वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 175
From जैनकोष
न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांत: ।
तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥175॥
1408- रागादिकभाव की निष्पत्ति में आत्मा के निमित्त बनने की असंभवता-
इससे पहले वाले कलश में यह प्रश्न किया गया था कि यह तो जाना कि रागादिक भाव बंध के कारण हैं और यह भी समझा कि ये चैतन्य-तेज से अतिरिक्त भाव हैं, पर यह नहीं जान पाया कि इन रागादिक भावों के होने में यह आत्मा निमित्त है या कोई परवस्तु निमित्त है। ऐसा प्रश्न किया गया था, उसके उत्तर में यह कलश कहा जा रहा है। आत्मा कभी भी रागादिक के निमित्तभाव को प्राप्त नहीं करता। अर्थात् आत्मा के रागादिक भाव होने में आत्मा निमित्त नहीं है। मोटा दोष क्या है? अगर रागादिक भाव होने में आत्मा ही निमित्त बने तो जैसे आत्मा उपादान सदा है ऐसे ही यह निमित्त माना गया यह आत्मा भी सदा है, फिर तो विकार सदा ही रहना चाहिये और फिर इनके विनाश का कोई अवसर न आ पायगा। दूसरी बात स्पष्ट यह है कि किसी भी वस्तु के विकार में वही वस्तु स्वयं निमित्त नहीं होती अर्थात् अपना स्वभाव बिगाड़ने में खुद निमित्त कोई नहीं होता।
1409- अर्ककांतमणि के दृष्टांतपूर्वक विकार में परसंग के ही निमितत्व की सिद्धि-
जैसे अर्ककांतमणि का एक दृष्टांत है कि वह मणि सूर्य का सन्निधान पाकर आग बन जाती है। अच्छा, अर्ककांत मणि तो किसी ने देखा नहीं लेकिन इतना तो सब लोग देखते हैं कि सूर्यसंताप के सन्निधान में काठ गर्म हो जाता है, उससे अधिक गर्म पत्थर हो जाता, उससे अधिक गर्म सीमेंट का फर्श हो जाता, और बहुत अधिक गर्म डामर की सड़क हो जाती। ऐसे ही होता होगा कोई अर्ककांतमणि जो कि डामर से भी बढ़कर होता हो जो सूर्य का सन्निधान पाकर आग बन जाता हो। तो यह अर्ककांतमणि जो आग बनता है उसमें वह मणि खुद ही निमित्त नहीं है, ऐसा दृष्टांत देकर यह बात कह रहे हैं कि आत्मा के रागादिक भाव होने में यह आत्मा स्वयं निमित्त नहीं है किंतु ‘तस्मिन्नमित्त परसंग एव’, उन रागादिक भावों के होने में निमित्त पर का संग ही है। देखिये, इस प्रकरण से ये शिक्षा लेना है कि सबसे निराला स्वभाव अपना स्वरूप समझ में आये और उस स्वभाव का आश्रय मिले। इस प्रयोजन के लिए यह प्रकरण बहुत ही लाभदायक है।
1410- निमित्तनैमित्तिक योग और वस्तुस्वातंत्र्य का एकत्र दिग्दर्शन-
निमित्त-नैमित्तिक योग जहाँ होता है वहाँ यह न जानना कि निमित्त की परिणति से उपादान परिणम गया। यह तो त्रिकाल ही नहीं। यह बात तो द्रव्य के 6 साधारण गुणों से ही स्पष्ट है और आगे बढ़ने की जरूरत भी क्या? प्रत्येक पदार्थ में 6 ऐसे गुण हैं कि जो सभी में मिलेंगे। अस्तित्व गुण- जिस गुण के प्रताप से वस्तु की सत्ता है। वस्तुत्व गुण- अपने स्वरूप से रहे, पररूप से न रहे। देखिये, यही से ब्रेक लग गया, यही से नियंत्रण हो गया। और जब द्रव्यत्वगुण के बाद अगुरुलघुत्व की बात सुनो तो और स्पष्ट हो गया। साधारण गुणों के परिचय में ही यह बात बसी हुई है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमता नहीं। कोर्इ पदार्थ अपनी परिणति से दूसरे का परिणमन करता नहीं, मगर इसके साथ विकार-कार्य में निमित्त का मानना भी अत्यंत आवश्यक है कि कोई भी विकार हो तो उस विकार में निमित्त परसंग ही है। किसी पर उपाधि का सन्निधान हो, वहाँ ही ये विकार जगा करते हैं। यद्यपि पर ने विकाररूप परिणति नहीं की, मगर ऐसा ही एक सहज योग है कि अनुकूल निमित्त के सान्निध्य में योग्य उपादान विकाररूप परिणमन कर लेता। जब उपादान और उसके कार्य की ओर दृष्टि देते हैं तो यह भी नजर आयगा कि उपादान ने अपने परिणमन में निमित्त की उपेक्षा नहीं की, किंतु वह सहज योग रहा। इसी की अपेक्षा की ऐसा कह दें, मगर सत्य तो जानना चाहिए कि ऐसे-ऐसे प्रकरण में, ऐसे वातावरण में उपादान ने स्वयं अपने में अपना प्रभाव प्रकट किया है। जैसे रास्ते में चलते जा रहे हैं, कोई पेड़ खड़ा है सड़क के पास, वहाँ यह मनुष्य जाता है तो इसका शरीर छायारूप परिणम गया, फिर आगे गया तो धूप रूप परिणम गया तो कहीं यह छायारूप परिणमने के लिये पर की अपेक्षा नहीं करता, किंतु ऐसा ही सहज योग है, कि ऐसा निमित्तसन्निधान होने पर ऐसी योग्यता वाला उपादान अपने में अपना प्रभाव बनाता है। तो चूँकि निमित्त के अभाव में वहाँ रागादिक का प्रभाव नहीं हुआ इस कारण से यह ही कहा गया है और कुंदकुंदाचार्य ने इसकी गाथा में स्पष्ट कहा है कि परद्रव्य के द्वारा ही आत्मा रागादिक रूप परिणम जाता है, शब्द ये हैं, उसका भाव यह लेना कि परद्रव्य के अभाव में, परसंग के अभाव में विकाररूप परिणम नहीं हो सकता, ऐसा एक अनवय व्यतिरेक संबंध है। इससे यह बात जानना कि पर उपाधि के सन्निधान में इस जीव ने अपने में रागादिक विकार उत्पन्न किया।
1411- स्फटिकमणि के दृष्टांतपूर्वक विकार में परसंग के ही निमित्तत्व की सिद्धि-
विकार में परसंग की निमित्तता की सिद्धि के लिये आत्मख्याति टीका में गद्यटीका में स्फटिक पाषाण का दृष्टांत दिया है। जैसे स्फटिक पाषाण अकेला है तो परिणमन का स्वभाव तो उसमें है ही, प्रत्येक पदार्थ में परिणमन का स्वभाव होता है। तो परिणमन का स्वभाव होने पर भी स्वयं अपनी ओर से तो वह शुद्धस्वभावरूप है सो वह स्वयं अपनी ललाई में निमित्त नहीं बनता। अकेला पड़ा हो स्फटिक पाषाण, पर उपाधि का सन्निधान नहीं है तो स्वयं ही वह केवल परिणमने का स्वभाव रखता है, पर वह रागादिकरूप नहीं परिणम जाता। इस टीका में शब्दों में कहा जा रहा है कि स्वयं रागादिक का निमित्तपना न होने से यह स्फटिक पाषाण रागादिकरूप से, ललाईरूप से स्वयं नहीं परिणमता, किंतु ‘परद्रव्येणैव’ दूसरे द्रव्य के द्वारा ही वह रागादिकरूप से परिणमता है। अब यहाँ कोई दो द्रव्यों में कर्ताकर्मपना न समझ ले, जब इस प्रकार की शक्ति के साथ कहा गया है कि परद्रव्य के ही द्वारा यह स्फटिक पाषाण रागादिक रूप से परिणमता है, मायने लाल, पीले आदिक रूप बनता है, तो इस शब्द को सुनकर कर्तृकर्तव्य की कल्पना न कर लेना, इसके बीच में यह विशेषण दिया है कि अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ यह स्फटिक पाषाण रागादिक रूप से परिणम रहा है। यह बात एकदम स्पष्ट है।
1412- दर्पण के दृष्टांतपूर्वक विकार में परसंग के ही निमितत्व की सिद्धि-
अच्छा, स्फटिक की जगह यहाँ आप उदाहरण में दर्पण ले लो। यह दर्पण स्वयं तो शुद्धस्वभाव वाला है, तो स्वयं शुद्ध स्वभावरूप से ही बन रहा है और सामने आये हुए उस लाल, पीले कपड़े ने इसको लाल, पीला बना दिया हो यह बात तो नहीं है, फिर भी उसका सन्निधान पाकर यह दर्पण इस प्रकार लाल, पीला आदिक रूप बनने में अपनी शुद्ध स्वच्छता की व्यक्ति से च्युत हुआ और यह फोटोरूप परिणम पाया याने परिणमन इसका खुद का है। अच्छा, और ऐसा निमित्त योग बना क्यों? हुआ क्यों? यों निमित्त हुआ कि निमित्तभूत पदार्थ स्वयं रागादिकभाव से आपन्न (प्राप्त) है। श्री अमृतचंद्र सूरि के शब्दों में यह बात ध्वनित हुई कि ‘‘परद्रव्य के ही द्वारा’’ चूँकि वह परद्रव्य स्वयं लाल रंग से आपन्न है, वह कपड़ा स्वयं लाल है, सो उस परद्रव्य के द्वारा ही दर्पण शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ लालरूप में परिणमता है। वह इस दर्पण की लालिमा का निमित्तभूत है। कहते हैं ना कि अनुरूप कारण होना चाहिए, अनुकूल कारण होना चाहिए। जब एक प्रश्न होता है कि जैसे कोई कार्य हो रहा तो उस समय तो वहाँ अनेकों चीज उपस्थित हैं, सभी क्यों नहीं निमित्त कहलाते? कोई एक पदार्थ ही क्यों निमित्त कहलाता? तो जो कार्य होना है उस कार्य के अनुरूप ही निमित्त कारण होता है, उसका सन्निधान पाकर उस प्रकार का कार्य बनता है तो यह लाल कपड़ा स्वयं लालिमा से आपन्न उसके सान्निध्य में यह दर्पण स्वयं अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होता हुआ लालिमारूप से परिणम जाता है। देखिये, शिक्षा क्या लेना है? कि यह जो दर्पण लालरूप परिणमा है सो यह दर्पण का स्वरूप नहीं, दर्पण का स्वभाव नहीं, किंतु यह तो औपाधिकभाव हैं, अनुकूल निमित्त-सन्निधान में यह परिणमन बना है। यह दर्पण की चीज नहीं, तो दर्पण की स्वच्छता पर दृष्टि सहसा सुगमतया पहुँच जायगी। यह निर्णय होगा कि दर्पण तो अपने में एक स्वच्छतामात्र है।
1413-आत्मा के विकार में परसंग के ही निमित्तत्व की सिद्धि-
कुछ दार्ष्टांत परखिये। केवल यह आत्मा परिणमन का स्वभाव तो रख रहा है। यह तो प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है। तो परिणामनस्वभाव रखने पर भी स्वयं यह आत्मा शुद्धस्वभावरूप है, यह आत्मा अपने सत्त्व से, अपने स्वरूप से केवल एक दर्शनज्ञानसामान्यात्मक याने प्रतिभासमात्र है, जैसे कि प्रकाश तो प्रकाशमात्र है, अब यहाँ लाल, पीला, हरा आदि जिस रंग का बल्ब चढ़ा हो या जिस रंग का कागज चढ़ा हो, उपाधि का सन्निधान हो तो प्रकाश हरे, पीले रूप होता है मगर प्रकाश का स्वयं स्वरूप क्या है इस लाल, पीले आदिक से अलग? आत्मा का स्वयं का स्वरूप क्या है? शुद्धस्वभाव प्रतिभासमात्र, तो स्वयं शुद्ध स्वभावमात्र होने से यह आत्मा स्वयं अपने आपके रागादिक विकारों में निमित्त नहीं होता। तो स्वयं तो अपने विकार में निमित्त होता नहीं, तो हुआ क्या? परद्रव्य के द्वारा ही यह आत्मा स्वयं रागादिक रूप से परिणम गया। कितना इन वाक्यों में नियंत्रण है हर जगह, ताकि कोई इनको सुनकर किसी प्रकार की अटक न पाये। पर द्रव्य द्वारा परिणमा है तो यह आत्मा रागादिक विकाररूप, मगर यह स्वयं परिणमा। ऐसा वह परसंग एक सन्निधान है, वातावरण है, वहाँ यह आत्मा स्वयं रागविकाररूप परिणमा। मगर निमित्त खुद नहीं कहलाया, निमित्त परसंग ही है। कैसे परिणम गया? अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ परिणम गया। कहीं ऐसा नहीं है कि कर्मोदय आया और यह आत्मा तो स्वयं अपने शुद्ध स्वभाव से परिणमने का ही काम कर रहा और इन कर्मविपाक ने उसे अपनी शक्ति से, परिणति से इसको रागरूप बनाया हो। वह तो निमित्त है। परिणमा यह जीव स्वयं है।
1414- अनुकूल निमित्त का दिग्दर्शन-
वे कर्मविपाक स्वयं रागादिक भावों से आपन्न है मायने जो कर्म उदय में आये हैं वे कर्म जब भी बँधे थे कोई कोड़ाकोड़ी पहले सागर बँधे थे, कोई कभी बँधे थे, जिस काल में बँधे थे उस ही काल में उसमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग बंध हो गया था। प्रकृति बंध मायने ये इतने निषेक ये अमुक प्रकार की प्रकृति के हैं, ज्ञानावरण प्रकृति के हैं, ये राग प्रकृति के हैं आदि। प्रदेश मायने परमाणु। स्थिति मायने कितने दिन तक ये निषेक आत्मा में ठहरेंगे और अनुभाग मायने कितनी डिग्री तक वे फल देने की शक्ति रखेंगे। तो यह उन कर्मों में स्वयं अनुभाग पड़ गया था। जैसे कि कपड़ा लाल है और दर्पण के सामने आया, दर्पण लाल फोटोरूप बन गया, तो जैसे कपड़ा खुद लाल है ऐसे ही ये कर्मनिषेक खुद राग, खुद द्वेष याने इनमें प्रकृति वही पड़ी है, ये अचेतन हैं। कैसा कर्मनिषेक में रागविपाक है हम इस विषय में ज्यादह नहीं कह सकते हैं, क्या सूक्ष्म पर द्रव्यगत बात है मगर युक्ति बतलाती है, आगम बतलाता है, स्वयं कुंदकुंदाचार्य ने गाथाओं में बतलाया है ‘मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेवअण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा’। कषाय मिथ्यात्व आदि ये सब दो-दो हैं- जीव मिथ्यात्व, अजीव मिथ्यात्व आदि। कर्म में जो मिथ्यात्व प्रकृति है, प्रदेश है, अनुभाग है वह सब अजीव मिथ्यात्व है। तो अजीव मिथ्यात्व का उदय है, अजीव कषाय का उदय है। अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिक ये स्वयं कर्म हैं, इनका विपाक काल आया, बस यह तो कहलाया निमित्तपना, अब उस काल में यह जीव स्वयं अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ राग विकाररूप परिणम जाता है, यह हुआ नैमित्तिक कार्य।
1415- रागविकार के निमित्त का दृढ़तापूर्वक निर्णय-
यहाँ आचार्यदेव ने जोर इस बात पर दिया कि रागादिक विकाररूप यह जीव परद्रव्य के द्वारा ही परिणमा सो अपने कर्तव्य की बात इसमें कुछ मत लगाओ। यह मेरी चीज है, यह मेरा स्वरूप है, मैं इसे क्यों जाने दूँ, मैं इस राग की क्यों न रक्षा करूँ, आखिर हमारी ही तो चीज है। जैसे कि सोचते हैं ना माता-पिता, माँ अधिक सोचती कि आखिर यह मेरे पेट से ही तो पैदा हुआ लड़का है। क्यों न मैं इसे अपनाऊँ? क्यों न मैं इसे सुखी करूँ? अगर देश निकाला का आदेश दे दिया राजा ने उस लड़के के माता-पिता को तो वे माता-पिता सोचते- मैं अपने लड़के को भी साथ क्यों न ले जाऊँ, आखिर वह मेरा ही तो बेटा है। तो ऐसा यहाँ विकार के संबंध में न सोचना। यदि कोई विकार को अपनाये तो वह अज्ञान दशा की बात है कि ये रागादिक परिणतियाँ मेरी ही तो हैं, मैं इन्हें क्यों जाने दूँ, मैं इनकी क्यों न रक्षा करूँ। ऐसा उन रागादिक भावों में आत्मीयता का प्रतिषेध करने के लिए इस प्रकरण में बताया जा रहा है कि ये रागादिक भाव परभाव है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति में यह आत्मा खुद निमित्त नहीं है, परसंग ही इसमें निमित्त है, तो कहते हैं कि स्वयं जो रागभाव करके सहित है वह कर्मप्रकृति उसके ही द्वारा यह जीव शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ रागविकार रूप परिणम जाता है। जातु, तावद्, वस्तुस्वभाव:, एव, इन चार शब्दों को इस एक ही कलश में रखने से कैसा दृढ़ निर्णय बताया भली प्रकार से यह वस्तु का स्वभाव है, याने आत्मा में रागादिक विकार इसी प्रक्रिया से होते हैं। देखिये, वह सब निष्पत्तिदृष्टि से कथन चल रहा है। जब निर्णय किया जाता है वैज्ञानिक विधि से तो कैसे बना, कैसे क्या हुआ सब निर्णय लेना और जब यह निरखते हैं कि विशिष्ट ज्ञानियों ने तो जान ही लिया, यद्यपि जाना उन्होंने वही जिस विधान से जो बात हुई है, होगी, मगर जान तो लिया, अब उस जानन की ओर से देखें तो यह बन गया निर्णय कि जिस समय में जो बात होती है उस समय में वह बात हुई, मगर हुई किस विधि से, उस विधि का निर्णय निष्पत्तिदृष्टि से बनता है।
1416- रागादिकविकार में परसंग के ही निमितत्व का दृढ़ बोध होने पर स्वयं में विकार के अकारकत्व की सिद्धि-
परद्रव्य के द्वारा ही आत्मा रागादिकरूप से परिणत होता है। स्वभाव को जो पहिचान लेगा मायने रागादिक विकार जीव में जीव की ओर से जीव ही निमित्त बनकर नहीं होता, ऐसा जो जानेगा वही दृढ़ता से यह कह सकेगा कि मैं रागादिक भाव को करता नहीं। रागादिक भाव का कर्तृत्व मिटाने के लिए यह प्रकरण बहुत ही सहयोगी है, ऐसा यह स्वभाव है मायने एक पद्धति है, इस तरह होता है। इस बात को तावत्, एव, स्वभाव, जातु इन शब्दों में कहकर पुष्ट किया है। यहाँ कहीं यह न जानना कि दो द्रव्यों का वर्णन चल रहा है, घटना की बात कही जा रही है सो यह व्यवहार है और असत्य है। देखिये, व्यवहार कोई सत्य है, कोई असत्य है। कौनसा व्यवहार असत्य है? उपचार वाला व्यवहार। यहाँ तीन बातें समझना असत्य, सत्य और आश्रयणीय। प्रकरण में जो रागादि की निष्पत्ति की विधि कही है यह बात तो सत्य है, यह वस्तुस्वभाव है, रागादिक विकार इस पद्धति से बने, पर आश्रयणीय क्या है? इसके फलस्वरूप जो एक निर्विकार अखंड विविक्त चैतन्यस्वभाव दृष्टि में आये वह आश्रयणीय है, असत्य आश्रयणीय नहीं होता है, सत्य ही कोई आश्रयणीय है कोई नहीं भी है। सत्य को परसंबंधित सत्य, स्वसंबंधित सत्य और स्वपयोगी सत्य, तीन प्रकार में देखना। बाहरी पदार्थों में क्या हो रहा, किस तरह हो रहा, क्या घटना है, यह सब सत्य है, जानते ही हैं रोज-रोज चूल्हा जलता है, रोज रोज उस आग से रोटी सिकती हैं। सब बात जान रहे हैं कि क्या निमित्तनैमित्तिक योग है, अगर निमित्तनैमित्तिक योग नियत व्यवस्था में न हो तो रोज रोज अटपट विडंबना बने, आज तक तो रोटियाँ आग से ही सिकतीं रहीं, पर पता नहीं अब आग से सिकेंगी या धूल से या पानी से, या अन्य किसी चीज से? ऐसी भी कोई शंका करता है क्या? अरे !सभी के चित्त में निमित्तनैमित्तिक योग की नियत व्यवस्था घर कर गई है मगर ध्यान यह देना है कि इस निमित्तनैमित्तिक योग के प्रकरण में भी वस्तु सब न्यारी-न्यारी हैं, सब अपनी-अपनी परिणति से परिणमने वाली हैं।
1417- विकारनिष्पत्ति के तथ्य का उपसंहार-
विकार में ऐसा सहज योग होता है कि वह परसंग पाकर ही विकृत बनता है, मगर पर ने विकृत नहीं बनाया। जैसे उपादान खुद ही विकार से निमित्त होता तो वहाँ यह दोष आता है कि फिर तो ये विकार सदा रहने चाहिए, ऐसे ही निमित्त अगर विकार-परिणति करता है तो वहाँ भी यह ही दोष आता है फिर भी इसमें आत्मा का क्या उठता? वह तो उसकी मर्जी है, निमित्त तो पर का विकार परिणमन करने में स्वतंत्र है, वही विकाररूप परिणमा देता है तो बस उसकी मर्जी पर बात है सब। कदाचित् मर्जी आये निमित्त की, स्वयं विकार परिणमन न करायें तो छुट्टी मिल पायेगी, सो भला निमित्त ऐसा क्यों बुद्धू बने कि वह कभी विकार न परिणमाये, वह तो अपना कुल बढायेगा ही, तो ध्यान दोनों में देना, रागादिक विकार होने में यह आत्मा स्वयं निमित्त नहीं एक बात, दूसरी बात परद्रव्य का निमित्त सन्निधान पाकर ही यह जीव रागादिक विकाररूप से परिणमा है तो भी निमित्त ने रागादिकरूप नहीं परिणमाया, किंतु यह जीव स्वयं शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ उस प्रकरण में रागादिकरूप से परिणम गया है, यह एक निर्णय दिया। इस निर्णय से क्या शिक्षा मिलती और इस जीव का क्या भला होता और इसको किस ढंग से घटाना चाहिए, इन सबका उत्तर आगे के कलश में आयगा।