल बड़ा हुआ तो उसकी माता( राजमाता) ने साहब को दरख्वास्त दे दिया कि हमारा बालक अब बालिग हो गया है, कामकाज सम्हालने लायक हो गया है सो उसे राज्य दे दिया जाय, तो साहब ने उत्तर दिया कि ठीक है, पहले उस बालक की बुद्धिमानी की परीक्षा होगी, यदि वह परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ तो उसे अवश्य ही राज्य दे दिया जायगा। परीक्षा का दिन निश्चित कर दिया। उधर राजमाता ने अपने बालक को दसों बातें समझा दिया, बेटा यदि बादशाह यों पूछे तो यों उत्तर देना, यों पूछे तो यों उत्तर देना, वहाँ उस बालक ने कहा- यदि इन सब दसों बातों में से कोई भी बात न पूछा, कोई अन्य ही बात पूछा तो क्या उत्तर देंगे? तो बालक का यह तर्कणापूर्ण प्रश्न सुनकर राजमाता अत्यंत प्रसन्न हुई और बोली- बेटे अब मैं समझ गई कि तुम जरूर साहब को सही उत्तर देकर आवोगे, क्योंकि तुम्हारे अंदर प्रतिभा है तर्कणाशक्ति है। आखिर हुआ क्या कि जब वह बालक साहब के सम्मुख परीक्षा देने पहुँचा तो वहाँ साहब ने पूछा तो कुछ नहीं, सिर्फ उसके दोनों हाथ जोर से पकड़ लिया और कहा- बोलो बेटे अब तुम क्या कर सकते, क्योंकि हमने तुम्हारे दोनों हाथ जकड़ रखे है? तुम पराधीन हो गये तो बालक बोला- महाराज अब तो मेरा सारा काम बन गया। क्योंकि आप अब मेरे अधीन हो चुके। अरे कैसे?...देखो विवाह में भाँवर पड़ते समय लड़का लड़की का एक हाथ पकड़ लेता तो उसे उसकी जीवन भर रक्षा करनी पड़ती, आपने तो मेरे दोनों ही हाथ पकड़ लिए, अब तो मैं सदा के लिए रक्षित हो गया। बस साहब ने ऐसा प्रतिभापूर्ण उत्तर सुनकर उसे राज्य दे दिया। तो जिसे अपने अंतस्तत्त्व का अनुभव हुआ है उसके लिए सारा समाधान सही है। चाहे न अधिक जानते हों, न ही अधिक पढ़े लिखे हों तो कुछ भी बात नहीं है मगर अनुभव ऐसी वस्तु है कि अनुभव के पाने के बाद अपनी तोतली भाषा में किसी भी बात में वह बात कह सकता है, सब अनुभव के अनुरूप जितना बोला जा सकता है बोलेगा, तो अपना प्रभाव, अपना विकास, अपनी उन्नति मात्र अपने सहज स्वभाव के आश्रय में है। दूसरी कोई बात ही नहीं है। ज्ञानी करता भी है सब बात, मगर बार बार उन सब कार्यों से लौट-लौटकर अपने आपके स्वभाव के आश्रय का पौरुष करता है।
1219- सहज स्वभाव की भक्ति का एक प्रयोग- भैया एक बार तो सहज स्वभाव की भक्ति में सर्व जीवों में वही स्वभाव परखकर एक समान सर्व के प्रति उस स्वभाव भक्ति का भाव जगना चाहिये। है स्वरूप सबमें यही। तो जिसको जिसकी धुन लगी है उसे प्रथम वही दिखता है। जिसको उस स्वभाव का परिचय हुआ है, उसका दृढ़ अभ्यास बनाया है उस जीव को प्रथम वही दिखेगा। वही स्वरूप स्वभाव और बाद में फिर अटपट उस ढंग से निरखेगा कि हो क्या रहा है? यह सहज परमात्मा भगवान यह क्रीड़ा कैसे बन गया है यह सहज अंतस्तत्त्व यह पेड़ के रूप में इस तरह है। बाद में अटपट बातों की चर्चा होगी, मगर सर्वप्रथम उसे स्वभाव ही इष्ट होता है। तो एक बार सर्व जीवों के प्रति अपने उपयोग से, अपने ज्ञान से ऐसी समता में आइयेगाकि जहाँ किसी भी एक जीव के प्रति विकल्प न हो, भेद न आये और एकेंद्रिय, निगोद से लेकर सिद्धपर्यंत समस्त संसारी जीव और मुक्त जीव में उस जैसे दृष्टि को निहारकर एक बार अंतस्तत्त्व के उद्यान में विहार तो हो जाय, यह काम देगा। यह वैभव या लोक की ओर और बातें ये कुछ काम नहीं देते। बल्कि ये विकल्प के साधन बनते हैं आश्रयभूत होकर। 1220- सर्व स्थितियों में स्वभावाश्रय का अभियान-
भैया, अभ्यास बनायें अपने आत्मस्वरूप के निरखने का। व्याख्यान दें तो वहाँ भी यही निरखना, व्याख्यान सुने तो वहाँ भी यही निगाह रखना, प्रत्येक बात में इस ही आत्मस्वभाव का आश्रय हो।कोई भी उपदेश हो, कोई भी चर्चा हो, सबमें अर्थ इस अभिमुखता के साथ चले जिससे कि स्वभाव का परिचय और आश्रय बनता हो। चाहे उल्टी ही बात कही जा रही हो, पाप की बात कही जा रही हो, व्यसन की बात कही जा रही हो, यह नरक गया, इसने ऐसा व्यसन किया, तत्काल नजर आना चाहिए कि ये ही विभाव हैं इस अंतस्तत्त्व भगवान के अनुभव के बाधक। इन विभावों से हटें, ऐसे पापों से हटें, उनके विकल्प से दूर हों तो वहाँ ऐसी पवित्र भूमिका बनती है कि यह स्वभावाश्रय करने का पात्र बनता है। आगम में सभी तरह के उपदेश हैं और सभी उपदेशों से यह शिक्षा लेना है कि किस प्रकार हम इस जानकारी से अपने सहजस्वभाव की ओर आते हैं। जिनको यह निरपेक्ष आनंद मिला, स्वतंत्र, स्वाधीन, निरंतराय, जिसमें पर का प्रवेश नहीं, अपने आपमें ही अपने आपके स्वयं के आश्रय से इतना सुगम यह और सहज परम आनंद जब अनुभव में हुआ तो ऐसा अनुभव अमृत पाकर विषय विष रस को पाने की कौन वांछा करेगा? ऐसा अपना ज्ञानामृत का पान करके, उसका लौकिक आनंद लूट करके फिर बाहरी इंद्रिय मन के विषय साधनों में कौन आसक्ति करेगा?
1221- कर्मफल चाह त्याग कर सर्व स्थितियों में कर्म से उपेक्षा करके अंतस्तत्त्व को निरखने का अनुरोध-
इस छंद में, इस कलश में सर्वप्रथम यह बात बताया है कि जिसने फल का त्याग किया उसके भाव कैसे होते हैं? मानो भाषण दे रहे, प्रवचन कर रहे, उस प्रवचन के बीच यद्यपि प्रवचन की स्थिति ऐसी है कि थोड़ा श्रोताओं की ओर भी देखना होता, किसी से कहा तो जा रहा, मगर मात्र वही दृष्टि हो तो वहाँ फल की चाह कुछ न कुछ पैदा हो जाती है। ये ठीक-ठीक समझें, ये हमारी ओर ध्यान दें, ये हमारी ओर मुख करें, एक व्यक्तिगत भी स्थिति बन जाती है। इनको देखकर खास बोलना,...यों कितने ही विकल्प उत्पन्न होते हैं तो प्रवचन में एक यह भी बात आती है। मगर, प्रवचन धर्मोपदेश है, स्वाध्याय का एक भेद है। स्वाध्याय उसे कहते हैं जिसमें स्व का अध्ययन हो। यह तो और भी अच्छा मौका मिला कि प्रवचन के बहाने, श्रोताओं को संबोधने के बहाने अपने आपको सुनाते जायें, अपने आप पर घटित करते जायें और उस आनंद की वह छाया लेते जायें। सब जगह फल का त्याग करना और सर्व बातों का, सर्व उपदेशों का एक उद्देश्य, एक लक्ष्य यह ही लें कि अपने आपके आत्मस्वभाव का आश्रय करने के लिए इससे हमको क्या प्रेरणा मिलती है? तो इस तरह हमारी वृत्ति अपनी ओरहो, अनुभव बने, ऐसा जिसने अनुभव पाया वह ज्ञानी पुरुष अपने अकंप परम ज्ञानस्वभाव में ठहरा हुआ हो, कर्म आ पड़ें तो उनकी निवृत्ति के लिए वह क्या कर रहा, क्या नहीं कर रहा, उसको अन्य कौन जानता है? मूल बात यह है कि अपना यह निर्णय बनावें कि जगत में सार कुछ नहीं है। सार है तो अपने विशुद्ध निरपेक्षस्वरूप चित्प्रकाश में।यहाँ वहाँ के विकल्प न करें तो सहज आनंद अनुभव में आये। यह उपाय जिसको बना है उसको अपने आपके सहजस्वरूप का बनता है।