वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 34
From जैनकोष
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृत: सन् पश्य षण्मासमेकम् ।
हृदयसरसि पुंस: पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्घिर्भाति किंचोपलब्धि: ।।34।।
322―देह और कर्म में स्वत्व अनुभवने वालों के परमार्थ विश्राम को अपात्रता―आत्मा के बारे में अनेक प्रकार के लोग अनेक तरह के ख्याल किया करते हैं । जैसे कोई तो अपने शरीर को ही कहते कि यही जीव है । उन्हें शरीर से निराला कुछ जीव समझ में नहीं आया । तो कोई थोड़ा विचार करके बताता है कि नहीं, शरीर जीव नहीं किंतु कर्म जीव है । यहाँ शरीर को जीव मानने वालों ने यह त का था कि सब शरीर की हरकत है, शरीर का ही काम -है, यह ही कर रहा है सब । तो कर्म को जीव समझने वालों ने यह समझ लिया कि यह सब कर्म ही करता है । कर्म ही जीव है, तो बात वहाँ तथ्य की यह है कि कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव में जीव की उस प्रकार विकार परिणति होती है । मगर वहाँ कर्ता कर्म भाव तो नहीं कि कर्म ने जीव की परिणति कर दी हो । यह तो पदार्थ का स्वरूप ही है ऐसा कि पदार्थ जो कुछ कर पायेगा वह अपने में ही कर पायेगा, दूसरे पदार्थ में कुछ नहीं करता । यह जीव अपने ही कारण अपनी ही योग्यता से राग बनाता है और वहाँ कर्म निमित्त के सन्निधान की बात ही न समझे तो वह स्वभाव बन बैठेगा, फिर उसका विनाश किया जाना कठिन है । और यहाँ कितना विशिष्ट भेद जव रहा है । जीव में तो राग है ही नहीं । जोव तो अपने एक शुद्ध चैतन्यरस को लिए हुए है । राग तो असल में मूल में पुद्गल कर्म में है, अर्थात् राग प्रकृति का अनुभाग उस कर्म प्रकृति से ही तो अनन्य है । उसके उदय आया; उस समय यह झलक हुई । अब उर झलक को क्या कहेंगे । दर्पण में जिस बाह्य वस्तु का प्रतिबिंब है तो प्रतिबिंब को समझते हैं ना कि यह दर्पण के स्वरूप में नहीं है, स्वरूप से बाहर है, ऐसे ही यह राग मेरे स्वरूप से बाहर है । यह समझ तब ही तो बनी है जब यह जाना जैसा कि आचार्यसंतों ने बताया है, इस ही कलश की गाथा में बताया है कि ये सब भाव पुद्गल कर्म से निष्पन्न हैं । और, ऐसा देखने में अपने आपको शुद्ध बनाये रखने का एक अवसर मिला हुआ है । देख रहे हैं मेरा चैतन्य तो एक अविकार सत्य है । और विकार कर्मरस की झाँकी है । मात्र ऐसा निमित्तनैमित्तिकभाव है पर यह नहीं कि जीव का कर्म ने राग भाव बनाया हो । कर्म अपना ही राग बनाता है तब ही तो अनुभाग का उदय कर पाता है । कर्म की बात कर्म में ही चलती, कर्म से बाहर कहीं जीव में नहीं चलती, पर यह निमित्त नैमित्तिक योग हैं कि कर्म की यह रसधारा चलती है तो उसका सन्निधान पाकर जीव की ऐसी छाया, माया प्रतिफलन होता है अब यह संज्ञी जीव के विवेक की बात है कि ज्ञान कर लें कि यह मैं हूँ, यह परभाव है । और, विवेक नहीं है, तो इस रूप ही अपना अनुभव करता कि मैं तो यह ही हूँ जो कर्मरस है तद्रूप ही अज्ञानी अपने को अनुभव करता है, तो कोई लोग हैं ना ऐसे जो समझते हैं कि जो कर्म है, कर्मरस है (उसमें ही अभेद करके) सो ही मैं हूं ।
323―सुख दुःख शुभभाव अशुभभाव जीवविकार आदि में स्वत्व अनुभव न करके सहज स्वभाव में स्वत्व अनुभवने में शांति पथ का प्रयोग―अब कोई कहते कि देखो कर्म और कर्मरस मैं न सही, सुख और दुःख बस यह ही हूँ मैं । लोग जब आत्मा के स्वरूप के बारें में बड़ा विवाद मचाने लगे तो एक विषाद खड़ा हुआ, कोई कुछ कहता कोई कुछ । कोई कहता कि सुख दुःख भी क्या चीज है । वे तो शुभ अशुभ भाव के फल है । तो शुभ भाव होना, अशुभ भाव होना, बस यही आत्मा है । इनको छोड़कर आत्मा और कुछ जुदा नहीं मालूम हो रहा । तो कोई कहता है कि भीतर उस जैसा रूप निरंतर रहता ही है रागद्वेषरूप, यह है जीव । जीव राग द्वेष तो नहीं है, पर रागद्वेष में जो घटाव बढ़ाव की शक्ति है यह हैं जीव । जीव के स्वरूप को न जानने वाले कितने ही लोग जीव के स्वरूप में विवाद उठाते हैं, अरे विवाद करने वालो व्यर्थ क्यों कोलाहल करते हो, व्यर्थ क्यों विवाद करते हो? जो करने का काम है सो तो करते नहीं और विवादों में कितना अपना समय गमाते? क्या है भाई करने का काम कि पर पदार्थों का ख्याल छोड्कर स्वयं ही गाड़ दृढ़ एकचित्त होकर ऐसा अपने को बनाओ कि चित्त में कोई बात ख्याल में ही न रहे और एक अपने आपमें यह कोशिश हो कि मैं क्या हूँ । कोशिश भी क्या करें? बाहर के सारे ख्यालात छोड़ दो और आराम से बैठ जावो । दर्शन मिलेगा आपको अपने सहज स्वरूप का, सत्याग्रह करने वाले विजयी होते हैं अंत में । सत्य का आग्रह लोक में विजय का बीज बनता है तो हम इन आत्मीय कार्यों में अपने सत्य का आग्रह करके चलें, कषाय न हो मुझे तो यों ही करना । धर्म का रूप लेकर भी जब चित्त में कषाय बन जाता, कोई पक्ष बन जाता तो वहाँ भी रास्ता नहीं मिलता । वहाँ भी भटकना चलती है । धर्म के लिए मुक्ति के लिए पक्ष का क्या काम? केवल एक शुद्ध भावना रहे कि मुझे तो संसार के संकटों से छुटकारा चाहिए, हमारे न पार्टी है, न कोई पक्ष है, न कषाय है, और अपने को तो यह देह भी भुला देना है । यह जो देह साथ लगा यह भी मैं नहीं हूँ । या मैं अमुक कुल का हूँ या अमुक मजहब का हूँ । एक सत्य का आग्रह कर रहा जैन धर्म, पर मैं जैन हूँ, इस धर्म का मानने बाला हूँ, इतने तक का विकल्प भी आत्मानुभूति में बाधक होता है । हालाँकि जैन दर्शन ने इस आत्मानुभव का मार्ग दिखाया, पर उसका हो ध्यान रहे तो आत्मानुभूति तो नहीं मिलती । जैसे कोई वैद्य है और वह अपने कुछ शिष्यों को लेकर पहाड़ पर घूमने गया जहाँ बहुतसी जड़ी फूटी थीं । एक हाथ में डंडा लेकर शिष्यों को बताता जाता था कि यह अमुक रोग की दवा है, यह अमुक रोग की । शिष्य लोग उस डंडे के इशारे से सब जड़ी बूटियों को देखते जाते थे और समझते जाते थे । समझदार शिष्य कहीं डंडे पर अपनी दृष्टि नहीं गड़ाते थे, डंडे में ही नहीं उलझ जाते थे बल्कि डंडे के सहारे से उन जड़ी बूटियों पर अपना लक्ष्य रखकर हर बात को समझते जाते थे । र्ज से वे शिष्य कहीं उस डंडे को ही जड़ी बूटी नहीं समझते ऐसे ही प्रमाणनय ये हैं बूटी । प्रमाण और नय के द्वारा बताया गया यह आत्मतत्त्व है । अब हमें प्रमाण और नय का विकल्प त्यागकर एक अखंड अनुभव में ही तो उतरना है ।
324―व्यर्थ का कोलाहल तज कर कुछ समय अंत: सहजसिद्ध अंतस्तत्त्व के अनुभवने का अनुरोध―अखंड के अंतस्तत्त्व का अनुभव होवे इसके लिए एक प्रयोग करें । जब इतना जान गए कि संसार का जितना संग है, परिग्रह है मेल मिलाप है, पर वस्तु का संबंध संयोग जो कुछ है वह सब इस चिद्घन आत्माराम के लिए बेकार है । यह तो एक अपने चैतन्य स्वरूप में तन्मय अमूर्त स्वयं आनंद का पिटारा, स्वयं ज्ञानस्वरूप जो कृतार्थ है, जिसमें कष्ट का नाम नहीं, केवल एक लखनहार ऐसा ही स्वरूप है, इसके अतिरिक्त जितने भी और कुछ भाव हैं, पदार्थ हैं, मुझको सब बेकार है । तो जब कर्मरस उमड़ता है और यह व्यग्र-तिरस्कृत हो जाता है, कुछ सूझ बैठती नहीं ऐसी हालत में बाह्य पदार्थो को हापड़ धूपड़ होकर अंगेजता है कि यह लावो, वह लावो, यह मेरा यह फलाने का । यह सब क्या है? विपत्ति । यह विपत्ति क्या है? केवल कर्मरस, कर्मछाया, कर्म प्रतिफलन । तू अपने इस चित्स्वरूप को क्यों नहीं अपने में अनुभवता कि मैं जो अपने आपमें हूँ बस उसी में तृप्त हूँ । मुझे आगंतुक कुछ न चाहिए ? मैं स्वयं हूँ और जिसका जो स्वयं सहज जो कुछ वृत्ति बनती हो बस वही इष्ट है, वही बनो, इसके अतिरिक्त और कुछ न चाहिए, यह ध्यान दो, यहाँ भीतर प्रवेश करो, यहाँ आवो । बाहर में क्यों इष्ट अनिष्ट, रागद्वेष मोह जाल इन सबको अपना रहे हैं । इन्हें त्यागें, अपनी ओर आयें, आराम करें । व्यर्थ कोलाहल न करें । जितने झगड़े होते हैं वे व्यर्थ के कोलाहल है । चाहे घरेलू झगड़े हों, चाहे धर्म के मामले के झगड़े हों, आराम से विश्राम कर देखें तो सही कुछ समय अभ्यास तो करें ऐसा । यहाँ 6 माह तक अभ्यास करने के लिए कह रहे । स्वयं में अपने आपकी ओर झुकता हुआ स्वदृष्टि का अभ्यास करे निरखें कि मैं एक चिदेक ज्ञायक केवल चैतन्यरस से भरपूर सहज अंतस्तत्त्व हूँ । इसके अतिरिक्त बाहरी बातों में ही तो विवाद तू कर रहा है, उन विवादों को छोडू और एक इस चैतन्यरसमय अपने आपको मानकर अपने में रहो । देखो 6 माह की बात क्यों कहो? अनंतानुबंधी कषाय का संस्कार 6 माह से भी अधिक रहता है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार 6 माह से अधिक नहीं चलता । अनंतानुबंधी का 6 माह से भी अधिक चलता । प्रयोग करें, 6 माह की बात क्या? सारी जिंदगी भर करें ।
325―जीवनभर करणीय एक मात्र अंतर्योग―करने का काम पड़ा है इस मनुष्यभव में यही बुद्धिमानी का काम, समझदारी का काम । वास्तविक काम और है ही क्या? लोग तो सोचते कि इस काम के करने की मुझे फुरसत ही नहीं मिलती, पर फुरसत क्यों नहीं मिलती? उस ओर लक्ष्य नहीं है, नहीं तो फुरसत सारी जिंदगी भर है । यह मनुष्य बाहर में कुछ कर ही नहीं सकता । जो इस स्वरूप को न जानता हो और इन बाहरी कार्यों को हो सब कुछ समझता हो उसे फुरसत नहीं । पर इसको तो सारी जिंदगी फुरसत है, क्योंकि यह जीव बाहर में कुछ नहीं करता, केवल भाव भर करता है जब भाव का ही कर्ता है तो फिर यहाँ कोई बाधा नहीं, इसे दूसरा काम कोई अट का नहीं । कोई यों चलता है, चलने दो, कोई यों नहीं चलता, न चले, मेरा किसी की प्रवृत्ति से क्या संबंध । जो जैसा चलता सो ठीक है, कोई किस प्रकार व्यवहार करता कोई कैसा ही करता, यह तो उनकी अपनी-अपनी योग्यता की बात है । बाहर में जो होता है होने दो बाहर में अपना उपयोग गड़ा कर फुरसत तो नहीं बनती । ज्ञान में ज्ञान को समाये जावे, रमाये जावे, यह ही जानता जावे बस इसके लिए तो सारी फुरसत है । यहाँ देखो और सोचो-है ना सबको फुरसत । बाहर के काम संसार के काम, ये सब कर्मोंदय के अनुसार अपने आप चलते हैं । इनको चलाने वाला तू नहीं । तू तो वहाँ भी सिर्फ भाव ही भाव कर रहा है । भावों के सिवाय अन्य कुछ नहीं कर रहा । जब भाव ही भाव करता है तो जरा भावों को सम्हाल । भाव ही तो सम्हालना है कि इसका काम बन गया । व्यर्थ का कोलाहल मत मचा कि आत्मा यों है, यों है, रागद्वेष की शक्ति आत्मा है, शरीर आत्मा है, सुख दुःख आत्मा है, शुभ अशुभ भाव आत्मा है, इस विवाद में क्यों पड़ रहा । तुझे यदि समझ में नहीं आता तो तू एक ही तो उपाय बना ले कि सब कुछ छोड़ और आराम से बैठ । तब पता पड़ेगा कि इस हृदयरूप तालाब में क्या-क्या उपलब्ध होता है, क्या नहीं । पर पदार्थों का राग, पद का लगाव, पर की बात तज कर एक विश्राम से बैठ जा, कुछ न सोच । इतनी बात अगर ख्याल में आती है तो बोल इससे तेरा क्या बिगाड़ । अरे अंतस्तत्त्व का ख्याल तो तुझे पार कर देगा । इन परपदार्थों से तेरा कुछ संबंध नहीं, इनसे अपना संबंध छोड़कर विश्राम से बैठ जा । ऐसा एक क्षण भी अगर पूरा विश्राम मिल जाये इस आत्मा को तो, जो श्रम कर रहा है विकल्प का, यह यों, यह यों, एक मन से आत्मा में खौल बखौल कर रहा, भीतर में बड़ी व्यग्रता मचा रहा, अरे इस बात को छोड्कर अपने आपमें जरा स्थित हो, तो तुझे पता पड़ेगा कि इस हृदय तालाब में क्या तो उपलब्धि होती है क्या नहीं । जैसे तालाब में कमल हैं, सुगंध है, भवरे उसका रस लेते हैं, यहाँ तो बात जुदा-जुदा है । मगर ज्ञानी का तालाब कैसा हे कि ज्ञान का ही कमल है जानन ही उसकी सुगंध है और जाननहार ही यह भंवरा है, यहाँ जुदा-जुदा क्या है, तू तो ज्ञानमय है, अपने ज्ञान का आनंद लूट और ऐसा निष्पक्ष रहकर अपने आपका भला कर ले । मरे के बाद कोई साथी नहीं । साथी है तो एक सच्चा बोध, सम्यग्ज्ञान, सत्य की प्रीति यह ही तेरा साथी है । अन्य कोई तेरा साथी नहीं ।
326―अनात्मतत्त्व से विविक्त आत्मतत्त्व की रुचि में कल्याणमार्ग का लाभ―यहाँ आचार्य संत यह ध्यान दिला रहे हैं कि आत्मा के बारे में अनेक दार्शनिक अनेक प्रकार का भाव रखकर विचित्र बोल बोलकर परस्पर कुछ विवाद कर रहे हैं सो इन अनर्थक बाह्य बातों के विवाद को तू छोड़ और एक यह निर्णय कर कि “एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वत्तकम्मणिप्पणा” जिनेंद्र देव ने बताया कि ये सब भाव जिनका भी ख्याल आया राग, द्वेष, प्रीति अप्रीति, डर, ग्लानि आदि अनगिनते भाव हैं । जितनी तरह के भी भाव हैं सब पुद्गल परिणाम से निष्पन्न हैं देखिये निमित्त नैमित्तिक भाव से बढ़कर कर्तृकर्मत्वबुद्धि करें तो दोष है । कर्म ने ही राग किया तो मैं क्या कर सकता हूँ कर्म की दया हो तो राग हमें छुट्टी देंगे । देखो यह विवशता कर्तृकर्मत्वबुद्धि में आती है, सो यह त्रिकाल नहीं है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप परिणम जाये । कर्म-कर्म में परिणम रहे, पर यह जीव स्वच्छ है, उपयोगमयी है और उसका उदाहरण ये बाहरी पदार्थ जितना जानने में आ रहे हैं उतना प्रतिफलन हो रहा है ना? यह कैसे ज्ञान में आ रहा कि यह इतनी दूर है? ज्ञान में आ रहा ना? यह तो साक्षात् सब परख सकते हैं । तो जीव में एक क्षेत्रावगाह कार्माण वर्गणायें बनती हैं और उनमें अनुभाग पड़ा हुआ है । वह अनुभाग आज का नहीं है, वह तो सागरों पर्यंत पहले पड़ा था । अब वह सामने आया । आकर अपने में वीभत्सरूप रख लेता है । जीव ने कुछ नहीं किया कर्म में । कर्म ने कर्म में एक बड़ा डरावना रूप रख लिया, वह चेतन नहीं है इसलिए अनुभव नहीं कर सकता । उसमें एक बड़ी भयानकता आयी इसी को कहते हैं कर्मरस का उदय । जब एक क्षेत्रावगाह है तो ये वाह्य पदार्थ झलकते हैं ये नहीं झलकेंगे क्या? इनका झलकना इतना बड़ा है कि यह ज्ञानस्वभाव तिरोहित हो जाता है । असंज्ञी जीव तक कर क्या सकते? जो सती हैं, जिन्होंने इस अविकार सहज चैतन्य स्वरूप का अनुभव किया है वे पुरुष ऐसा भिन्न जानते हैं इन रागादिक परिणमनों को कि ये मेरे से भिन्न हैं, मेरे चैतन्य रस में ये होते ही नहीं, यह तो छायामात्र है । है मुझमें क्योंकि मैं स्वच्छ हूँ, यह छाया आयी लेकिन मैं तो चैतन्यरस से निर्भर हूँ । यह पुद्गलद्रव्य के परिणाम से निष्पन्न है मेरी कुछ भी बात नहीं है । जब कुछ नहीं तो इन सारी बातों को छोड़ दो विवाद को छोड़ों और आराम से बैठो । अपने आपसे पूछो । पूछो क्या ? बाहर के सारे विकल्प छोड़कर विश्राम से स्थित होने का ही नाम है पूछ लेना और जवाब ले लेना । अपने आप बतावेगा यह ही भगवा अंतरात्मा कि यह क्या है । और यों ही न बतावेगा अनुभव के साथ बतायेगा । तो देखो ऐसा विश्राम करने से परख लो कि पुद्गल से भिन्न पुद᳭गल के गुण से भिन्न, पुद्गल की पर्याय से भिन्न और पुद᳭गल अनुभाग रस का सन्निधान पाकर होने वाले प्रतिफलन से भिन्न केवल मैं स्वयं अपने आपके कारण जो चैतन्यरस निर्भर हूँ यह हूँ मैं यहाँ दृष्टि दें यहाँ विवाद न करें, यहाँ कोलाहल मत मचा और एक अपने आपके इस निज सहज स्वरूप में ही तू थोड़ी दृष्टि दे तो तू स्वयं समझ लेगा कि मुझे उपलब्धि हुई हि नहीं, सहज आत्मीय आनंद का अनुभव, बस यह बता देगा कि हमको सत्य ज्ञान हुआ कि नहीं । कोशिश करें, सहज चैतन्य स्वरूप का ध्यान करें ।
327―शरीर समय स्थान संग प्रसंग सबसे उपयोग हटाकर आत्मा में ही आत्मत्व का अनुभव करके इन अमूल्य क्षणों को सफल बनाने का अनुरोध―देखो आचार्य संतों की वाणी में कहा जा रहा है―हे जगवासियों ज्ञान में बढ़ो और उसका प्रयोग ज्ञान द्वारा बनाओ । कभी बैठो एकांत में, रात्रि में या सुबह, आसन में बैठो या कैसा ही बैठो जरा एक ध्यान तो लावो अपने आपमें चिद्घन का । मैं स्वयं क्या हूँ? प्रत्येक पदार्थ स्वयं है वह अपने असली स्वरूप में है केवल एक जीव की ही बात नहीं । रंग कर दिया, रोशनी कर दिया, छाया कर दिया वह तो अन्य उपाधि से है मगर पदार्थ का स्वयं अपना स्वरूप कुछ होता ही है । इसी तरह मैं भी अपने आप अपने ही स्वभाव की वजह से क्या हूँ, बस इसकी पहिचान कर लेना इसी को कहते हैं सम्यक् का दर्शन कर लेना । बस यही सम्यग्दर्शन है । यह सम्यक्त्व पूज्य है, आदर के योग्य है, । मेरा शरण, मेरा सर्वस्व इस सम्यक् में इस ही के अनुरूप सम्यक् परिणति द्वारा सम्यक् चलना है । सम्यक् में इस सम्यक् को देख लेना यह सम्यग्दर्शन है । यहाँ का आग्रह बनाइये बाहर का नहीं । बाहर में लोगों से ग्राहकों से तो बड़े-बड़े विवाद हो जाते, फिर भी उनसे प्रेम नहीं घोड़ा जाता । लड़ाई हो गई फिर भी दूसरे दिन ग्राहक आयगा तो उससे तो बड़ा प्रेम बतावेंगे । कहो भाई क्यों नाराज हो गए? आवो, बैठो, यों बहुत-बहुत मनायेंगे, सेवा भी करेंगे और यहाँ धर्म के मामले में विरुद्धता पर कितना हठ । यह हठ बड़ी बुरी चीज है, इसे कुछ सूझता नहीं और यह बात विदित होती है कि जो मैंने जाना बस वही ठीक है, मैं बड़ा बुद्धिमान हूँ, बड़ा चतुर हूँ, नेता हूँ, बस सब कुछ हो गया, बाकी संसार के सब जीव तुच्छ हैं । भैया सबके स्वरूप को निरखो, यहाँ तुच्छ कोई नहीं । सबके स्वभाव को देखो, सबमें प्रीति का विस्तार करो―सत्त्वेषु मैत्रीं, सब प्राणियों में मित्रता हो, ऐसी बुद्धि तब ही तो जगती है जब एक अपने आपके उस सहज चैतन्य स्वरूप का अनुभव बन जाये । जब तक उसको चैतन्यस्वरूप का अनुभव नहीं बनता तब तक बाहर में इष्ट, अनिष्ट, धृणा, प्रीति आदिक का कोलाहल मिट नहीं सकता । इस कोलाहल को मिटाना है । इस कोलाहल से कुछ लाभ नहीं । इसके लिए क्या करें ठनना यह बाह्य उपयोग त्याग कर अपने आपमें शाश्वत अंत: प्रकाशमान इस सहज चैतन्यरस का पान करें । तुझको तू ही एक देख, तुझको तू ही एक अनुभव में आ, उस समय न शरीर का ध्यान, न समय का ध्यान, न स्थान का ध्यान । ये तीनों विकल्प में विकल्प में नहीं रहें । ध्यान होता है । आत्मानुभूति होती है उनको तीन प्रकार का ध्यान नहीं रहता । न शरीर का ध्यान, न जिनको उत्तम समय का ध्यान और न स्थान का ध्यान हे आत्मन् तू इस चैतन्यरस का पान कर, इस ओर उद्यम कर, कितने दिन लगूं ऐसा प्रश्न मत कर । यह काम तुझे जीवन भर करना है । तेरे करने को अन्य कोई दूसरा काम पड़ा ही नहीं, अभी बनाकर कर रहे तो बना कर करते रहो, फिर यह काम सहज होता रहेगा । सिद्ध भगवान में यह काम सहज चल रहा है । यहाँ हम आपमें यह काम कुछ प्रयत्न से होता । कुछ भाड़ा ही होता मगर जीव के करने का काम केवल एक ही है । जो समझदार हो, ज्ञानवान हो उसका काम एक सहज चैतन्यरस स्वरूप अपने को मानना हैं कि मैं यह हूँ, मैं अन्य नहीं हूं । यह अन्य यह तो पर क्षेत्र की चीज है, पर द्रव्य की बात हैं, कर्म रस की जो झांकी है यह भी पर है, इसको भी अनुभवना नहीं । ज्ञाता द्रष्टा रहो । यह रागद्वेष परिणति यह सब कर्मछाया यह मैं नहीं । मैं तो शुद्ध चैतन्यघन हूँ, चैतन्यरस से परिपूर्ण हूं । इस प्रकार अपने को सहज स्वरूप से अनुभव कर, तो अपने आप समझ जायेगा कि इस पुद्गल से भिन्न एक इस अंत: परम पुरुष की उपलब्धि हुई ।