वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 71
From जैनकोष
एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।71।।
686―मूढ़ और अमूढ़ के विकल्पों के दर्शकनयों की दिशा―कहते हैं कि एक के पक्ष में, मत में यह जीव मूढ़ है, मायने मोही है, मोहयुक्त है तो दूसरे के पक्ष में मूढ़ नहीं है, मोहयुक्त नहीं है, ऐसा इस चैतन्य पदार्थ में दोनों ही दोनों पक्षपात हैं । जो तत्त्ववेदी पुरुष हैं वे इन पक्षपातों से च्युत होकर साक्षात् इस अमृततत्त्व का अनुभव करते हैं । यहाँ दो पक्ष रखे गए हैं―एक दृष्टि में तो यह जीव मोही है, मोहयुक्त है तो एक के सिद्धांत में मायने स्वभावदृष्टि करके निरखें तो जीव मोहवान नहीं । वह तो अपने सहज चैतन्यस्वरूप है । इस तरह देखो और घटना वर्तमान स्थिति, इसको देखा तो यह दिखा कि यह जीव मोही है । यहाँ कोई दो पक्षों का, नयों का वर्णन चल रहा है―वह है शुद्धनय अथवा निश्चयनय और व्यवहारनय । यह ध्यान में रखना कि जैसे निश्चयनय असत्य नहीं ऐसे ही व्यवहारनय असत्य नहीं, किंतु जो व्यवहार है याने उपचार है वह मिथ्या होता । यह खास जानने की बात है और समयसार के प्रत्येक वर्णन में यह निरखते जायें कि यह निश्चयनय का कथन है या व्यवहारनय का या उपचारभाषा का । जो कथन उपचारभाषा में है उसका अर्थ यह लगा लें कि जैसा कहा वैसा उपादानत: नहीं । तो उपचार नामक व्यवहार की यह बात है-जैसे पुद्गलकर्म जीव को मोही करता है यह किस भाषा में है? उपचार भाषा में है, जो परकर्तव्य, पर स्वामित्व की बात कहे उसको कहते हैं उपचार और मोह प्रकृति के उदय का निमित्त पाकर जीव अपने ज्ञान विकल्प से मोही बना यह व्यवहार नय का कथन है और निश्चयनय से यह जीव अपनी योग्यता से मोही बना । तो निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों असत्य नहीं, किंतु उपचार असत्य है । जहाँ कहीं समयसार में लिखा है यह व्यवहार है, मिथ्या है उसका अर्थ लेना कि यह जो उपचार वाला व्यवहार है सो मिथ्या है, निश्चयनय प्रमाण का अंश है और व्यवहारनय भी प्रमाण का अंश है ये दोनों मिथ्या नहीं । ये मिथ्या कब होते? जो व्यवहारनय की प्रतीति त्यागकर निश्चयनय को कहा जाये तो निश्चयनय मिथ्या और निश्चयनय की प्रतीति त्याग कर व्यवहारनय को कहा जाये तो व्यवहारनय मिथ्या । किंतु उपचार है वह जो पर कर्तृत्व और परस्वामित्व की बात कहता है ।
688―निमित्तनैमित्तिकयोग के कथन का निष्कर्ष कर्तृकर्मत्व का अभाव―ध्यान में यह रखना कि जहाँ कर्ताकर्मभाव है वहाँ निमित्तनैमित्तिकयोग कभी नहीं होता और जहाँ निमित्तनैमित्तिकयोग है वहाँ कर्ताकर्मभाव कभी नहीं होता । कर्ता कर्मभाव होता है उपादान उपादेय में । प्रत्येक वस्तु अपने परिणमन को करती है । यह कर्तृत्व भाव की मुद्रा है और निमित्तनैमित्तिक योग की मुद्रा यह है कि अमुक अनुकूल निमित्त के सन्निधान को पाकर उपादान ने अपने में अपनी परिणति से यह प्रभाव बनाया । तो जहाँ निमित्तनैमित्तिक योग है वहाँ कर्ताकर्मभाव नहीं, जहाँ कर्ताकर्मभाव है वहाँ निमित्तनैमित्तिक योग नहीं रहता । यहाँ यह देखें कि जीव में यह मोहभाव उत्पन्न होता किस तरह है । देखो एक कुंजी है सब पदार्थों में घटित होगी । किसी भी पदार्थ में यदि विषम परिणमन हो रहा है, विकार परिणमन हो रहा है तो नियम से वहाँ कोई अनुकूल निमित्त है । निमित्त सन्निधान बिना विकार विषम परिणमन हो नहीं सकता । कोई भी ऐसा दृष्टांत उदाहरण न मिलेगा कि अन्वय-व्यतिरेकी निमित्त के सान्निध्य बिना विकार परिणमन हो गया हो । इतना होने पर भी यह सदा ध्यान में रखने की बात है कि निमित्तनैमित्तिक योग की बात कही जा रही है वहाँ कर्ता कर्मभाव रंच नहीं होता, क्योंकि जहाँ दो वस्तुओं में निमित्तनैमित्तिक की बात होती वहाँ दो वस्तुओं में परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं होता । एक में, स्वयं में निमित्तनैमित्तिक योग नहीं । कहा है कर्तृत्वकर्मभाव ।
688―कर्मदशा होने में जीवपरिणाम का निमित्तनैमित्तिक भाव―इस जीव ने पहले जो परिणाम किया था अपने अज्ञान मोहरूप उन परिणामों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें दर्शन मोहरूप परिणम गई थीं याने मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक᳭प्रकृति आदि का बंध होता नहीं कभी लेकिन बँधे हुए दर्शन मोह के जिस समय उपशम सम्यक्त्व होता है उस समय दबी हुई हालत में भी तीन भेद हो जाते हैं मिथ्यात्व तो है ही, सम्यग्मिथ्यात्व ओर सम्यक्प्रकृति और बढ़ जाते हैं । जैसे दरती में (चक्की) चने की दाल दलते हैं तो उसमें कुछ चूरा हो जाता है, कुछ की दो दालें बन जाती हैं और कोई चने साबुत (समूचे) भी निकल आते हैं, ऐसे ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व यंत्र द्वारा जो दर्शन मोह (मिथ्यात्व) दला गया है उसके भी तीन हिस्से हो जाते हैं । इस तथ्य का अर्थ निमित्तनैमित्तिक भाषा में समझें । यहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्व का परिणाम हुआ वह तो निमित्त मात्र है और वहाँ दर्शन मोह के ऐसे तीन हिस्से हो गए । वहाँ जो चूरा है वह तो है सम्यक् मिथ्यात्व और जो साबुत (समूचा) रह गए वह है मिथ्यात्व प्रकृति । ये जो पहले के बाँधे हुए दर्शन मोह कर्म है वे उसी समय प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध को लिए हुए हो गए थे । उनमें जिसकी जब स्थिति आयी, अनुभाग फूटा, तो कर्म की बात कर्म में हो रही, कर्म से बाहर नहीं, दर्शन मोह का जो विपाक हुआ तो वह मोहनीय कर्म में बन रहा । इस बात को सुनकर आश्चर्य यों होता होगा कि कर्म तो अचेतन है उसमें क्या बन रहा? उसका अनुभवन नहीं है मगर परिणाम विपाक तो रहता है जैसे बहुत से पुद᳭गल पदार्थ जल गए, उनकी नवीन अवस्था बनी ऐसे ही उदयकाल में उस कर्म में एक ऐसी विद्रूप अवस्था बनती है और यहाँ यह अवस्था बनी कि चूंकि यह उपादान अशुद्ध है उपयोग-वान तो है ही सो इसकी स्वच्छता में वह प्रतिबिंबित हुआ और वह इस ढंग से हुआ कि यह जीव अपने उपयोग को उस रूप में मानने लगा । इस तरह मोहभाव हुआ, जिस मोहभाव, जिस तरह वह झलक हुई, कर्मविपाक का जैसा प्रतिफलन हुआ उस रूप अपने को अज्ञानी ने माना । यह विवेक रखना कि जीव ने तो ज्ञान विकल्प को ही किया और कर्म ने उस मोह अनुभाग को किया मगर कर्मानुभाग का एक ऐसा निमित नैमित्तिक संबंध है कि उसके प्रतिफलन के काल में जीव ने अपनी परिणति से विकल्प किया । यदि ऐसा निमित्त नैमित्तिकयोग न हो और केवल मात्र निरपेक्ष निमित्त सन्निधान बिना अपनी योग्यता से यह जीव मोह करता है तो वह योग्यता नित्य हो जायेगी । नित्यता का प्रसंग आयेगा ।
689―निमित्त नैमित्तिकयोग के यथार्थ परिचय का महत्त्वपूर्ण कदम―निमित्त नैमित्तिकयोग की दृष्टि से विकार में परभाव की पहिचान बनती । ये परभाव हैं, नैमित्तिक हैं हेय हैं इनसे संबंध नहीं जोड़ना है इनसे उपेक्षा करें । ये जीव में बद्ध हैं । केवल जीव की बरबादी के लिए होते हैं, आघात के लिए होते हैं, ये मौज के लिए नहीं ऐसा ज्ञान होता है, निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय के बल से । तो बना क्या? वहाँ दर्शन मोह प्रकृति का उदय हुआ । यहाँ यह जीव उसे अपनाने लगा, इनको विकल्परूप से करने लगा । यह घटना घट रही है । इस जीव की अनादिकाल से यह घटना घटती चली आ रही है । इस घटना की दृष्टि से देखा जाये तो दिखता है कि यह जीव मोही है, लेकिन जब स्वभावदृष्टि से देखा तो स्वभाव क्या है? क्या जीव में मोह करने का स्वभाव हैं ? नहीं । स्वभावदृष्टि से देखा तो कहना होगा कि जीव न मोह करता, न राग करता, न द्वेष करना, न चलता फिरता, न खाता पीता, कुछ भी क्रिया नहीं करता । वहाँ बाह्य विकार का, विभाव का कोई प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि स्वभाव स्वयं कैसा है? वह स्वभाव ज्ञान में मिलता जा रहा है कभी-कभी अचानक लोग प्रश्न करते कि खाता पीता कौन है? जीव तो खाता पीता नहीं, पुद्गल भी खाता पीता नहीं, पर है क्या? खाना पीना माया है, पर माया ही माया को खाने पीने की बात कर रही । जीव खाये पिये कैसे, वह तो अमूर्त है, पुद᳭गल खाये पिये कैसे? यदि पुद᳭गल खाता तो मुर्दा क्यों नहीं खाता? जो और बाकी पुद्गल पड़े हैं वे क्यों नहीं खाते पीते । पुद᳭गल भी नहीं खाता पीता, किंतु एक संपर्क में ऐसी माया बन गई है कि वह खाना पीना भी माया है यह बात घट रही है । तो जीव को जब स्वभाव दृष्टि से देखा तो क्या कहा जाये? जीव में मोहपरिणाम तो होता, पर जीव ने मोह परिणाम नहीं किया । जो निरपेक्ष होकर स्वयं अकेला परसंपर्क बिना कर सके समर्थ तो असली वह कहलाये । जीव के सामर्थ्य हैं रहना की ये विकार जीव के स्वरूप नहीं, औपाधिक हैं, एक स्वरूपदृष्टि से देखा तो नजर आया कि जीव में मोह नहीं है । ये दोनों बातें तथ्य की हैं किंतु अपनी लक्ष्यभूत मंजिल यहाँ नहीं है सर्वविकल्पातिक्रांत होकर स्वरूपगुप्त होने का लक्ष्य है । नय के विभाग प्रकरण में दो को लेकर चल रहे हैं । लेकिन जो स्वरूप गुप्ति पुरुष हैं अनुभव की बात उस सहज चैतन्यस्वभाव ज्ञानमय स्वभाव में लेने से जो गुप्त हो गए हैं वे क्या कर रहे हैं अंदर? उनके क्या निश्चय विकल्प है? समस्त नय पक्षपात को छोड़कर एक इस समयसार का अनुभव करते हैं और समयसार क्या है इसका वहाँ अनुभव चला रहा है ।
690―कर्तव्य का निर्देशन―करने को काम यहाँ क्या निकला कि भाई मोह नैमित्तिक है, परभाव है, औपाधिक है, यह हमारा स्वरूप नहीं, हम इसके करने वाले नहीं । और गजब की बात देखो कि इसे आत्मा नहीं करता, पुद्गल नहीं करता, कर्म नहीं करता और हो सब रहे, एक ऐसा हौआ बन रहा कि जिसका कोई वारिस नहीं, जिसका कोई जिम्मेदारी से वचन देने वाला नहीं, ऐ रागभाव तुम घबड़ावो नही, तुम्हें कोई मिटने न देगा, ऐसा कोई जुम्मा नहीं ले सकता । कर्म की वह परिणति नहीं तो जुम्मा ले क्या? जीव का स्वभाव नहीं तो जुम्मा ले क्या? यह सब अज्ञान बन रहा । कर्म प्रतिफलन को, कर्मरस को यह जीव अपनाता जा रहा है । जो अपनाया जानो है वह है जीव की परिणति और जो वास्तविक कर्मरस है वह है कर्म की परिणति । परतंत्रता यह ही तो है और क्या है । कोई गाय का बछड़ा जन्मा हो तो मालिक उसे घर ले जाने के लिए क्या करता है कि बछड़े को अपनी गोद में उठा लेता है और आगे-आगे चलता जाता है, गाय उसके पीछे लगी भागती चली जाती है । वहाँ वह मालिक गाय को गिरबाँ से बांधकर नहीं ले जाता । चूंकि उस गाय को उस बछड़े में प्रेम है सो वह बछड़े से बंधी नहीं है किंतु उस बछड़े के प्रति जो उसके विकल्प लग रहा उससे वह बंध गयी । अब जो बंध गयी तो देखो गाय उस बछड़े के पीछे-पीछे जा रही है । यह ही तो बंधन यहाँ चल रहा है । कर्म का और जीव का तो निमित्तनैमित्तिक बंधन है और उपचरित कारण से जो बंधन है वह विषयभूत बंधन है । चूंकि उसमें राग लगाया, उसमें अनुराग किया तो हम उसके अधीन बन गए । लोग अपने को बड़ा दुःखी समझते और अपने दुःख का कोई न कोई कल्पना से कारण बना डालते हैं । जब इस जीव ने देखा कि उपादान में यह जीव है तो अपनी कल्पना से कुछ न कुछ बात गढ़ लेता और दुःखी होता रहता । क्या दुःख है इसको? थोड़ीसी जगह का परिचय है । तीन लोक कितना बड़ा है । 343 घनराजू प्रमाण लोक है । जरासी जगह में लोभ में अपने आपको संसार परिपाटी में क्यों डाला जा रहा है? कितने जीव हैं? अनंतानंत, और परिचय में आया हुआ कितना लोक है? इसका तो कोई परसेन्टेज ही नहीं बैठता । इतने से जरा से जीवों में जिन में रह रहे हैं, जिस संग प्रसंग में रह रहे हैं उनको ऐसा मानकर कि अच्छा करने के लिए, बुरा करने के लिए, विधि करने के लिए, निषेध करने के लिए एकदम उपयोग से तुलकर बैठ गए । अरे इतने से जीवों में अगर रागद्वेष मोह करने की बात न बने तो उससे क्या बिगड़ता? अरे कितने जीवों में तेरा यश हो गया । यश तो कुछ है नहीं एक मानने-मानने की बात है । सभी मनुष्यों में यश हो तब तो तेरी शान है मगर है क्या? वहाँ कितने लोग हैं, कितना क्या है? संस्थान विचय नाम का धर्मध्यान जिसकी पूर्णता साधुपद में होती है उसमें एकदम साधुवों को तीन लोक तीनकाल की सब मुद्रा, सब स्वरूप सामने रहता है इसलिए उनके वैराग्य में वृद्धि रहती है । इतनीसी जगह में क्या करना इतने से समय के लिए क्या करना? अरे बड़े सुयोग से यह मनुष्य जन्म पाया है तो इसमें आत्महित की बात करना है । इतने विवेक से रहना है कि कहीं मेरा कुछ बिगाड़ न हो जाये । मोक्षमार्ग के लिए अपनी धुन बनी रहे । दर्शन मोह का आस्रव बंध यह ही तो दुःखी करने वाला है और दर्शन मोह का केवलीश्रुतसंघ इनका अवर्णवाद वह दर्शन मोह के आस्रव करते हैं, ऐसी क्रिया से दूर रहें और अपने आपके स्वभाव की आराधना के लिए उमंग रखें ।
691―भ्रम की विडंबना से हटकर स्वभावाभिमुख होने में आत्मलाभ―यहाँ कोई किसी का कुछ है नहीं, व्यर्थ का ही एक हठ बनाते हुए पर का आश्रय रखते । हमारा तो यह ही शरण है, हमारा तो यह प्राण है, हमारा तो यह ही सब कुछ है । अरे कोई किसी का कुछ नहीं । हम अपने ज्ञान से दुःखी हो लें, सुखी हो लें, शांत हो लें, यह सब तेरी कला का प्रताप है तो बातें दोनों चल रही । घटना व स्वभाव याने परिणमन और स्वभाव । क्या परिणमन को मना किया जायेगा? क्या स्वभाव को मना किया जायेगा? स्वभाव नहीं तो परिणमन कहाँ ठहरेगा, परिणमन नहीं तो वह वस्तु कहां रहेगी और परिणमन में जो विकार परिणमन है वह नैमित्तिक है तब ही वह हेय है, जो स्वभाव परिणमन है वह एक सहज है । दो बातें हैं कर्ता कर्मभाव एक का दूसरे में है नहीं, हो ही नहीं सकता । वस्तु का सत्त्व है और विकार परिणाम में निमित्तनैमित्तिक योग चल रहा है । निमित्तनैमित्तिक योग बिना विकार परिणमन होता नहीं । तो निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय से तो यह शिक्षा लेना कि ये विभाव, ये विकार नैमित्तिक हैं, हटा है, मेरा इनसे कोई काम न सरेगा । मेरे लिए ये शरण नहीं हैं, ये स्वयं अशरण हैं, हुए और मिट गए । राग हुआ वह मिटा, अब दूसरा राग हुआ, जो राग परिणाम हुआ वह तुरंत मिट गया । इस क्षण भर रहने वाले राग को जो अपनाये उसे अनंत संसार में भटकना होगा । जो विकार परिणाम होते हैं उनसे हटना है और फिर वस्तु के उस सहज स्वभाव को निरखें जो अत्यंत स्वतंत्र सहजभावरूप है, जिसमें किसी की अपेक्षा नहीं । ऐसे उस सहज स्वभाव को देखें ।
692―सहज स्वरूप की रुचि में उद्धार―बस दो ही काम करने के हैं (1) विभावों से उपेक्षा करना और (2) स्वभाव में लगना । स्वभाव से च्युत होकर विभाव को अपनाने रूप ही तो जीव ने मोह किया । मोह नाम अज्ञान का है, मोह और राग में अंतर है, राग तो ज्ञानी के भी हो जाता, पर मोह ज्ञानी के नहीं होता । अज्ञानी के मोह भी रहता और राग भी रहता । इसमें क्या अंतर आया? जरा एक दृष्टांत से समझो । कोई रईस बीमार हो गया तो उसकी उस बीमारी के समय में कमरा बड़ा अच्छा सजाकर रखें, सुगंधित रखें, गंदा वातावरण न हो, पलंग स्वच्छ रखें, गद्दा बड़ा गुदगुदेदार रखें, डाक्टर का ठीक-ठीक प्रबंध हो, समय पर दवा हो । मित्र जन सहानुभूति दिखाने के लिए खूब आते जाते हैं कुछ नौकर चाकर भी बढ़ा दिए जाते । भला बतलावो उस बीमार रईस को कितना आराम के साधन दिए गए, लेकिन उस बीमार से पूछो तो जरा, उसकी क्या हालत हो रही है? उसको राग तो बना है सबमें अगर गद᳭दा कठोर हो तो वह चिल्लायेगा, तो राग है न उस गद्दे से? और डाक्टर को न बुलाया जाये तो कहेगा कि झट बुलावो, राग है तब ही तो चिल्लाता है । औषधि के लिए राग तो है तब ही तो वह औषधि देने के लिए कह रहा, पर इन सब बातों में उस बीमार को मोह है क्या? नहीं । मोह की मुद्रा है कि उस राग को चाहना । मुझे ऐसा पलंग, ऐसी दवा, ऐसे साधन जिंदगी भर मिलते रहें, ऐसा वह चाहता है क्या? दवा राग से पीता है मगर मोह से पीता क्या? अरे वह तो इसलिए दवा पीता कि यह दवा पीना जल्दी कब छूटे । दृष्टि में देखो कितना अंतर है । तो ऐसे ही जरा अपने हृदय को तो टटोलो । क्या इंद्रिय के विषयों में जब-जब जुटते हैं तब-तब क्या भाव रहता है? बेसुधी रहती है, आसक्ति रहती है या उसमें मौज रहता है । मेरी जिंदगी ऐसी ही बीते, यह भाव रहता है क्या? आफत आ रही है, उससे निपट रहे हैं यह भाव रहता है । भावों को तौल लीजिए । जो कुछ होगा वहाँ सब भावों के अनुसार बात चलती है ।
693―ज्ञानी की अपनी हित चेष्टा की स्थिति―आज संहनन विशेष नहीं, योग्यता सामर्थ्य विशेष नहीं, अभी धीरता आयी नहीं तो वह अपनी अव्रत अवस्था में रहता है, पर अव्रत अवस्था में रहते हुए जिसने इस सहज चैतन्य स्वभाव का अनुभव किया है वह हर परिस्थिति को मौज के रूप से नहीं अंगीकार करता, किंतु 'गले पड़े बजाये सरे' के ढंग से करना पड़ता है । एक कहावत सब बोलते हैं, किसी को समझाना हो तो कहते कि भाई तुम उसके पीछे क्यों लग रहे? तो वह कहता कि क्या करें, गले पड़े बजाय सरे । इसका मतलब क्या? तो देखा होगा कि होली फाग के दिनों में लोग हँसी मजाक के खेल खूब खेलते हैं, कोई किसी का मुख काला करके गधे पर बैठाता, कोई मुर्दा सा बनकर अपनी ठठरी निकलवाता, लोग राम-राम सत्य है की आवाज लगाते, खूब हंसी खेल करते । फाग के दिनों में ये सब बातें चलती हैं । तो उन दिनों में किसी पुरुष ने किसी दूसरे की मजाक करने के लिए उसके गले में ढोल डाल दिया इसलिए कि वह शरम के मारे झेंप जाये, इसीलिए तो सब फाग में करते हैं कि शर्मिंदा हो जाये, मगर उसने तत्काल ख्याल किया कि दो छोटी लकड़ियां उठायी और खूब नाच नाचकर उसे बजाना शुरू कर दिया । मतलब क्या निकला कि जो झेंप के लिए उसने किया था वह बदल दिया । और खुद ही ऐसा खेल दिखा दिया कि उसको झेंप किसी ने स्वीकार न किया । तो यह है गले पड़े बजाये सरे । तो इसी तरह जो जो परिस्थितियाँ आ पड़ती हैं उन सब परिस्थितियों में ज्ञानी क्या करे? अगर कोई ज्ञानी गृहस्थ है तो वह कमाई न करेगा क्या? करेगा । और कमाई करने के लिए दुकान जायेगा तो क्या इतना विकल्प न उठेगा कि यह बिके, इतना लाभ हो । होता है, पर यह सब होते हुए भी यह जान रहा है कि ये सब मेरे कुछ नहीं लगते । वह तो परिस्थिति है, घर में रहना पड़ता है, वहाँ खाना पीना है, वहाँ रहना है, ये सब काम करने पड़ेंगे, याने इतनी महज उपेक्षा हो तब समझो कि हमने कुछ पाया । अभी तक इतनी बात बन सकी क्या?
694―मोह में उद्धत ज्ञानविरुद्ध चेष्टावों के परिहार में लाभ―मिथ्यात्व में ही, प्रीति में, मौज में, कुछ से कुछ कहा जाये, अच्छा भी कहा जाये, बुरा भी कहा जाये, कभी पागल अपनी स्त्री को स्त्री भी कहता, कभी माँ भी कहता, माँ को कभी स्त्री कहता, मां भी कहता, उसके भीतर में कोई सच्ची प्रतीति नहीं है, और एक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष अपने चैतन्यस्वरूप को प्रतीति में बराबर बनाये है, उसकी प्रतीति कभी नहीं मिटती, उपयोग बराबर होता है उस स्वभाव दर्शन का । तो यह बेसुधी क्या है? मोह है, वह अहेतुक नहीं । अगर अज्ञान है तो वह बेसुधी कभी न मिटेगी । कदाचित् मिट भी जाये तो उस मिटने का कोई फायदा नहीं । दृष्टि में भी आ जाये तो यह समझना कि यह मोहभाव किस तरह से रचा हुआ है । यहाँ तो इस वस्तुस्वरूप की बात है ही कि प्रत्येक पदार्थ अपनी परिणति से परिणमता रहे । अभी यह बिजली जल रही, ये पदार्थ प्रकाशित हो रहे तो क्या लट्टू का तार अपनी जगह से हटकर उस पदार्थ में आया, या वह पदार्थ उससे प्रार्थना करने गया कि हमें प्रकाशित कर दो । एक ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है कि ये पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं । अत्यंत भेद है इन दोनों पदार्थों में । आत्म जान रहा है इन पदार्थों को तो कहीं ये ज्ञेय पदार्थ आत्मा को प्रेरित नहीं कर रहे कि अरे हम अज्ञात पड़े हैं, तुम जान लो । और न आत्मा अपनी जगह से हटकर उन पदार्थों को जानने जाता है, यह यहाँ पड़ा है वह वहाँ । पर ऐसा विषय विषयी संबंध है कि यह ज्ञायक है और वे विषयभूत हो रहे । इतनी सी बात है पर ये विकल्प आये कहाँ से? सीधा नाता तो यह है इस जीव से पर पदार्थ के साथ, कि आत्मा ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय हैं । फिर राग होता क्या है? उसका उत्तर यह है कि यह सब अज्ञान की परिणति है, जहाँ वह स्वातंत्र्य समझ में न आया तो वह अज्ञान से कुछ से कुछ मान लेता है, तो यह मोहभाव क्या है? यह मोहभाव नैमित्तिक है, हेय है, औपाधिक है, मेरी चीज नहीं है, मेरा स्वभाव नहीं है, पर कर्म विपाक का निमित्त सान्निध्य पाकर यहाँ ज्ञान का विकल्प बनता है । जैसे गरम पानी है तो उसका हमने स्पर्श किया और वह तेज गरम लगा, बुरा लगा, अच्छा न लगा, तो अब यह बतलावो कि गर्मी किसमें है? जीव में गर्मी है या पानी में? गर्मी का तो व्याप्य व्यापकभाव उस पानी में चल रहा, तो फिर आत्मा में क्यों इतनी वेदना हुई? बात यह हुई है कि वह उस प्रकार के अनुभव कराने में विषयभूत है । अनुभव किया, जीव ने उसका ज्ञान किया और उसमें विकल्प बना, वेदना हुई मगर इतना होने पर भी यह जीव तो अपने ज्ञान विकल्परूप वेदना में ही व्यापक है । और, उष्णता उस पानी में व्यापक है, तो ऐसा तो एक विषय विषयी संबंध है ईमानदारी से मगर उससे अधिक बढ़कर जीव ने अपने में क्या करतूत कर डाला? यह मोहभाव, यह अज्ञानभाव, कैसा अज्ञानभाव कि कर्मरस तो कर्म में उदित है मगर स्वच्छ होने के कारण प्रतिफलन जैसी बात तो ठीक है, यह तो विषय विषयी की बात है । वहाँ यह जीव के प्रतिफलन को अपनाने लगे तो प्रतिफलन को अपनाने का कर्ता तो बन गया जीव, मगर कर्म का कर्ता नहीं है, कर्म के विपाक का कर्ता तो बन गया कर्म, मगर जीव के ज्ञान के विकल्प का कर्ता नहीं बनता, मगर निमित्तनैमित्तिक योग से ये सब घटनायें चल रही हैं ।
695―विकल्प मुक्त होने व स्वरूप में रमने का उपाय सम्यग्ज्ञान―यह ज्ञानी तक रहा है कि इस ओर से देखें तो यह जीव मोही है और स्वभाव से देखें तो इम जीव के मोह नहीं है । तो मोह है यह भी नय पक्ष है, मोह नहीं है यह भी नय पक्ष है, अब तत्त्ववेदी पुरुष क्या करता है? दोनों विकल्पों से हटकर एक उस सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव करता है । क्या करना? ज्ञानविरुद्ध सब चित्त से हटा लें । अच्छा या बुरा कुछ भी दिल में स्थान न दें । मेरे लिए कहीं कुछ नहीं । जैसे कहते हैं ना, 'करि विचार देखो मन माही, मूदहु आख कितउँ कुछ नाहीं ।' यह रामायण की एक चौपाई है, यह प्रकरण में कही गई कि जब श्री परशुराम लक्ष्मण का सम्वाद छिड़ा हुआ था । तो उस समय परशुराम अत्यंत क्रुद्ध हुए और बोले कि ऐ लक्ष्मण तू हट जा मेरे सामने से, तुझे देखकर मेरे हृदय में क्रोध बढ़ रहा है, तो वहाँ लक्ष्मण ने यह बात कही थी कि हे परशुरामजी करि विचार देखो मन माहीं, मूदहै आंख कितउँ कुछ नाहीं, यह तो वहाँ की बात है मगर इससे अपने लिए क्या हित की बात लेवें कि अपने को व्यर्थ दुःखी न बनावें, अपनी आँख मूँद ले याने अपने ज्ञान विकल्प को बंद कर दें और अपना जो एक चिद्विलास है उसे ज्ञान में आने दें । क्यों यहाँ वहाँ की बात सोचकर विकल्प करते दुखी करते? और विकल्प को त्यागकर एक सहज चैतन्य स्वभाव में, यह मैं हूँ इस प्रकार का आग्रह करके बैठें तो क्षण भर में ही इस भगवान आत्मा का अपने में दर्शन होगा ।
696―विशुद्ध आग्रह का परिणाम―आग्रह के संबंध में एक जगह एक किम्वदंती आयी है कि कोई एक ब्राह्मण एकादशी का व्रत किया करता था । तो उसमें वह क्या करे कि अपने लिए पाव भर की रोटी बना ले और फिर भोग लगावे मायने उसके जरा से टुकड़े तोड़कर घी गुड़ लगाकर आग में चढ़ाये और फिर खाना खा ले । तो उसके घर गायें पली थीं, उसके घर एक ग्वाले का बालक गोवें चराने को रहता था । तो उससे उस ब्राह्मण ने कहा बेटा आज के दिन तुम एकादशी का भोग लगा लो, तो वह ग्वाले का बालक बोला―आप तो कोई एक पाव भर आटा देंगे, वहाँ तो कृष्ण भी होंगे, हम भी होंगे, हम दोनों का पेट कैसे इतने में भर जायेगा? तो वह ब्राह्मण बोला अरे तुम तो पागल हो, भोग इसी तरह से लगाया जाता है । खैर वह ग्वाले का बालक एक पाव आटा लेकर भोग लगाने गया । पहले उसके दो टिक्कड़ बनाये । फिर भोग लगाया । वह आग्रह करके बैठ गया और बोला ऐ भगवान कृष्ण ! आवो-आवो, जल्दी आवो, तुम्हारा भोग लग गया, हमको बड़ी तेज भूख लगी है, जब तक तुम नहीं भोग पा लोगे तब तक हम न खावेंगे । तो वहाँ झट कृष्ण उपस्थित हुए, मानो यह कोई व्यंतर देवों का ही कौतूहल हो, ऐसा हो सकता । जब कृष्ण वहाँ उपस्थित हुए तो उस ग्वाले के बालक ने कहा देखो एक टिक्कड़ तुम्हारे हिस्से का है एक हमारे हिस्से का । तुमको एक ही टिक्कड़ मिल पायेगा नहीं तो हम भूखे रह जायेंगे । इसे खावो, फिर हम एक टिक्कड़ खा लेंगे । ठीक है । कृष्ण ने भोग पाया और यह कहकर गए कि इस बार जब भोग लगाना तो हम दो जने आयेंगे । जैसे मानो कृष्ण और राधिका । ठीक है । वह ग्वाले का बालक घर पहुंचा और ब्राह्मण से सारा हाल कह सुनाया और कहा कि वह कह गए हैं कि इस बार जब भोग करोगे तो हम दो जने आयेंगे सो कृपा करके इस बार आप कुछ अधिक आटा देना ताकि हम भूखे तो न रह जायें । ठीक है । दूसरी बार ब्राह्मण ने तीन टिक्कड़ बनाने भर का आटा दिया और कहा जावो भोग लगावो । वह बालक गया, तीन टिक्कड़ बनाया वहाँ भी वैसा ही आग्रह करके बैठ गया तो वहाँ दो जने आये । एक साथ खाया और यह कहकर गए कि इस बार जब भोग लगावोगे तो हम एक बड़े समूह सहित आयेंगे । ठीक है । वह बालक घर गया और ब्राह्मण से सारा हाल बताया और यह कह दिया कि वे दोनों यह कहकर गए हैं कि इस बार हम समूह सहित आवेंगे सो कृपा करके आप इस बार काफी सामान देना ताकि हम पहले की तरह भूखे न रहें ! ठीक है । ब्राह्मण ने सोचा कि देखो हमने तो जिंदगी भर खूब भोग लगाया पर उसे खाने कोई न आया, यह बालक क्या कहता? पता नहीं झूठ कहता या सच, सो इस बार छिपकर देखना चाहिए । खैर इस बार ब्राह्मण ने खूब पूड़ियाँ बनाकर भोग लगाने भेजा । वहाँ वह बालक पहले जैसा ही आग्रह करके बैठ गया तो वहाँ सारा समूह इकट्ठा हुआ, सभी ने भोग पाया । यह दृश्य उस ब्राह्मण ने छिपकर देखा तो बड़े आश्चर्य में पड़ गया । तो इस किम्वदंती में देखना है सच्चे आग्रह का फल । ठीक ऐसा ही आग्रह करके बैठना होगा । अपने उस अनादिअनंत अहेतुक चैतन्यस्वरूप को पाने के लिए । अपने आत्मस्वभाव की प्राप्ति के प्रति उल्लास हो, बाकी तो सब औपाधिक बातें हैं, वैभाविक हैं, उनसे मेरा कुछ वास्ता नहीं ।