वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 162
From जैनकोष
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृंभणेन । सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगं विगाह्य ॥162॥
1276- ज्ञानबल से ज्ञानरूप होकर ज्ञानी का गगनाभोगरंग में ज्ञानवृत्तियों से सहज नाट्य- यह निर्जराधिकार का अंतिम कलश है। यह सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानरूप होकर इस सारे गगन को व्यापता हुआ नच रहा है अर्थात् समस्त पदार्थों को जानता हुआ, प्रतिभास लेता हुआ अपने उज्जवल तरंगों से यह विलसित हो रहा है। किस प्रकार ज्ञानरूप होता? पहले तो इसने नवीन बंध को रोका। कैसे बंध को रोका? भाव बंध को रोका। और, उस समय क्या रुक गया? द्रव्य बंध रुक गया, कैसे रुक गया? द्रव्य कर्म का जो बंध होता है वह आस्रवपूर्वक होता है। जहाँ जहाँ बंध है वहाँ आस्रव अवश्य हुआ है, जहाँ जहाँ आस्रव है वहाँ बंध हो अथवा न हो। ईर्यापथाश्रव होता है, वहाँ कर्मबंध नहीं। चूँकि बंध के चार भेद कहे- प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग, सो इस नाते से उपचार से बंध यों बना कि नाम तो वही है प्रकृति बंध, प्रदेश बंध, पर जहाँ स्थिति नहीं पड़ती वहाँ बंध नहीं कहलाता। याने एक ही समय का आस्रव होता है, दूसरे समय कर्म नहीं ठहरते। कहाँ? वीतराग दशा में, 11 वें गुणस्थान से लेकर 13 वें गुणस्थान तक। वह आस्रव क्यों होता था? नवीन कर्मों का आस्रव उदय में आये हुए कर्म का निमित्त पाकर होता था। तो उदय में आये हुए कर्म नवीन कर्मबंध के निमित्त कहलाते हैं, लेकिन उदय में आये हुए कर्म में नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्तपना बने इसका निमित्त होता है रागद्वेष मोहभाव। तो मूल आश्रय, आधार नवीन कर्मों के आस्रव का हुआ रागद्वेषमोह, और रागद्वेष मोह बनता है उस विभाव में उपयोग को एक बनाने से, ज्ञान करने से। संसार परंपरा का कारणभूत बंध इस तरह होता है। इस ज्ञानी जीव ने अपने ज्ञानबल से अपने आपमें सहज निरपेक्ष सत्त्व के ही कारण मात्र अपने में अंत: प्रकाशमान अंतस्तत्त्व को निरखा, उसमें ही यह मैं हूँ, इस प्रकार का अनुभव पाया, अब वहाँ ही उसकी लगन है, उस ही रूप अपने को विश्वास में रखता है तो ऐसा एक अंतर का ज्ञानबल बढ़ाने से अब नवीन बंध नहीं हो रहा। कौनसा नवीन बंध? इस ज्ञान के प्रताप से जो अज्ञान मिटा, मिथ्यात्व दूर हुआ तत्कृत अब उसके बंध नहीं होता। 1277- अध्यात्मलक्ष्य में ज्ञानी का अंतस्तत्त्व के प्रति उपयोग-
देखो भैया, यद्यपि यहाँ प्रकृतियों का बंध है तो भी बंधों को चित्त में मत लावो। जब अध्यात्मशास्त्र के उपदेश उद्देश्य में एक आध्यात्मिकता का उपयोग बना रहता है तो अन्य को ध्यान में लेना यह एक आध्यात्मिक ढंग का भंग करना होता है, तो है तो सही, बंध चलेगा कर्म प्रकृतियों के आने से किंतु जब तक आत्मतत्त्व में उपयोग लगाने का मूड़ है तब अगल-बगल की चीजें कारण होते हुए भी ध्यान में नहीं लायी जातीं। जहाँ ये रागद्वेष मोह न रहे, उनमें लगन न रही, भेद कर दिया तो नवीन कर्म का बंध रुक गया, और तब अपने निज 8 अंगों से संगत होने से निर्जरा बढ़ती और प्रकृतिक्षय होता। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप में नि:शंक है। सम्यग्दृष्टि के स्वरूप के अलावा और कुछ चाह नहीं, स्वरूप में ही लगन, स्वरूप के अतिरिक्त अन्य में उलझना नहीं, स्वरूप के अतिरिक्त अन्य बात में कभी मोह नहीं, स्वरूप का विकास ही बढ़ाने का जिसका एकमात्र लक्ष्य है, स्वरूप में स्थिर होने का ही पौरुष है, स्वरूप का प्रेम है, स्वरूप की ही प्रभावना है, ये सारी बातें होकर भी आखिर एक ही बात है। इन अष्ट अंगों से संगत होने से अब निर्जरा का वेग बढ़ा और निर्जरा होने से पहले बाँधे हुए कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं, कर्म का क्षय होवे, निर्जरा होवे, द्रव्य कर्म में अड़चन आये उसके निमित्त हैं आत्मा के शुद्धभाव अपने स्वरूप को निरखें, उसका आश्रय लें, जिसके कारण होगी कर्मों की खलबली, कर्मों का नाश, कर्मों का निर्जरण, सब यथाविधि होता रहेगा। अपना तो लक्ष्य एक स्वभाव का आश्रय करना है। तो निर्जरा उज्रंभण हो, उत्तरोत्तर विशेष विशेष निर्जरा हो, असंख्यातगुणी निर्जरा, गुण श्रेणी निर्जरा। जिस जिस पद में जिस प्रकार संभव है उस निर्जरा के वेग से प्रकृतियों का क्षय होता है।
1278- निर्जरोज्जृंभणपूर्वक प्रकृतिक्षय- जरा यहाँ कुछ कुछ प्रकृतियों की भी बात समझते जायें। जो बँधे हुए कर्म है उनमें किसी भी प्रकार का क्षय होता है तो ऐसे ही नहीं हो जाता। निर्जरा होते होते जब उस प्रकृति की अंतिम फाली की भी सर्वसंक्रमण होकर निर्जरा होती है तो उस प्रकृति का क्षय कहलाता है। तो निर्जरण मायने उसे क्षीण करना, उसके बहुत से अंग नष्ट हो जाना, ऐसा होते-होते प्रकृति का क्षय होता है। जैसे जहाँ जिन प्रकृतियों का क्षय हुआ 12 वें गुणस्थान के अंत में तीन घातिया कर्मों का क्षय हुआ, 10 वें गुणस्थान के अंत में मोहनीयकर्म का क्षय हुआ तो एकदम पूरे का किसी समय क्षय नहीं हुआ, किंतु सम्यक्त्वकाल से ही उन प्रकृतियों में अंतर आता गया, निर्जरा होती गई, स्थितियाँ कम होती गई, अनुभाग के निषेक बदल गए, कम अनुभाग में मिलते गए, हर प्रकार से जब निर्जरायें चलीं तो होते-होते जब अंतिम निषेक पुन्ज समाप्त होता है तो उस प्रकृति का क्षय कहलाता है। ये सब बातें निमित्तनैमित्तिक भाव के अनुकूल होती रहेंगी अर्थात् आत्मस्वभाव का आश्रय करता है और साधु संत कितने ही ऐसे थे कि जिन्होंने पहिले कर्मसिद्धांत का कोई विशेष ज्ञान न रखा, परिचय नहीं किया, पर प्रयोजनभूत बात भली प्रकार हुई, वह भेदविज्ञान अपने सहज स्वरूप का श्रद्धान और उस ही में आनंद पाया, इस कारण उस ही में लगन, यह उनका एक बल था जिस बल से उत्तरोत्तर बढ़कर श्रेणी पहुँचा, वहाँ काम वही हो रहा है पुद्गलकर्म में झड़ने का, जितना कोई ज्ञान करके समाधि लेकर श्रेणी में चढ़े। यह सब एक निष्पत्ति दृष्टि से बात विदित होती है। कैसा यह सानिध्य मिले, किस जाति का, किस योग्यता का उपादान किया रूप परिणमे यहाँ तक व्यवस्था है सो यथायोग्य चलती रहेगी, मगर अपने आपको तो इन सब विपत्तियों से, संकटों से निपटाने के लिए एक स्वभावाश्रय का ही पौरुष चाहिए। फिर तो निर्जरा बढ़ी, प्रकृतियों का क्षय हुआ, तब क्या हुआ कि यह सम्यग्दृष्टि जीव बड़े अपने अतिरस से याने उस प्रतिभास की विशुद्धि से केवल जानन, ज्ञान ज्ञान ही रहा उस अत्यंत वेग से और ज्ञानमात्र, जिसकी न आदि है, न मध्य है, न अंत है। स्वभाव के अनुरूप एक है, उस विकास में स्वभाव की एकता नजर आती है, वह स्वभाव किस दिन से है, उसका बीज क्या है, उसका अंत क्या है? आदि मध्य अंत से रहित ज्ञानरूप हुआ। 1279- मोक्षमार्गदर्शन ॐ की मुद्रा- देखिये- ‘ॐ’ शब्द जो लिखते हैं उसका यह आकार हमारे मोक्षमार्ग को बतला रहा है। पहले लिखते 3 (तीन) का अंक, फिर उसमें लगाते एक — (डैस), उसके बाद लिखते हैं 0 (शून्य) और उसके ऊपर लगाते हैंॅअर्द्धचंद्र) और उस पर एक 0 (शून्य) रखते हैं, इस प्रकार उसकी मुद्रा बनती है- ‘ॐ’। अब इस ‘ॐ’ शब्द के 5 अंग हो गए। 3 (तीन) का अंक,— (डैस), 0 (शून्य), ॅ (अर्द्धचंद्र) और 0 (शून्य), तो यह ‘ॐ’ शब्द की मुद्रा हमें मोक्षमार्ग की सूचना दे रही है। कैसे? 3 (तीन) का अंक यह हुआ व्यवहारनय, इस व्यवहारनय से समस्त तत्त्वों का ज्ञान- बनाया प्रमाण से, नय से, निक्षेप से, हर तरह से तत्त्व का ज्ञान बनाते ना, तो प्रथम व्यवहारनय से इसका ज्ञान किया और 0 (शून्य) है निश्चयनय याने जिसका आदि, मध्य अंत नहीं वह स्वभाव से शून्य जहाँ आदि मध्य अंत नहीं होता। कहाँ उसकी शुरुवात, कहाँ उसका बीच, कहाँ उसकी आखिरी। तो ऐसे ही शुद्धनय का विषयभूत अखंड तत्त्व इसमें आदि मध्य अंत नहीं। उसका विषय करने वाला है शुद्धनय। ये दो नय सामने है- (1) व्यवहारनय (2) शुद्धनय अथवा परमशुद्ध निश्चयनय, ये दो नय अपने-अपने विषय को समझ रहे हैं, मगर ये अलग ही अलग बने रहें, जैसे कि लिखने में 3 (तीन) अलग है, 0 (शून्य) अलग है तो उसमें काम नहीं बनता। वह एकांत बन जाता। तो प्रमाण का डंडा (—) है बीच में, उस प्रमाण में दोनों नयों को साध रखा, निश्चयनिरपेक्ष व्यवहार उचित नहीं, व्यवहारनिरपेक्ष निश्चय भी इसको सम्यग्ज्ञान की बात न बतायेगा। एकांत बन जाता, तो प्रमाण ने उन्हें साध रखा। तो अब व्यवहारनय प्रमाण और निश्चय इन तीनों के ज्ञान में अपना अवसर था, पर किसी को गौण कर, किसी को प्रधान कर इस प्रकार ज्ञान में अवगाहन करता था। यह जीव जब प्रमाण और नय इनसे भी परे बनता है, दो को छोड़कर एक परे बनता मायने निर्विकल्प होता तो उसकी स्थिति बनती है क्या? अनुभूति। अनुभूति का प्रतीक है अर्द्धचंद्र। अनुभव में आया तो बस उस ही अनुभव की धारा बने, उसका फल यह होगा कि यह शून्य बन जायगा, दोषों से उपाधियों से रहित हो जायगा, सिद्ध बनेगा। यह मुद्रा हमें यह सिखाती है कि निराधार प्रमाण कोई चीज नहीं। कब क्या उपयोगी है उसमें अपना उपयोग जुटायें, और आखिरी बात यह है कि शुद्धनय का अवलंबन करें अनुभव प्राप्त करें, बस यही हमारे समस्त दोषों को दूर करेगा। 1280- ज्ञानभवनमहिमापरिचय की यथाशक्तिप्रयोगसाध्यता-
सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने में स्वरस के वेग से ज्ञानरूप हो रहा, ऐसा केवल प्रतिभासमान होना प्रयोगगम्य नहीं है यह बात कभी स्वयं ही अपनी शक्ति माफिक ज्ञानबल से, अपनी शक्ति माफिक पूर्ण प्रयोग करके अपने उपयोग को इस तरह ठहरायें कि यहाँ कोई भी बाहरी पदार्थ इस उपयोग में न आये और बने तो यह भी करें कि खुद का आत्मा भी ज्ञान में न आने दें, ऐसा होगा तो नहीं, क्योंकि यह उपयोग अपने श्रोत में कहाँ ठहरेगा, मगर आत्मा का हम जिन विकल्पों से परिचय करते हैं वह विकल्प अनात्मतत्त्व है, वह भी न आने दें यह मतलब है। कोई बाहरी पदार्थ भी न आने दें और किसी क्षण ऐसा पौरुष बन जाय, कुछ भी विकल्पों में न आये, वहाँ स्थिति ऐसी बनेगी कि जैसे मानो यह उपयोग नीचे को खिसकता, उतरता, कहीं ऐसी जगह आता है कि जहाँ कुछ होश नहीं रहता, जहाँ कोई विकल्प नहीं होता, और एक बिजली चमकने में तो देर लगी, पर अपने पद के अनुकूल बात बोल रहे हैं, याने हम आप जिस स्थिति में है उस पदवी के माफिक वहाँ क्षण भर को भी एक स्थिति होती है कि वहाँ कष्ट का नाम नहीं रहता, विकल्प का नाम नहीं रहता, और एक शुद्ध जाननमात्र एक अनुभव में होता है, यह तो है एक अनुभव की रीति। यह अनुभव अधिक समय जब स्थिर होता है और जिसके सर्व दोष दूर हो जाते हैं, जहाँ अरहंत अवस्था प्रकट होती है वहाँ क्या होता है? यह ही ज्ञान, इस समस्त आकाश रंगभूमि में अपना अवगाह कर ज्ञान द्वारा उन समस्त ज्ञेयों को जानता हुआ, निज स्वच्छ तरंगों में विलास करता है। ज्ञान अर्थ को कैसे जानता? बाहर जाता नहीं, भीतर में ही उसकी तरंगे उछलती हैं, अपने आपमें विकसित होता है। तो मानो यह एक निरंतर की विशुद्धि परिणति है। जहाँ षट्गुण हानि वृद्धि अंत: बनी हुई है और ऐसा होते हुए भी जहाँ इतनी हानि नहीं कि कोई सत् ज्ञेय से छूट जाय। इतनी वृद्धि नहीं कि कोई असत् भी ज्ञान में आ जाय, इस तरह एक अपने आपमें इन समस्त ज्ञेयों को व्यापता हुआ यह ज्ञान निश्चय कर रहा है, मायने सहज ज्ञाता बन रहा है।
1281- सर्वोत्कृष्ट सार तत्त्व की आदेयता-
सर्वोत्कृष्ट स्थिति है जीव की एक आनंद वाली आत्मा को निर्दोष परिणति है, जहाँ तक आत्मा में कलुषता है, किसी भी ढंग में हो, किसी भी नाम पर हो, मालिन्य है वहाँ तक इस जीव की भलाई नहीं, चैन नहीं। तो अपने को चाहिए आनंद, शांति, निर्दोषता। तो उस निर्दोषता को पाने के लिए हमें रागद्वेष विरोध मात्सर्य या अन्य अन्य बात जो जो कुछ जीवन में गलतियाँ चलती हैं, जिनसे चित्त में अशांति रहती है, अपने आपमें फिट नहीं बैठ पाते हैं, ऐसे उन दोषों का आदर न करें। भला उन दोषों को करने से क्या प्रयोजन है? जो मेरा ही विघात करें उन दोषों को क्यों आदर दिया जाय? खूब निरख निरखकर इस तरह से उनका विनाश करें कि पुन: आत्मा में प्रवेश न पा सके।अपने आपके स्वरूप की ओरअभिमुखता हो और उनका विनाश हो तो हम आपके लिए कोई भलाई का मार्ग मिलेगा, भलाई होगी, पूर्ण निर्णय रखें। मुझे उन ऐबों से, उन विभावों से, उन कषायों से मेरे को मतलब नहीं। वे तो मेरी बरबादी करने को आते, मेरे में वह बुद्धि जगे कि जिससे मैं अपने आपमें मग्न होऊँ या सब जीवों में समान स्वरूप का दर्शन करूँ।
1282- सर्व जीवों में स्वरूपदर्शन व आत्मरमण के पौरुष की महनीयता-
देखिये- एक मामूली प्रयोग- राग होता है ना, तो उस राग को खूब फैलाकर लाइये, मायने व्यापक बनाइये। राग आता है तो आप घर के दो तीन जीवों पर ही राग करके उस राग को केंद्रित मत बनावें। उस राग को सर्व जीवों पर फैलाकर उस राग का विनाश कीजिये। यदि उस राग को संकुचित करें, घर के दो जीवों पर ही अपना राग बनाये रहेंगे तो यह राग पुष्ट रहेगा, संसार संकट टलेंगे नहीं। राग होता है, राग बिना चैन नहीं पड़ती है, आपके मन की ही बात कह रहे हैं। नहीं छोड़ते राग तो ठीक है, राग किए बिना चैन नहीं पड़ती, मगर उस राग को सब जीवों पर तो लगाओ, घर के दो चार जीवों पर ही क्यों लगा रहे? सब जीवों पर उस राग को फैला दीजिए अर्थात् आप अपना वात्सल्य, अपनी प्रीति, अपनी रुचि, अपना राग बनाते हैं, अनुराग करते हैं तो सर्व जीवों पर अनुराग लाइये। ऐसा करके देखो तो सही। जब स्वरूपदर्शन होगा तब ही सब जीवों में समता की बात आयगी। और, वहाँ यह राग ध्वस्त हो जायगा। तो दो बातें चाहिए। बाहर में सब ओरकहीं भी दृष्टि जाय तो सर्व के स्वरूपदर्शन की बात आनी चाहिए। और, भली तो यह ही है कि यह इससे पार होकर मात्र अपने आपके ज्ञानस्वरूप में ही अपना ज्ञान उपयुक्त रहे। तो ये दो लीलायें हैं अध्यात्ममार्ग में। सब जीवों में उस ही स्वरूप का दर्शन करें। सबको स्वरूप में लाकर तत्त्व निरखें। सबका सहजस्वरूप यह है और अपने आपमें सर्व प्रकार की विकल्प बाधाओं को हटाकर बस और अधिक नहीं तो यहाँ से ही प्रारंभ करें, जो ज्ञान उसके जानने का काम करे उस रूप वह ज्ञान है क्या? कैसे जान रहा वह ज्ञान, इसका स्वरूप क्या? ज्ञान द्वारा ज्ञानस्वरूप को निरखते रहने पर ज्ञान अपने इस सहज ज्ञानस्वरूप तक आ जायगा। इस जानन पर्याय में परिणत इस ज्ञान का ही स्वरूप जब जानने लगा, यह जो जान रहा है सो यह जानन क्या कहलाता है। जानन नाम किसका है? उस ही जानन के स्वरूप को जानने बैठें तो हम उस आंतरिक ज्ञानस्वरूप में आ सकते हैं।
1283- सर्वसाम्य व स्वरूपरमण से आत्मसमृद्धि- सो भैया आत्महितार्थ दो ही काम करने के हैं। बाहरी जीवों में स्वरूपदर्शन, अंतर में अपने आपके ज्ञानस्वरूप में मग्नता का प्रयास। ये दो बातें सामायिक में या अन्य समय में बनायें और यह निर्णय रखें कि इसके अतिरिक्त जो फाल्तू बातें आती हैं। मेरा तेरा की कुछ भी बात हो वे सब बातें उपद्रव हैं। हमको तो दो ही बातों से प्रयोजन है।जीवों को निरखें तो सर्वजीवों में स्वरूपदर्शन हो। अपने आपको देखें तो केवल ज्ञानमात्र अपने अंतस्तत्त्व की ही अपने आपकी रुचि हो, अपने आपकी रुचि, अनुभूति प्रतीति ये सब अपने आपके प्रति ही बनावें। बस ये दो बातें हैं, इन ही में अपने कुछ क्षण व्यतीत हों। इनके लिए ही बाहरी कुछ बातें करनी होती, स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा आदि की। तो एक बड़े वात्सल्य से सर्व जीवों को एक समान मानकर, जैसे अन्य लोग कहते हैं कि सब एक हम ही हम हैं, अब किसमें हम द्वेष करें? तो यहाँ स्वरूप को देखो, सभी एक ही समान हैं, अब किनमें विरोध करना? तो बाहर देखो तो स्वरूपदर्शन, अंतर में देखो तो ज्ञातमात्र सहज प्रतिभा इस उपाय से एक अपने आपमें विभावों का क्षरण होगा। आयेंगे प्रतिफलन और यों ही निकल जायेंगे और ऐसा होते-होते हम पर जो भार लदा कर्म का, देह का, विभाव का, जैसा जब जितना भार हटना होगा उतना हट-हटकर कभी सिद्ध अवस्था प्राप्त होगी। करने का काम यह ही है कि अपना जो सहज चैतन्यस्वरूप है उसका भान करें, उस ही में अपने को तृप्त रखें,ऐसा पौरुष बने तो इसमें आत्मा का कल्याण है।