वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 7
From जैनकोष
अत: शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् ।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति ॥7॥
109―हमारी स्थिति और कर्तव्य―अपने आपको चाहिए क्या? शांति । उस शांति को पाने के पुरुषार्थ में एक यही मार्ग नजर आता है कि जो अपनी शांति का धाम है उसकी ओर लगा जाये । जीव है और यह जीव किसी न किसी अवस्था में रहता है । 9 तत्त्व जो बताये गए हैं जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप । इनमें से कोई न कोई अवस्था जीव की रहती है । कोई जीव ऐसा न होगा कि इन 9 में से कोई भी अवस्था न हो । कर्मों से मुक्त हो गए तो वह हुई मोक्ष अवस्था, संसार में ज्ञानी आत्मा है तो उसकी संवर निर्जरा अवस्था है, और कुछ ज्ञानियों की आस्रव बंध की भी अवस्था है । अज्ञानियों की आस्रव बंध की ही अवस्था है । जीव और अजीव जो मूल में दो तत्त्व कहे वे यहाँ अशुद्ध जीव रूप में कहे गये । यहाँ अशुद्ध का तात्पर्य सापेक्षता से है और बहुश: परिणति से भी है अन्यथा आस्रव बंध आदिक नहीं बन सकते । वहाँ जीव ही ऐसा सामान्यरूप में देखा गया जो यों ही पर्याय योग्यता लिए हुए है । तो यह जीव इन 9 तत्त्वों में किसी न किसी अवस्था में रहता है । रहे, रहना ही होगा, किंतु यहाँ यह ध्यान देना कि हमारा जो यह उपयोग है―ज्ञान, यह किस तत्त्व को विषय करे, किसमें धुन किसमें लगन बनाये, किसमें रमे कि यह उपयोग फिट बैठ जाये? जैसे जिस जगह का जो पेंच है घड़ी में या रेडियो आदिक में, जब उस पेंच को उसी जगह लगाते हैं तो फिट बैठ जाता है और दूसरी जगह लगावें तो वह फिट सा नहीं बैठता । अपना यह उपयोग ज्ञान हम किस विषय में लगायें कि यह समरस बने, शांत बने, निस्तरंग बने, निराकुल बने? पर्याय तो रहेगी, मगर यहाँ विषय की बात कह रहे कि वह कौनसा विषय है जिसका ध्यान करने से उत्तम समाधि बने?
110―अंतस्तत्त्व के आश्रयण में शांति की संभवता―प्रयोग करके परख लेना चाहिए कि हम किसी बाहरी पदार्थ में उपयोग जब लगाते हैं तो यह फिट नहीं बैठता, हट जाता, स्थिर होकर नहीं रहता, एकरस नहीं बनता, इसका कारण क्या है कि मैं हूँ स्वयं कुछ और, विषय बनाया जा रहा परद्रव्य । बनाये जाने की बात की जा रही है । प्रभु तो तीन लोक तीन काल को विषय करते हैं, बनाते नहीं हैं । वहाँ सहज ऐसा ही प्रतिफलन चलता रहता है, पर यहाँ हम आप जीवों की स्थिति ऐसी है कि उपयोग लगाया करते हैं । अच्छा, अब परद्रव्य न सही, एक स्व की ही बात है, यहाँ स्व में जो एक पर्याय है, तत्त्व है, तत्त्व का स्वरूप है, अवस्था है, इन अवस्थाओं पर हम उपयोग लगाते हैं तो उपयोग जमकर नहीं रहता, फिट नहीं बैठता । वह कौन सा तत्त्व है फिर जहाँ यह उपयोग एकरस हो जाये? जैसे―पानी में नमक डालते हैं तो वहाँ नमक घुल जाता, एकरस हो जाता ऐसी स्थिति पाने के लिए हमको कहीं ध्यान देना है? तो कभी 9 तत्त्वों का आश्रय, ध्यान, परिचय, परिज्ञान ये सब प्रयोजनवान हैं, क्योंकि ये तीर्थ कहलाते हैं और फिर उस अभेद निर्विकल्प सहज चित्स्वरूप में जमें, वह तीर्थ फल होगा । तो 9 तत्त्वों में रहने पर भी यह चित् अपनी एकता को नहीं तजता अर्थात् सदा रहता है, सर्वत्र रहता है । जैसे आम में रंग पलटता है, सबसे पहले काला था, फिर नीला हुआ, फिर हरा हुआ, फिर पीला हुआ, लाल हुआ, फिर सड़ जाने पर सफेद हुआ, ये सब रंग आम में पलटते हैं तो रंग तो पलटे, किंतु वह जो पलट है सो काले, पीले, नीले आदिक पर्याय की है, पर उसमें रहने वाली जो एक रूपशक्ति है वह रूपशक्ति काले रूप में थी, फिर उसी का व्यक्तरूप हरा, नीला आदिक बन गया । तो जैसे रूपशक्ति सर्वत्र है ऐसे ही इन 9 तत्त्वों में जो चिद्रूपता है, चैतन्यशक्ति है, सहज आत्मस्वभाव है वह सर्वत्र है, पर वह ढका हुआ है । यहाँ पर्यायों में न अटककर ज्ञानकला है ऐसी कि सीधे अंतस्तत्त्व पर ले जाये तो वहाँ फिर यह सहज आत्मतत्त्व जो शुद्धनय से प्रकट हुआ है, मायने जो ज्ञान जानने में आता है सो यह है ही । मगर जानने में नहीं आ रहा था, नवतत्त्व से ढका हुआ होने पर भी जानने में आये अपना स्वभाव, ऐसा वह स्वभाव हमारे ध्यान का लक्ष्य विषय होना चाहिए ।
111―देहादि में न अटक कर सीधा ज्ञानस्वरूप को जान लेने की ज्ञानकला―ज्ञान में ज्ञानकला है ऐसी कि जिसका लक्ष्य बनाया, सीधा उस ही तक पहुँच जाये । जैसे घर में आप कोई चीज रख आये संदूक में, उसके भीतर की पेटी में कपड़े में बाँधकर, जब यहाँ आप उसका ज्ञान करना चाहते हैं तो वह कहीं नहीं अटकता । सीधा उस ही चीज को देखता है । चाहे बीच में कितनी ही चीजें आड़े आये, परंतु लक्ष्य होने पर उन सबको पार करके उस लक्ष्य पर पहुँच जाता है । तो हमें समझना क्या है? अपने आपका सहज स्वरूप । सहज स्वरूप के मायने क्या? जो केवल मैं आत्मा होऊं । केवल तो है ही, अब भी है मगर संसर्ग में है, उपाधि में है, उस केवल में जो स्वभाव है वह मैं हूँ, ऐसा अपने आपका ध्यान देना । जो भी चीज होती है उसका अपने आप निरपेक्ष स्वरूप होता है । किसी पदार्थ की सत्ता किसी दूसरे पदार्थ की दया पर नहीं रहती । जो है स्वयं है, निरपेक्ष है, अपने आप है, और उसका स्वरूप स्वभाव होता है, पर यह जीव और पुद्गल की ऐसी स्थिति है कि वह अशुद्ध हो तो अन्य उपाधि का सन्निधान पाकर वह विकार परिणाम से परिणत होता है, मगर जब स्वरूप देखा तब तो उसके कैवल्य का विचार करना होगा । जैसे यहीं एक चौकी है तो चौकी का असली रूप क्या है? आज तो उसमें रंग रोगन लगा है, यहाँ इसका असली रूप ढका है । भले ही ढका रहे, पर इसका मूल में कुछ असली रंग है कि नहीं? जैसे जब बढ़ई बनाता है उस समय की जो चौकी की स्थिति है वहाँ उसका असली रूप है । अब उस पर रंग रोगन आदिक जो जमा, वहाँ उसका असली रूप ढक गया । इस ढकी स्थिति में भी क्या हम इस ज्ञान के द्वारा इसका असली रूप सामने नहीं ले सकते अपनी बुद्धि में? ऐसे ही हम अपनी बुद्धि में अपने सहज स्वरूप को अपने भीतर में जान सकते हैं ।
112―स्वच्छ उपयोग की कर्मपरिहरणस्वभावता―यद्यपि हम आप बहुत फंसे हुए हैं, शरीर के बंधन में, कषाय के बंधन में, उपाधि के संसर्ग में ऐसी स्थिति होनेपर भी अगर सुमति जगे, पौरुष करें, आखिर ऐसी दृष्टि, ऐसा ज्ञान, ऐसा अभ्यास बनायें तो यह ही अभ्यास तो अनंतानुबंधी का छेदन करने का निमित्त बन जाता है । यद्यपि 7 प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम हुए बिना सम्यक्त्व नहीं जगता, ये उसके निमित्त कारण हैं । मगर उनके क्षय क्षयोपशम बने, यह भी तो एक नई बात है । उसका भी तो कोई निमित्त होता है । तो थोड़ी सद्बुद्धि जगी, ज्ञानाभ्यास में लग गए, दृष्टि बनी रहे, अभी सहज नहीं बन रही, जबरदस्ती बन रही, कुछ हर्ज नहीं, कुछ ध्यान तो जग रहा, यह ही हमारी दृष्टि सविधि बनी कि उन कर्मों में हीनता आने का निमित्त बन जाती है । प्राय: जब चाहें, जब ख्याल आये, जब अवसर बने, हमें अपने को ऐसा अनुभवना चाहिये कि मैं सारे जग से निराला, देह से निराला, कर्म से निराला, कर्म के उदय होने पर जो प्रतिफलन होता है उससे निराला और प्रतिफलन में जो उपयोग लगता है, बुद्धि जमाता है, आत्मसात् करता है, उसे अपनाता है, उसमें कुछ फसता है, ऐसे फसाव से भी निराला मैं सहज चैतन्यस्वरूप हूँ । ऐसा इतना अधिक अंत: प्रवेश करके इस स्वरूप का ध्यान रखते हैं तो यही एक ऐसा बल है कि जो हम आपको सन्मार्ग में सुगमतया ले जाता है । देखिये―ये सब बड़े काम की बातें हैं । जैनशासन में आचार्य संतों ने जो-जो कुछ बखाना है वह सब प्रयोजनवान है । इस सब वर्णन से हमें आत्मदृष्टि पाने का अवसर मिलता है । परंतु लक्ष्य हमारा सही बने, थोड़ा बने, अंदाजा बने, अभ्यास बने फिर कभी वह ऐसा फिट बैठेगा, उसमें ऐसा जम जायेगा कि वह एक समरस होकर अद्भुत आनंद का अनुभव करेगा ।
113―स्वोन्मुख उपयोग की महती ऋद्धि सिद्धिरूपता―उपयोग अपने आपके सम्मुख बने इसका बहुत बड़ा प्रताप है । लोग तो बाहरी वैभव को ऋद्धिसमृद्धि समझते हैं । विश्व में ऐसे लोग बहुत हैं जिनको यह श्रद्धा है कि यह धन वैभव, यह इज्जत प्रतिष्ठा, ये ऊँचे-ऊँचे राज्य पद, ये ही हमारे सर्वस्व हैं । इनके बिना मैं कुछ नहीं हूँ, ऐसी श्रद्धा रखने वालों को यदि ऐसी चीजें न मिल पायें तो उनको मन ही मन बड़ी वेदना रहती है । लोक के बड़े-बड़े पद जैसे मिनिस्टर, राष्ट्रपति, संयुक्तराष्ट्रसंघ के उच्चपदाधिकारी आदि बन जाना, या चक्रवर्ती तक हो जाना आदि ये सब बाह्य बातें हैं, औपाधिक हैं, मायारूप हैं, ये कोई परमार्थ नहीं हैं, और मेरे लिए कोई हित की चीज नहीं है । मेरा हित तो अपने आपके स्वरूप का बोध और उसमें रमण है, इसका इतना उत्कृष्ट फल है कि इससे सिद्धपद मिल जायेगा । जो-जो ढंग बनता है इस युक्ति पूर्वक उसका इतना ऊँचा फल है । ये बाहरी प्रसंग कोई शांतिधाम नहीं, बाह्य चीजें हैं, आपके घर में रह रही हैं, वैभव है, परिजन है, सब कुछ है पर ये सब मिट जाते हैं । ज्ञानपूर्वक रहें तो अपना कुछ मिटता नहीं, अज्ञानपूर्वक रहें तो उससे इस आत्मा का भला नहीं होता । पुण्य पाप के अनुसार जब जो प्रसंग होना है होता है, मगर वहाँ ज्ञानदृष्टि रहे तो आपको ज्ञानदृष्टि का फल मिला ही, अगर अंतरात्मा का भी काम चल रहा है आत्मा का अंत: पौरुष रहे ऐसा तो वह बड़ा अच्छा है । हर स्थिति में, हर अवसर में इस जीव का शरण है तो अपना यह सहजस्वरूप । इसकी दृष्टि करना यह ही मात्र शरण है । जब इसमें नहीं रह पाते याने जान तो गए, लक्ष्य तो हो गया, मगर ऐसी स्थिति कभी-कभी बन पाती है, यदि उसमें स्थिर नहीं रह पाते, तो भी उस आनंदानुभूति की स्मृति का बड़ा प्रभाव है । वहाँ तीन बातें हैं―एक तो अनुभूति के स्मरण में ही बहुत आनंद बसा हुआ है । आनंदानुभूति जगे, कभी जगे तो वहाँ जो अद्भुत आनंद पाया था, स्मृति में उसके ध्यान में अपने पर गुजरी ना बात तो उसके स्मरण में ही बहुत बड़ा प्रताप है और फिर व्यवहारसंयम, व्यवहारचारित्र, व्यवहार की बात उसको यों आवश्यक हो गई कि जब उस समाधि में नहीं टिक सकते, अनुभूति में नहीं रम सकते तो ऐसी स्थिति में ऐसा उपयोग, यह मन पहले अज्ञान में किए हुए संस्कार के कारण यह कषाय की ओर उन्मुख हो जाता है । तो उसकी दवा है व्यवहारचारित्र । इसके बिना बतलाओ फिर कैसे प्रगति हो? समाधि में रत न रह सके उस समय इस जीव का क्या फर्ज हो जाता है? जिसको अपने अंतः की धुन लगी है उसकी स्थिति व्यवहार में, आचार में ठीक ही बनेगी, जिससे कि इस समाधि की पात्रता बनी रहे । तो यह हमारा अंत: स्वरूप जो अनादि से हो अंत: बसा हुआ है, यद्यपि ढका हुआ भले ही है, मगर मिट तो नहीं गया । चीज तो है जिसने अपने में उसका अनुभव किया, वह अतुल ऋद्धिसिद्धि संपन्न है ।
114―आत्मा की सुध में आत्मोपलब्धि―अनादि अनंत स्वरूप, सहजस्वरूप चैतन्यमात्र प्रतिभासस्वरूप एक ज्ञान को लेने का ही नाम आत्मा में उपलब्धि है । किसी के हाथ में कोई छोटा स्वर्ण का डला है या कोई आभूषण मुट्ठी में ही लिए है और कभी उसे भूल हो जाये कि पता नहीं कहां रख दिया वह आभूषण, तो वह अपने हाथ से बकस खोलकर इधर उधर ढूंढ़ता फिरता है, पर उसे वह कहीं नहीं पाता । हैरान होकर वह बड़ा दुःखी हो जाता है । कुछ देर बाद कदाचित उसे याद आ जाये और वह आभूषण उसे खुद की ही मुट्ठी में मिल जाये तो वह बड़ा खुश होता है । देखिये-जब तक उसे नहीं मिल रहा था वह आभूषण तब तक उसकी कितनी दयनीय दशा थी । वह कितना अपने को दीन हीन गरीब सा अनुभव कर रहा था, और वही भूल जब उसकी मिट जाती है, सही स्मृति हो जाती है, उसको खोई हुई चीज मिल जाती है तो वह बड़ा आनंद मानता है । ठीक ऐसे ही मेरा यह सहजस्वरूप, यह मेरा सर्वस्व कहीं बाहर नहीं गया है, कहीं मिटा नहीं है, अनादि से है, मगर जब उसको भूले हुए हैं तो वह नहीं के बराबर हैं, मेरे उपयोग में नहीं है । वह तो जिस-जिस परपदार्थ में उपयोग फँसाता है उस उसका प्रभाव अनुभव करता है, जैसे ही सुयोगवश अपने आपके इस सहजस्वरूप की दृष्टि हुई बस, इसके यह अनुभव पाया जाता है कि मैं यह हूँ, और जिस समय उसे इस तरह जाना कि मैं यह हूँ उस समय फिर यह सारा संसार उसे फोकट, नीरस, असार, भिन्न जचने लगता है । कहने वाले तो संसार में बहुत मिलेंगे कि यह जगत बेकार है, सब मायारूप है यह सब छूट जायेगा, ये सब भिन्न हैं, मेरा कुछ नहीं हैं, कुछ भावुकता भी आ जायेगी, पर यह स्पष्ट तब जचता है जब निज का सार अनुभव में आये । तो जो आत्मस्वरूप एकत्व में है, अपने आपके प्रदेश में है पूर्ण ज्ञानघन है, अन्य द्रव्यों से अत्यंत पृथक् है, इस रूप से उस आत्मतत्त्व का दर्शन होना यह है सम्यग्दर्शन ।
115―आत्मोपलब्धि के अर्थ शुद्धनय की कृपा―आत्मतत्त्व जिसे ज्ञान में प्राप्त होता है तो वह एक शुद्ध नय के अधीन होकर ही तो प्राप्त होता है, अभेद मार्ग में आकर ही तो प्राप्त होता है । उस समय यह आत्मज्योति, विभक्त आत्मा के अपने आपके स्वरूप में तन्मय यह ज्योति प्रकट होती है । मायने ज्ञान में अब यह दिखने लगता है । सो 9 तत्त्वों को प्राप्त है यह जीव फिर भी इसका आधार जो एकत्व है उस एकत्व स्वरूप पर दृष्टि जगे, ऐसा अपना भाव बने, वह लक्ष्य में आये तो ये संकट तत्काल दूर होते हैं । अनुभव में तो संकट तत्काल ही मिट गए, कुछ भान ही नहीं, इतना भी पता नहीं कि मैं कहाँ बैठा हूँ, किस वक्त बैठा हूँ, कुछ भी उसका विकल्प नहीं, केवल एक सहज चैतन्यस्वरूप ज्ञान में, यह स्थिति अभ्यास साध्य है, वही चारित्र का रूप है । अभ्यास करते-करते, उसको ज्ञान में जमाते-जमाते यह बात होती है । तो ऐसा यह ज्योतिस्वरूप अंतस्तत्त्व जयवंत हो । यह सहजस्वरूप मेरे स्वरूप में बसो । जो सहज शांति का धाम है । सहज शांति में ही जो विचरण करता है ऐसी यह ज्ञानघन ज्योति मेरे चित्त में बसो । बस उसका जयवाद हो, उसकी धुन हो, उसमें हमारी दृष्टि हो, और इसी के प्रताप से फिर इन बाह्य विपत्तियों में रमण मिट जायेगा ।
116―संग प्रसंग विपत्तियों से हटकर स्वभावरुचि करने में भलाई―यह संग प्रसंग विकट विपत्ति है, क्योंकि ये विषय के कारण बनते हैं । धन, वैभव, इज्जत, पोजीशन ये सब संगम एक विपत्ति है, क्योंकि ये सब विकल्प के आश्रयभूत हैं और विकल्प सभी विपत्तिरूप हैं । तो समस्त अनात्मतत्त्वों को अपने से भिन्न जानें । अपना सार अपने में देखें तो यही है सत्य ऋद्धि का प्रकट होना बस उसी की धुन रहे, उसी की धुन में अगर मरण होते तो वह समाधिमरण है । मरण तो होगा जरूर, मगर विलाप कर करके मरे तो दुर्गति है और अपने आपके स्वरूप को निरखते हुए, सोचते हुए, चिंतन करते हुए मरे तो सद्गति है । उसकी दृष्टि हो, उसकी धुन हो, उसका लक्ष्य हो तो बात अवश्य बनती है । तो ऐसे अपने आपके आत्मा की ओर रहते हुए इस पुराने घर को छोड़कर जीव जायेगा तो उससे आगे इसी उन्नति की ही तो बढ़वारी होगी । जैसा भाव लेकर जायेगा उसी की परिणति होगी । समाधिमरण अगर सम्हालना है तो अभी से सावधानी की आवश्यकता है, हमारा उपयोग इस स्वरूप की ओर अधिकाधिक रहे ।