वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 31
From जैनकोष
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो विभ्रदात्मानमेकम् ।
प्रकटित-परमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तै: कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्त: ।।31।।
301―उपयोगस्वरूप आत्मा की अन्य सर्व भावों से विविक्तता―एकेंद्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय तक तो यह जीव अत्यंत विवश है । कुछ विवेक ही नहीं कर सकता । संज्ञी पंचेंद्रिय होने पर विवेक करने की शक्ति जाग्रत होती है । और उन संज्ञी पंचेंद्रियों में भी इस मनुष्य का मन सबसे उत्तम कहा गया है ऐसा मनुष्यभव पाकर हमको करना क्या है, इस बात को आज बड़े ध्यान से सुनो । पहले तो यह समझें कि मैं जीव हूँ । क्या हूं? चेतन हूँ, अर्थात् जिसका स्वरूप एक मात्र चेतना है, प्रकाश है, प्रतिभास है, जिसका कि अपने आप यह कार्य है कि जो है सो ज्ञान में झलके । ऐसा मैं एक चैतन्य पदार्थ हूँ, अब उसका स्वरूप हो गया ना यह चैतन्य, जिसमें प्रतिभास झलक होती हो उसे कहते हैं सर्व विविक्त चैतन्य पदार्थ । लो इसका काम तो इतना ही है ना―प्रतिभास होना, झलक होना । जैसे एक स्वच्छ दर्पण है तो उसका कार्य क्या? प्रतिबिंब होना, झलक होना, ऐसे ही यह निर्धूमशिखावत् विशुद्ध प्रकाशमय, भानुवत् स्वपरप्रकाशक यह अद्भुत तेज इस मुझ का काम क्या है? चेतना, जानना, समझना, प्रतिभासमय । तो देखो दर्पण में जो प्रतिभास हुआ, प्रतिबिंब हुआ, जो झलक हुई उसे देखकर हम आप झट समझ लेते हैं कि जिसकी झलक है वह चीज तो बड़ी दूर पड़ी है, उसका तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कुछ भी इस दर्पण में नहीं है, यह बात बहुत जल्दी समझ में आती है । जरा अपने आपमें भी समझो कि जिसकी झलक हुआ करती है वहाँ अन्य सब चीजें हमसे अत्यंत निराली हैं, उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कुछ भी मेरे में प्रवेश नहीं करता, बात कुछ कठिन नहीं कही जा रही, सब सुगम है, उपयोग पलटे तो सब दुर्गम है, उपयोग लगाये तो सब सीधी बात है । मैं चेतन हूँ, इसका उत्पाद, इसकी परिणति एक, प्रतिभासन की है, यह नहीं छूटता । जिसका जो स्वभाव है वह नहीं छूटता उससे । मेरा स्वभाव प्रतिभासने का है सो वह काम कभी नहीं छूटता । और उसी वजह से जो सामने आया, जो दिखा वह सब यहाँ झलक उठे, सबका प्रतिभास हो रहा सबकी झलक हो रही । उस झलक को पाकर हमको कुछ विवेक करना चाहिए, कि जिसकी यह झलक है वह चीज हमसे अत्यंत जुदा है । जो-जो भी ज्ञान में आये भींट, कुर्सी, तखत, घर, लोग, बच्चे, मित्र, लोग, कुटुंब आदि वे सब मेरे स्वरूप से अत्यंत निराले हैं ।
302―संसारियों की कर्मानुशरणता―कौन जीव किस भव में मेरा पुत्र पिता यों न जाने क्या-क्या न हुआ होगा । आज इस भव में जो कोई हुए यह उसमें मोह करता है और जगत के ये सब जीव जो बिल्कुल इसी के समान है, कोई अंतर नहीं, स्वरूप में अंतर नहीं और मोटे रूप से देखो रिश्तेदार तो कोई आज रिश्तेदार है तो कोई पूर्वभव में था कोई और था, सब दृष्टि पसारकर निरखो ये सब मुझसे अत्यंत निराले हैं, इनकी झलक यह बताती कि ये जुदे हम जुदे । यह तो बात हुई इस ज्ञेयपदार्थ की जो कुछ हमारे ज्ञान में आती । अब कर्म की बात देखो, जो कर्म बाँधे सो केवल यह गप्प-गप्प की बात नहीं है कि जैसे भाग्य की, तकदीर की सारी दुनिया बात करती है, इसका भाग्य ऐसा है, इसकी तकदीर ऐसी है, इसकी रेखा ऐसी है । भाग्य अथवा कहिये कर्म सो वह इतनी मात्र गप्प की चीज नहीं है । कर्म एक पुद्गल द्रव्य है, वह सूक्ष्म है, जब कषाय की तो वे कार्माण वर्गणायें कर्मरूप बन गई । कुछ मुक्ति से विचारो कि किसी पदार्थ का अगर विकार परिणमन होता, विरुद्ध परिणमन होता, स्वभाव से कुछ विपरीत परिणमता है तो वहाँ किसी दूसरी चीज का संबंध अवश्य है, अन्यथा याने दूसरे पदार्थ के संपर्क बिना कोई भी पदार्थ अकेला निरपेक्ष रहकर विकाररूप परिणम ही नहीं सकता । इसमें तो सबको मान्यता है ही । यह चीज खंडित हो ही नहीं सकती । तो अब वह उपाधि जो दूसरी चीज उसके साथ लगी है वह उपधि उसके स्वभाव के अनुरूप नहीं होती, विपरीत होगी । मैं चेतन वे जड़ । अब वे कर्म सब यहाँ बँधे हैं ना ।
303―कर्मरस पार्थक्य का विवेक―देखो परद्रव्य ये कर्म हैं, परद्रव्य ये पदार्थ हैं, परास्तित्वमय इन पदार्थों का आत्मा पर झलक होती, इसका आप एक थोड़ी सी बुद्धि लगाकर विवेक कर लेंगे, जिसकी झलक है वह मेरी चीज नहीं । वे अत्यंत पर पदार्थ हैं, और जो इस आत्मा की ही जगह उन ही सर्व प्रदेशों में व्यापकर फैली हुई हैं, कार्माणवर्गणायें वे अन्य परद्रव्य हैं, और उन परद्रव्यों की प्रकृति, स्थिति, प्रदेश अनुभाग वाली हैं । उदय क्या, उसी में गड़बड़ी है उसकी छाया, उसका प्रतिफलन है, उसे कुछ विलक्षण तरह से जाना जो कुछ होना था हुआ, मगर एकेंद्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय तक के जीव उसमें एकत्व बुद्धि करते हैं, और जब अपनी समझ न रही कि मैं वास्तव में क्या हूँ, चेतन हूँ, स्वच्छता मात्र हूँ, जब इस बात की खबर न रही और यही एक माना कि मैं जो भी वर्त रहा (कर्म की दशा) उन रूप हूँ । बस यह अंधकार है, और इसने मैं को जब पहचाना नहीं, जाना नहीं और जो इस कर्मदशा का अंधेरा है, संकट छाया है, प्रतिफलन है, जीव में यह जीव उसमें एकत्व किए है उसकी यह समझ नहीं करता । कभी धर्म की चर्चा करते-करते दूसरा जब अपने अनुकूल नहीं मानता तो उस पर गुस्सा क्यों आती? क्यों तमतमा जाता, क्यों उसका और उपाय बनाता । उसे अपने इस विचार पर एकता की बुद्धि लगी है कि मैं तो यह हूँ । इस समस्त मैल से आच्छन्न होने पर भी अंत: प्रकाशमान जो एक चैतन्यस्वरूप है, जब तक उसका बोध नहीं होता तब तक सही मायने में यह भी नहीं जान पाता कि अन्य चीज क्या कहलाती? भेदविज्ञान में दोनों का स्वरूप सही आना है । जब चावल शोधते हैं तो शोधने वालों को यह ज्ञान बराबर बना है कि यह तो चावल है और यह सब चावल नहीं, कूड़ा करकट है तब वह चावल को ग्रहण करता और अचावल को फेंकता । तो आत्मा का भी शोधना इसी तरह होगा ।
304―ज्ञानी की ज्ञानवृति―ज्ञानी ने जाना कि मैं आत्मा क्या हूँ, जो निरपेक्ष अंत: प्रकाशमान चित्स्वरूप है वही मैं हूँ अन्य नहीं, ऐसा जिसका ज्ञान हो गया, विवेक हो गया वह किसी दूसरे के परिणमन को देखकर अंत: विकल नहीं होता, और कदाचित जिससे राग हो, स्नेह हो ऐसे कोई लोग धर्म प्रसंगों में कदाचित कुछ विपरीत चले तो थोड़ा सा क्षोभ तो होता है मगर ज्ञानी उस क्षोभ को भी समझता कि यह भी कर्मरस है, यह मेरा स्वरूप नहीं, चित्स्वभाव की प्रीति वश ही कुछ राग का एक मेल खाने से इस तरह की बुद्धि बन तो जाती है, मगर ज्ञानी जानता है कि मैं सबसे निराला अखंड चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ । चारों ओर के संग परिग्रह समागम, कोई उल्टे चलता, कोई सीधे चलता, इनके प्रति विषाद शोक, ध्यान क्यों रखते? तुम तो अपने आपमें हो । ज्ञानी को यह बुद्धि है और वह यह समझता है कि लोक इतना 343 घनराजू प्रमाण है, उसके आगे यह परिचित क्षेत्र कितना सा है जिसमें भारी चित्त उलझाते रहते हैं । ये मनुष्य कितने हैं जिनमें हम अपना चित्त उलझाते रहते हैं और काल कितना है जितने समय के लिए उलझाते हैं । सब बेकार है । परिस्थिति है, करना पड़ता है, पर मेरे करने का काम तो है चेतना, प्रतिभासना जानना । तो जैसे ये बाह्य पदार्थ मेरी झलक में आते । यह झलक ही यह साबित कर देती कि ये बाह्य पदार्थ हैं? वे तेरे कुछ नहीं हैं, तुझ से अत्यंत जुदे हैं, ऐसे इस क्षेत्रावगाह में जो कर्मबंध पड़ा है उसका जब उदय होता है तो हलचल तो कर्मों की हुई मगर जो हलचल छाया है सो जैसे संमुखस्थ अर्थ की जैसी हलचल है कही दर्पण में दिखती है, ऐसे ही जो हलचल कर्म में चल रही है आखिर प्रदेश, स्थिति, बंध, अनुभाग से सज्जित हैं वे कर्म, सो जो उदय में यहाँ आते हैं, वे भी एक प्रतिभास में आते हैं मगर अज्ञानी उस प्रतिभास में एकता कर लेता है, ज्ञानी उस प्रतिभास से निराला, अपने ज्ञानस्वरूप को समझता है । मैं यह हूँ जब तक विधिविधान को न समझे तब तक कर्म भावक थे और यह जीव भाव्य होता रहा, विकार में चलता रहा । जब समझ आयी तब जाना कि मैं तो यह मात्र चैतन्य स्वरूप हूँ । झलक आती है, पर यह निराला, झलक का स्रोत हूं । मैं सबसे निराला ऐसा ही न्यारा ऐसे निज एकत्व की जो प्रतिभासना करता रहेगा उसको कैवल्य प्राप्त होगा ।
305―संकटों से मुक्त होने के अर्थ में बाह्य तत्त्व से दृढ़ उपेक्षा होने की आवश्यकता―संसार के संकटों से मुक्त होने की बात चित्त में अवश्य होनी चाहिए । अपने से पूछो―क्या तुमको जन्म मरण करना, सुख दुःख रागद्वेष विकल्प विचार करना, क्या ऐसा ही जीवन हमेशा बिताना चाहते अपने से पूछो, अथवा जन्म मरण कुछ न हो, कोई विकल्प न हो । मैं केवल अपने आप अकेला रह जाऊँ और जैसे कोई अपने खुद के बगीचे में निर्विघ्न टहल कर मस्त रहता है ऐसे ही मैं अपने इस आत्म उपवन में बड़ी मस्ती से यहाँ ही विहार करता रहूँ, यहाँ ही रमता रहूँ, ऐसे क्षण गुजारना पसंद है? दोनों में एक छाँट बनाओ ना । अगर यह पसंद है कि मैं अपने आत्माराम में ही विहार करता रहूँ और कभी जीवनमरण संकट ये न पाऊं, तो जन्म मरण जीवन इन सबसे संबंधित शरीर के एक नाते रिश्ते से संबंधित कल्पित कुटुंब मित्रजन सबसे मोह छोड़ना होगा । दो बातें एक साथ नहीं हो सकती―विषयभोग और मोक्ष में जाना, विषय केवल स्पर्शन का ही नहीं है―5 इंद्रिय और मन का विषय है । इनका भोगोपभोग भी चलता रहे और मोक्षमार्ग भी चलता रहे, मोक्ष भी मिल जाये, ये दोनों बातें एकसाथ न होंगी । तो हम बड़े आराम से जैसे फर्स्ट क्लास की सीट रिजर्व कराकर जाते ऐसे ही मोक्ष में पहुंचना न होगा । आपको इन सब लगाओं से कटाव करना होगा । अकेली दुनिया में विहार करना होगा । मैं आत्मा क्या हूँ । एक चैतन्य, जिसका काम प्रतिभास होने का है और प्रतिभास होने के काम के ही कारण ये पदार्थ ज्ञान में झलक रहे हैं । झलक रहे इसका विकल्प नहीं, झलकों मगर कर्मानुभाग भी झलक रहा और उसमें एकता कर रहा यह सब बिगाड़ है, और इस बड़े बिगाड़ के कारण ही इन परपदार्थों का ध्यान करने का निषेध है । जैसे कोई नई बहू है तो उस पर बड़ा नियंत्रण रहता है । देखो बिना पूछे दूसरे के घर न जाना, यहीं बनी रहो, इस ढंग से रहो, मुख ढाक कर रहो, यों ठीक चल रही है और वही नई बहू जब बुढ़िया बन जाती है तो कहां उस पर इस तरह का नियंत्रण रखा जाता? तो इसी तरह जब इन कर्मों की छाया से हम रिश्ता रख रहे जितना भी, तब की बात है यह नियंत्रण है कि तू परपदार्थ को छोड़, तू किसी का उपयोग मत कर । तू सबका ख्याल छोड़ दे । कोई पदार्थ तेरी झलक में न आये । तू तो एक आत्मस्वरूप की ही दृष्टि रख । क्यों नियंत्रण है? इनसे प्रीति मत कर । कर्म की झलक से प्रीति है, यह बड़ी विपत्ति जब साथ है तो तू परपदार्थ की झलक यहाँ न ला । अगर लायगा तो निश्चित है कि इसमें तू मानेगा कि यह इष्ट है यह अनिष्ट है, क्योंकि कर्मरस की झलक में एकता लाये ना । उस विषपान में रहे ना, तो नियंत्रण है कि परपदार्थ का ख्याल न करें और जब यह रस सूख जायेगा, वीतराग हो गया तब फिर नियंत्रण की बात क्या? दुनिया के सारे पदार्थ एक साथ मानो आक्रमण कर देते हैं तो हम सब राग द्वेष विषय कषाय इनको भी इस तरह से जानें कि जैसे ये बाह्य पदार्थ झलक रहे हैं, तो झलके तो हैं मगर ये बाह्य अत्यंत जुदे हैं, उनकी यह झलक है, उनका जो स्वरूप है उस रूप यह झलक है, जानन है, पर वे अत्यंत भिन्न हैं, उनका यहाँ कुछ नहीं । ऐसे ही रागरस, कर्मरस, कर्मानुभाग यह भी छाया है तो ज्ञान बल बढ़ायें, यहाँ झलक आये, जान रहा हूँ कि वे सब मुझसे अत्यंत निराले हैं, मैं तो एक विशुद्ध चैतन्यमात्र हूँ ।
306―विवेचक का झलक द्वारा बाह्य अर्थ की विविक्तता का निर्णय―जब समस्त अन्य भावों से विवेक हो जाता है इस जीव को तब जैसे यह प्रगट समागम बाहर का झलका वैसे ही ये रागद्वेष कषाय झलके, ये सब कर्म की परिणति है, उसकी जो यहाँ झलक है वह तो है इस जाननहार की परिणति, मगर यह परिणति उस कर्म रागरस की झलक रूप है, इस कारण यह परभाव है । मेरे चैतन्य में यह गंदगी नहीं है । मेरे चैतन्यस्वरूप में यहाँ से यह झलका, यह स्वच्छताविकार है । यहाँ तो चित् ज्ञानदर्शनसामान्यात्मक प्रकाश हो यह इसकी ईमानदारी की झलक है । विकार तो औपाधिक है, इनसे मैं निराला हूँ । जिसने ऐसा विवेक किया वह आत्मा के स्वरूप को ही अपने ज्ञान में अपने उपयोग में धारण कर रहा । आत्मस्वरूप की समझ बना रहा वह जीव, जहाँ दृष्टि करने से पर का असहयोग, अपने आपमें मिलन व अपने आपका एक साक्षात्कार होता, यों ज्ञानस्वरूप की यह दृष्टि जब दृढ़ हुई है तो वही हुआ यह कि परमार्थ दर्शन, ज्ञान, चारित्र वहाँ परिणत हो गये । देखो ये सारे उपदेश मुख्यतया मुनिजनों के लिए बने हैं, पर जो मुनिजनों के लिए उपदेश है वह हमको भी तो हो सकता है । हम भी तो उससे अपना काम निकालें । तब ही तो कहीं-कहीं जब डाट करके कहा गया है कि तू व्रत तप वगैरह करता है और तूने यह ज्ञानघन नहीं पाया तो तेरे ये व्रत तप सब कष्ट की चीज है । तो जो व्रत तप संयम में लगे हैं उनको ही तो डांट बनती है कि जो उससे बिल्कुल अलग है और मन में भाव भी नहीं लाते कि मुझे आगे बढ़ना चाहिए, ये व्रत, तप, संयम प्रयोजनवान हैं, जिनके चित्त में यह बात ही नहीं आती क्या उनके लिए यह डाट है? यह डाट तो शुभोपयोग में चल रहे हुए जो छठे गुणस्थान में हुए हैं उनको दी गई है । तो जो उनको उपदेश किया गया है सो आखिर वस्तु तो मैं भी हूँ, चेतन तो मैं भी हूं, केवल एक थोड़ा बड़े का फर्क है, वह क्या मेरे लिए उपदेश नहीं है? उससे लाभ उठावें । और देखिये―इसमें जो अपने कर्मरस की झलक है, बाह्य पदार्थों की झलक है इन सबसे जुदा यह मैं चैतन्यमात्र हूँ । ऐसा जिनकी दृष्टि में है उनके प्रकट हो गया है वास्तविक दर्शन ज्ञान चरित्र जहाँ जितनी योग्यता है । तब ऐसी परिणति, ऐसा ध्यान, ऐसा ज्ञान जब बन गया तो यह आत्मा इस आत्मोपवन में विहार करता है । इस आत्मोपवन में मेरे को रमना चाहिए ।
307―कल्याणपात्रता पाकर भी हितपौरुष का विचार न करने में महामूढ़ता की सिद्धि―देखिये―जिसको आत्मकल्याण की धुन नहीं, दिल तो आखिर, उसको भी रमाना पड़ता है तो वे ढूंढ़ते हैं थियेटर, सिनेमा आदि के खेल । पर उन्हें वहाँ भी शांति नहीं मिलती । धन भी खर्च होता, लाइन में खड़ा होकर टिकट लेना होता, बड़े-बड़े झगड़े करने पड़ते, धक्का मुक्की करनी पड़ती । बीच-बीच में बड़े-बड़े कष्ट उठाने पड़ते । ऐसी-ऐसी घटनाओं में भी दिल को रमाना यह तो पसंद होता है अज्ञानीजनों को मगर ज्ञानीजन तो आत्मतत्त्व की चर्चा का काम पसंद करते हैं । इसमें कोई उनको खर्च भी नहीं करना पड़ता । अगर कोई समझे कि यह तो बड़ा अच्छा काम है, इसमें पैसा नहीं खर्च करना पड़ता और अपनी धुन धनार्जन की रखे, धर्मायतनों में खर्च करने में कृपणता वर्ते तो उसको तो इसमें लाभ नहीं मिलता, उसके तो धनार्जन की धुन है मगर यह एक ऊपर की बात कह रहे कि देखो इसमें कोई खर्च नहीं किसी की पराधीनता नहीं, लड़ाई का इसमें कोई प्रसंग नहीं, बड़ी शांति से बैठे है, और वास्तविक संतोष होता है । जब पर से उपयोग हटा और निज अंतस्तत्त्व में उपयोग रमा उस समय जो संतोष है तृप्ति है वह ही एक अलौकिक है, और ऐसी योग्यता हम आपने पायी । समझ सकते हैं, थोड़ा उपयोग लगाना! और फिर भी न करें पौरुष, प्रमादी रहें तो नीतिशास्त्र में लिखा है किं जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यास:―योग्यता, चतुराई, कुशलता, होने पर भी उस तत्त्व का, उस ज्ञान का अभ्यास न करना यह तो महामूर्खता है, ऐसा नीतिकारों ने कहा है जहाँ इतनी योग्यता है कि बड़े-बड़े हिसाब किताब रखते, रोजगार, व्यापार, मिल, फैक्टरी, उद्योग धंधे वगैरह चल रहे, पर सबकी सही व्यवस्था बनी है, सो जो बड़ी उल्झन वाली बातें हैं । उन सबके सुलझाने में भी बड़ी चतुराई दिखा रहे हैं, फिर जो इतना सुगम काम है कि जाननहार खुद । ज्ञानस्वरूप, जो जान रहा है वह खुद ज्ञानमय है और फिर भी यह ज्ञान उस ज्ञान को न समझे तो यह तो इतना बड़ा अंधेर हुआ जैसे कोई स्त्री अपनी ही गोद में एक तरफ अपने ही बालक को लिए हो और वह चारों तरफ पता लगाती फिरे कि मेरा बेटा कहाँ गुम गया, तो यह तो उसकी मूर्खता भरी बात है ।
308―आत्म परिचय बिना आत्मा की ओझलता―कोई एक बाबूजी अपने कमरे में सामान की व्यवस्था कर रहे थे । रात्रि के 8-9 बजे का समय था, सब चीजें जहाँ की तहाँ क्रम से रखते जा रहे थे, छाता की जगह छाता, जूता की जगह जूता, घड़ी की जगह घड़ी, कोट की जगह कोट । और, साथ ही उस जगह उस चीज का नाम भी लिखते जा रहे थे । जब सब व्यवस्था कर चुके तो नींद भी आ गई और खुद पलंग में लेट गए । उस पलंग की पाटी पर लिख दिया मैं याने इस पलंग पर मैं पड़ा हूं । बस बाबूजी सो गए । जब प्रातःकाल सोकर उठे तो देखने लगे कि मेरी सारी व्यवस्था ठीक है ना । देखा―छाते की जगह छाता, घड़ी की जगह घड़ी, जूते की जगह जूते, सब ठीक, आलराइट कहते चले गए । अंत में जब पलंग पर नजर पड़ी और वहाँ “मैं” कहीं न दिखा तो बाबूजी चिल्लाने लगे, अपने नौकर को बुलाया, नौकर से बोले―अरे मेरा मैं गुम गया । नौकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया । सोचा कि बाबूजी आज ऐसी बेवकूफी भरी बात क्या कह रहे मामला क्या है, आखिर वह सब समझ गया और बोला-बाबूजी आप चिंता न करें, आप थके हैं आराम से लेट जायें । आपको “मैं” आपको मिल जायेगा । बाबूजी को अपने पुराने नौकर की बात पर विश्वास आ गया, सोचा कि देखा होगा इसने कहीं मेरे “मैं” को । जब बाबूजी खाट पर लेटे तो नौकर बोला―देखो बाबूजी अब आपका “मैं” आपको मिल गया ना? तो बाबूजी झट अपने शरीर पर हाथ फेरते हुए उठे और बोले हाँ मेरा “मैं” तो मिल गया । इस खाट पर मैं पड़ा हूँ । तो जिसका मैं गुम गया अर्थात् जो सहज शुद्ध निरपेक्ष अपना एक चित्प्रकाश मात्र स्वरूप है उस रूप अपनी दृष्टि नहीं की, अनुभूति नहीं की, माना नहीं कि यह मैं हूँ उसका “मैं” गुम गया । भले ही “मैं” कितना ही रोज-रोज कहे, पर उसने “मैं” का पता नहीं पाया । ठीक जानो जो कर्मरस झलका वह पर, जो ज्ञेय पदार्थ झलका वह पर । जो ज्ञेय का ज्ञान है वह है इस जीव की परिणति जो कि बताती यह पर, वह पर, सब पर, उन सबसे निराला जो एक सहज निरपेक्ष ज्ञायक स्वरूप अंतस्तत्त्व है उसे अनुभव करना कि मैं यह हूँ, बस यह काम नहीं किया इसलिए संसार में जन्म मरण चल रहा । जब यह काम बन जायेगा इसमें दृढ़ता हो जायेगी तो यह जन्ममरण की परंपरा छूट जायेगी, यों केवल की उपासना करने पर कैवल्य प्रकट होगा ।