वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 18
From जैनकोष
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक: ।
सर्वभावांतर-ध्वंसि-स्वभावत्वाद-मेचक: ॥18॥
199―सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र बिना शांति की संभवता का अभाव―हम आप सब जीव हैं, आत्मा हैं अथवा ब्रह्म हैं, किन्हीं शब्दों में कहो, जानने देखने वाला एक चैतन्य पदार्थ है―तो उस आत्मा की बात चल रही है कि आत्मा वस्तुत: कैसा है और समझते समय हमको उसमें क्या-क्या परिचय मिलता है, इस प्रकार व्यवहार और परमार्थ दोनों प्रकार से परिचय को बात चल रही है । आत्मपरिचय करना, आत्मज्ञान करना शांति के लिए अत्यंत आवश्यक है । शांति का उपाय आत्मज्ञान, आत्माश्रय, आत्मरमण बिना अन्य नहीं है । कहां जाये? परपदार्थों में चित्त देते-देते तो अनंतकाल व्यतीत हो गया । इस मनुष्य जीवन के कितने ही वर्ष तो व्यतीत हो गए, पर अभी तक शांति पायी । क्यों शांत न हुए अब तक ? बहुत-बहुत काम, व्यापार करने के बाद भी, अनेक सुख के साधन जुटाने के बाद भी आज तक शांति प्राप्त न हुई तो इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि जहाँ शांति भरी है, जहाँ से शांति प्रकट होती है, और जो शांति का धाम है उसको नहीं तका, अभी तक नहीं समझा, उसमें रमण नहीं किया, उसका प्रयोग नहीं किया, और शांतिधाम निज तत्त्व को छोड़कर बाहरी-बाहरी पदार्थों का ही हम आश्रय करते रहे, उसका फल यह है कि जैसे हम पहले थे वैसे आज हैं, शांति नहीं प्राप्त हुई । तो ऐसे शांति पाने के उपाय के लिए अपने को बहुत त्याग की आवश्यकता है? कषायों के त्याग की आवश्यकता है, मोह के त्याग की आवश्यकता है । लोक में मेरे लिए मैं हूँ, मेरा उत्तरदायी मैं हूँ, मैं जैसा भाव करता हूँ वैसी ही बात सामने आती है । बाहरी पदार्थों के परिणमन किसी भी प्रकार परिणमों, परिणमें, उनसे मेरे को शांति अशांति की बात नहीं, परपदार्थ की ओर उपयोग जाने पर, अज्ञान बढ़ने पर, मोह होने पर, रागद्वेष की बुद्धि जगने पर यहाँ अशांति होती है । कभी ऐसा ज्ञान जगे, ऐसी वृत्ति बने कि पर का ज्ञाता द्रष्टा रहे, ये हो रहे भाव इसके जानन देखनहार रहे, उनमें रागद्वेष की वृत्ति न लगाये, तो इसको किसी प्रकार का कष्ट नहीं । मात्र जाननहार को कष्ट ही क्या हो सकता है ।
200―वस्तुस्वरूप की सही समझ बिना विपत्ति के अभाव की असंभवता―विपत्ति उस पर आती है―जिस पर हमारा अधिकार नहीं उस पर अपना कुछ अधिकार समझे । बच्चा मेरा है, यह मेरी बात नहीं मानता, कैसे नहीं मानता, उसको मानना चाहिए, नहीं मानता तो मोही कहता है गजब हो गया यह उसे अनहोनी मान रहा । अरे अनहोनी कुछ नहीं हो रहा, उसका ज्ञान, उसका ध्यान, उसका परिणाम उसमें ही है । उससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं । भले ही वह अपनी सुख शांति के लिए आपके अनुकूल चले तो भी वह अपने ही प्रयोजन के अनुकूल चल रहा, कहीं आपके प्रभुत्व के कारण अनुकूल नहीं चल रहा । सब जीव अपनी-अपनी शांति के अर्थ अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं, जब ऐसी बात है तो बस उनके मात्र जाननहार रहें, उनसे बोले तो फंसे । एक घटना सुनायी थी गुरुजी ने किसान किसाननी की । किसान तो कुछ मूर्ख टाइप का था और किसाननी चतुर थी । तो छोटे लोगों की प्राय: कुछ ऐसी ही आदत होती है कि वे कभी-कभी अपनी स्त्री को पीट लें तो उसमें वे अपनी शान समझते हैं तो उस किसान के मन में कई बार आया कि देखो विवाह हुए 15-20 वर्ष हो गए, पर मैं किसी भी बहाने से अपनी स्त्री को पीट न सका । अब तो कोई ऐसा बहाना निकालना चाहिए कि पीटने का मौका मिले । सो एक दिन क्या किया कि जब वह आषाढ़ में हल जोत रहा था तो हल जोतते हुए में एक तरफ बैल को औंधा जोता, एक ओर सीधा । यह सोचो कि स्त्री रोज की भांति खाना लायेगी, बैलों को ऐसा जोतते देखेगी तो कुछ तो बोलेगी ही―क्या ऐसे ही जोता जाता है? कैसे कुटुंब को पालोगे, क्या बैल को मार डालोगे यों कुछ तो कहेगी ही, बस पीटने का मौका मिल जायेगा । आखिर हुआ क्या, किसाननी रोज की भाँति खेतों में खाना लायी तो दूर से ही देखकर सब समझ गई कि उनके मन में क्या है । सो चुपके से पहुंची और खाना रखकर यह कहकर वापिस लौट पड़ी कि चाहे औंधा जोतो चाहे सीधा, इससे हमें कुछ मतलब नहीं, हमारा काम तो खाना पीना पहुंचाने का है सो यह रखा है, जाती हूँ । तो किसाननी चली गई । किसान दिल मसोस कर रह गया । तो भाई इस घटना से मतलब क्या निकला कि चाहे कोई उल्टा चले चाहे सीधा, उसमें हम हर्ष विषाद न माने, उसके मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहें । इस प्रकार की एक दृढ़तम साधना जब बन जायेगी तब अंतस्तत्त्व की अनुभूति के पात्र हम बन सकेंगे ।
201―अपने आपकी सम्हाल में सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन की संभावना―भैया अपने आपकी सम्हाल करें, अपने आपका परिचय करें, अपने आपका परिचय पहले करना है भेददृष्टि से और भेददृष्टि से परिचय करने के बाद फिर अभेद का परिचय करना कि मैं क्या हूँ जिसमें ज्ञान है जो जानता है सो मैं हूँ । अच्छा इसके आगे और बढ़े ओर भेद बनायें, जो विश्वास रखता है, जो जानता है और जो कहीं न कहीं लगता है, रमता है वह आत्मा है । आत्मा के प्रयोगात्मक तीन गुण हैं-क्या? सूझ, बूझ और रीझ । ये तीन बातें सबके अंदर चलती हैं । चाहे कोई किसी पद में हो, याने श्रद्धान ज्ञान और चारित्र सबको लगते । कोई चीज सूझ गई याने समझ में आ गई एक मार्ग निकल आया उसका अनुभव बना, श्रद्धान बना, बूझ मायने ज्ञान बना और रीझ मायने चरित्र अब कोई कषायों पर रीझा है तो वहाँ भी चारित्र चल रहा, पर वह मिथ्या चारित्र है । कोई अपने आत्मा के स्वरूप पर रीझा, अहा कैसा ज्ञानमात्र हूँ, भीतर आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि दें तो वहाँ एक प्रकाश चैतन्य ज्ञान ही ज्ञान ज्योति दिखी । सभी दार्शनिकों ने प्रयत्न तो किया है इस ही आत्मतत्त्व को समझाने के लिए, मगर थोड़ा स्याद्वाद का और सहारा लिया जाये तो वह बात अच्छी तरह से समझ में आयेगी । बताते हैं कुछ दार्शनिक कि चार बातें होती हैं―वे बतलाते हैं जागृति, सुषुप्ति, अंत: प्रज्ञ और तुरीय-पाद । कभी आपने देखा होगा एक जगह लिखा है, तो उसका अर्थ क्या है? तुरीय एक तत्त्व है, वह किस प्रकार? जागृत मायने बहिरात्मा । उनके आत्मा में वह बोल रहा, इच्छा कर रहा, समझ रहा वह जागृति है और सुसुप्ति का अर्थ वहाँ है―जहां व्यवहार में सो गया व्यवहार में यहाँ वहाँ उपयोग नहीं चल रहा, ब्रह्मस्वरूप में उपयोग ले गए । इस बात के लिए सुषुप्ति शब्द दिया । उनका अर्थ और तरह रखें तो सुषुप्ति हो गया बहिरात्मा और जागृत हो गया अंतरात्मा । मगर सबकी अपनी-अपनी एक रीति है । अंतःप्रज्ञ मायने परमात्मा । जो जाननहार है, सबका ज्ञाता द्रष्टा है, और तुरीयपाद क्या, वह जो इन तीनों में रहता है । यद्यपि इस तरह से विश्लेषण वहाँ नहीं होता और वहाँ एक जीव अलग चीज है, प्रकृति अलग चीज है, लेकिन मोक्ष की बात बतायी है कि यह जीव जब ब्रह्म में समा जाये तो मोक्ष होता है, उसका अर्थ लेना इस अभिप्राय से कि जीव मायने यह उपयोग जो चल रहा यहाँ वहाँ दौड़ रहा और तुरीयवाद मायने ब्रह्मस्वरूप, मायने इस ही जीव के अंत: बसा हुआ जो एक सहजस्वरूप है, जब कोई चीज होती है तो वह अपने ही स्वरूप से है, अपनी ही सता से है, किसी दूसरे की दया से नहीं है । जो-जो भी सत् है वह अपने आप सत् है । जो अपने आप सत् है तो उसका स्वभाव भी अनादि अनंत है । तो जो सहज स्वभाव है उस पर दृष्टि दिलाई जा रही कि आत्मा का जो सहज स्वभाव है चैतन्यमात्र, उस रूप में अपने को जो निरखता है, वह तो है अंतरात्मा और जो एकरस बन गया, निर्मल दशा हो गई वह हो गया परमात्मा ।
202―अपने स्वभाव का, वर्तमान परिणाम का व कर्तव्य का चिंतन―हम कहाँ हैं और क्या मेरा स्वभाव है और क्या मेरी हालत है और क्या होने में मेरा भला है, इन तीन बातों का तो निर्णय करना चाहिए मन इसीलिए है । मनुष्य का मन सबसे ऊँचा बताया गया है क्योंकि इस मन का यह बहुत ऊँचा उपयोग कर सकता है । हित अहित का विवेक कर सकता है । वर्तमान में मेरी क्या हालत है, वास्तव में मेरा क्या स्वरूप है और क्या होने में मेरा भला है । यहाँ ये तीन बातें ही तो समझनी है और इन तीनों बातों को अगर छोड़े, बाहर ही बाहर उपयोग को दौड़ायें तो समझो कि यह मानव जीवन यों ही खो दिया, लाभ कुछ न पाया । अपना व सबका भला करें । सच्चा ज्ञान बनावें मैं केवल एक हूँ, कोई दूसरा मेरा साथी नहीं । मैं केवल एक अपना ही जिम्मेदार हूँ । मेरा कोई दूसरा जिम्मेदार नही । जब कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं, तो फिर इस वर्तमान में पाये हुए समागम का क्या करें, जो चार दिन की चाँदनी है । जैसे―समागम भव-भव में अनेकों बार अनेक तरह के मिले उसी ढंग के समागम आज भी मिले, ये मिले तो इन समागमों का हम क्या करें? जब मेरा इनसे कुछ काम ही नहीं बनता, इनसे शांति, आत्मविकास, आत्मरमण परमतृप्ति जब इस बाहरी संग परिग्रह से कुछ काम ही नहीं बनता तो क्या करें इनका? कुछ अपने में खोजें मेरे स्वभाव में क्या और कैसा हो रहा? और मुझमें क्या होना चाहिए? मेरी वर्तमान स्थिति क्या है? यह तो बहुत जल्दी समझ में आ सकता । कोई मोही है, कोई रागी है, कोई द्वेषी है, किसी के परिग्रह का विकल्प लदा है, कोई कहीं अटका भटका है । किसी का कहीं मोह है, ऐसी परिणति चल रही, कोई क्रोध कर रहा, कोई मान कर रहा, कोई माया कर रहा कोई लोभ कर रहा, इस तरह की परिणतियाँ चल रहीं, ये सब इस जीव की दुःख की ही परिणतियाँ हैं ये सब आनंद के आवरण है । अरे कहां तो मेरा भगवत᳭स्वरूप है जो मेरा परम शरण है, और आज इसकी क्या स्थितियाँ बन रहीं ।
203―अपना इतिहास―जरा अपना इतिहास तो सुनाओ―हम आप सबकी सबसे पहली दशा निगोद की थी । यह बात केवल कहने मात्र की नहीं है । जिन वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि से हम आपके अनुभव में आ सकने योग्य, तर्कणा से सिद्ध हो सकने योग्य जीवादिक 7 तत्वों का परिचय जब बिल्कुल युक्तिसिद्ध सही-सही है तो ऐसा मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले वीतराग ऋषि, संत, महर्षिजन क्यों असत्य बोलेंगे? दूसरी बात―बड़े-बड़े अवधिज्ञानियों ने केवलज्ञानियों ने इस बात को प्रत्यक्ष किया है । निगोद जीव जो ऐसे सूक्ष्म होते हैं, जो किसी के आधार से भी हैं, अनंत निराधार भी हैं, अनंतकाल तो वहाँ गवां दिया । एक श्वांस में 18 बार वहाँ जन्म मरण किया । वहाँ से निकले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदिक एकेंद्रिय जीव बना । फिर वहाँ से जीव ने कुछ अपना विकास किया तो दो इंद्रिय जीव बना, केंचुआ, झोंक, लट आदिक दोइंद्रिय जीव हुआ । कुछ और विकास हुआ तो तीन इंद्रिय जीव हुआ । याने एक ऐसा जीव जो प्रगति करके रस का ज्ञान करने लगा, फिर गंध का ज्ञान करने लगा तीन इंद्रिय जीव बना । यह भी कोई मामूली विकास जीव का न समझें । फिर उस जीव ने कुछ विकास किया तो चार इंद्रिय जीव बना । नेत्रों से देखने भी लगा । फिर पंचेंद्रिय जीव बना कानों से भी सुनने लगा । कुछ और विकास किया जीव ने तो उसे मन भी मिल गया । मन उसे कहते हैं जिससे हित-अहित की शिक्षा ग्रहण कर सके कि यह करने योग्य, यह छोड़ने योग्य कोई चाहे न करे, सभी लोग प्राय: मन का ऐसा दुरुपयोग करते हैं कि इन इंद्रियों का ही पोषण कर रहे, जैसा रसना चाहती है, मन उसी में जुट गया । मन ने इन इंद्रियों का ही नाम बढ़ाया, पर इसने आत्महित के लिए कोई कदम नहीं उठाया । यह है अपना जीवन चरित्र । चतुर्गतियों में घूम घूमकर आज मनुष्यभव में आये हैं तो यहाँ भी वही स्वप्न देखते यह मेरा घर, यह मेरा परिवार, यह मेरा सब कुछ ।
204―मात्र अंतस्तत्त्व की आराधना में अध्यात्मसाधना―देखिये अध्यात्म साधना के प्रसंग में सिवाय आत्मस्वरूप के और कुछ ध्यान में न आना चाहिए । जिसे कहते हैं समाधिभाव, उत्तमध्यान परमतृप्ति की अवस्था । उसे पाने के लिए अपने ध्यान में केवल एक आत्मतत्त्व ही रहे उसे जाने, मेरा यह ज्ञान जानने का काम करता है । तो जिसमें ज्ञान नहीं, जो बाह्य पदार्थ हैं, जो परवस्तु हैं, उनके जानने में तो यह बन रहा शूरवीर । यह आविष्कार किया, वह आविष्कार किया । और यह खुद ज्ञान स्वरूप है, ज्ञान से ही रचा हुआ है, ज्ञान ही जिसका शरीर है, ज्ञान से ही भरा है, या ज्ञान ज्ञान ही आत्मा है । जैसे मिश्री क्या है । जिसमें मधुराई है उसका पिंड ही तो है यह, इसी तरह ज्ञानपिंड ही तो है यह जीव । जो ज्ञायकस्वरूप है उसे यह न जान सके यह एक अंधेर की बात है । यही तो गजब हो रहा । क्यों हो रहा कि इसने मोह रागद्वेषवश बाह्य पदार्थों में उपयोग लगाया । जरा अपनी स्थिति पर विचार करो, क्या हो रहा है । आयु गुजर रही है, मरण के निकट पहुंच रहे हैं, फिर अगले भव में जाना पड़ेगा । फिर इसका संबंध है क्या किसी के साथ? तो ऐसी अपने आप पर दया करके, पाये हुए परिग्रह में मोहभाव का त्याग करो, यह मोह और क्लेश करने का बहुत खोटा परिणाम है । ज्ञानी वही है जो पाये हुए वैभव में मोह नहीं रखता । जान लिया कि है यह भी । मोह न रहे, गृहस्थी में ऐसा तो हो सकता, पर राग बिना गृहस्थी में नहीं रह सकते । मोह तो कहते हैं मिथ्यात्व को, अज्ञान को । मोह में जीव पर को स्व मानता है और मोह जहाँ नहीं रहता वहाँ सब समझते हैं―यह मैं हूँ यह पर है, निज को निज पर को पर समझते हैं, मगर मुनिव्रत ग्रहण करने की शक्ति नहीं है, स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं, न एक आत्मध्यान में रत हो सकते हैं और विषय कषाय सताते हैं, तो गृहस्थी बनानी पड़ी, गृहस्थी बसा रखी तो उस गृहस्थी में गृहस्थी के योग्य तो काम करने ही पड़ेंगे, कमायी भी करनी पड़ेगी, जिसमें अनेक रागद्वेष भी चलते हैं । तो गृहस्थी में मोह के बिना तो चल जायेगा मगर राग बिना नहीं चलता । मोह और राग ये दोनों अलग चीजें हैं । मोह अलग चीज है राग अलग चीज है । राग भी जब छूटना होगा, छूट जायेगा, मगर वास्तविक तथ्य तो जान लें कि ये भी विभाव हैं, परभाव हैं । राग अन्य वस्तु है, विभाव है, क्योंकि कर्म पुद्गल अनुभाग की छाया माया है, उसका प्रतिफलन है, वह मेरा कुछ नहीं, मैं तो चैतन्य स्वरूप हूँ, तो परमार्थ से देखा जाये तो प्रकट ज्ञातृत्व भाव है उस दृष्टि से यह आत्मा एकस्वरूप है । कहते हैं ना, “तमसोमाज्योतिर्गमय” अर्थ तो इसका यह है कि अंधकार से हटाकर मुझे ज्योति में ले जाओ, अज्ञान से हटाकर मुझे ज्ञान में ले जाओ । अब अंतर यह रहा कि अपने से बाहर में किसी को देखकर उससे प्रार्थना करे कि मुझे अंधेरे से हटाकर ज्ञान में ले जाओ, एक तो वह पुरुष और एक वह जो एक अपने में इस ज्ञान स्वरूप को निरखकर, इस ज्ञानमय अंतस्तत्त्व को देखकर अपने स्वरूप से कहे कि मेरे इस उपयोग को मेरे अज्ञान परिणाम से अंधकार से हटाकर ज्ञानोपयोग में ले जाओ । आप बताओ संभव कैसे है कि हम अंधेरे से हटकर ज्ञान में आ जायें, बाहर की दृष्टि गड़ाकर विनती करने से यह बात संभव हो सकती है या अपने स्वरूप में दृष्टि गड़ाकर यह बात संभव हो सकती? तो यह आत्मा व्यक्त ज्ञातृत्व ज्योति के कारण एकस्वरूप है और कैसा है? समस्त भावांतरों को ध्वंस करने का इसका स्वभाव है, देखो विभाव लग जाते हैं यह एक परिस्थिति है, यह एक कर्मानुभाग का ऊधम है । कर्मानुभाग लद गया और यह जीव के उपयोग में आ गया, यह उसमें लग गया, कषायरूप अपने को मानने लगा, ये सब बातें हुई । मगर ये अपने ही भाव हैं कि भावांतर? रागद्वेष कषाय ये भावांतर हैं, इन समस्त भावांतरों को ध्वंस करने का इनका स्वभाव है ।
205―स्वभाव में भावांतरध्वंसशीलता―देखिये जो स्थिति बंधन की है । वह सिर्फ जबरदस्ती की एक बात है, मगर स्वभाव हो भावांतरों का विनाश करता है । जैसे किवाड़ पर लगाते ना जाली जैसा कुछ स्प्रिंगदार तो उसमें स्प्रिंग का एक पेंच ऐसा लगा दिया जाता कि जिससे किवाड़ बंद ही रहें, जब उन्हें हाथ से जबरदस्ती खोला तब तो खुल गये, नहीं तो याने हाथ छोड़ा फिर बंद हो गए । यह एक मोटा स्थूल दृष्टांत दे रहे कि उनका बंद रहने का स्वभाव सा है । जितनी देर को जबरदस्ती की है हाथ से खींचा है । उतनी देर को खुले हैं, और यह साधन हटा, यह निमित्त हटा, यह प्रयोग हटा तो ये बंद हो जाते हैं । तो इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव तो समस्त विभावों को ध्वस्त करने का है, उससे अलग बने रहने का है, मगर अपने बाँधे हुए कर्म के उदयकाल की परिस्थिति, निमित्त नैमित्तिक भाव, जहाँ प्रतिफलन हो रहा, उपयोग उस और चला गया, आश्रयभूत पदार्थों में हम जुट गए, स्थिति यह बन गई, फिर भी इस सहज परमात्मतत्त्व का आशीर्वाद है कि हम सदा उपयोग के निर्मल करने पर ही तुले हैं । जैसे कोई कुपूत होता है, दसों अपराध करता है तो कितने ही अपराध करने पर भी माता का हृदय कहता है कि हम तो तुम्हारे हित के लिए ही सदा भाव रखे हैं, तो जैसे पुत्र माता को तकलीफ दे, फिर भी माता उस पुत्र का अहित नहीं सोचती, ऐसे ही यह सहज परमात्मतत्त्व, हम आप आत्माओं का स्वरूप यह तो कल्याण के लिए ही तुला हुआ है, कल्याणमय है । यह कभी विकारी नहीं बनता स्वरूप में । स्वरूप में कभी कोई द्विविधा नहीं आई, द्वैतता न आये, यह एक स्वभाव ही वर्तता रहे । जो समस्त भावांतरों का भेद न करने का स्वभाव है ऐसे इस चैतन्यस्वरूप की ओर से देखें तो आत्मा एकरूप है, नानारूप नहीं । अब परिचय में चलते हैं तो आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है, ऐसा परिणमन है, ये सब बातें वहाँ परिचय में मिलती हैं, मगर मूल में वह अंतस्तत्त्व का क्या है, है और परिणमता है । द्रव्य और पर्याय कभी नहीं छूटते । ये सदा हैं । व्यक्तिगत पर्याय सदा नहीं मगर पर्याय बिना वस्तु नहीं । तो वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, इसी आधार पर स्याद्वाद चलता है । इसका आधार इतना पुष्ट है तो स्याद्वाद चलना ही पड़ेगा । जब द्रव्य द्रव्य को जाने पर्याय को न जाने तो पूरा वस्तु नहीं पहिचान में आया । ऐसे तो बहुत से लोग कहते हैं, ब्रह्म को कहते हैं कि ब्रह्म है, अपरिणामी है, परंतु प्रयोग में क्या आया? यहाँ कोई चीज हासिल नहीं हुई कोई ब्रह्म को पर्यायरहित माने केवल द्रव्य द्रव्य की बात सोचे, पर्याय की बात न सोचे तो स्याद्वाद नहीं बनता प्रमाण नहीं बनता और कोई पर्याय पर्याय की ही बात सोचे, पर्याय ही सब कुछ हैं, द्रव्य कुछ नहीं है, पर्याय स्वतंत्र है, अपने आपमें वह पर्याय ही सब कुछ है, द्रव्य का संबंध कुछ न जोड़े तो पर्याय कहाँ से आ गया द्रव्य बिना, उसी अन्वय में यह व्यतिरेक चलता रहता है । द्रव्य की बात छोड़ दें, पर्याय को ही स्वतंत्र मान लें तो ऐसा मानने वाले तो बौद्ध भी हैं, वे मानते हैं कि आत्मा क्षण-क्षण में बदलता है, वह एक क्षण ठहरता है, दूसरे क्षण नहीं ठहरता । द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु है और फिर उसी के आधार पर स्याद्वाद चलता है । द्रव्यपर्यायात्मक के संबंध को तजकर स्याद्वाद नहीं चलता । तो हम अपने को विस्तार से जानें, संक्षेप में जानें, खूब विकल्पों को हटाकर जानें और सारे विकल्प तोड़कर गुम्म सुम्म होकर एक प्रयोगात्मक विधि से जानें, यह सब हमको जानना है अपने स्वरूप की बात, वहाँ ही तृप्त होना है, वहाँ ही मग्न होना है, यहाँ ही लीन होना है, इसमें ही हमारा कल्याण है, बाहरी बातों के प्रसंग से हमको कुछ भी लाभ नहीं है ।