GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 70-71 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
वह जीव महात्मा
- वास्तव में नित्य-चैतन्य, उपयोगी होने से एक ही है;
- ज्ञान और दर्शन ऐसे भेदों के कारण दो भेद-वाला है;
- कर्म-फल-चेतना, कार्य-चेतना और ज्ञान-चेतना ऐसे भेदों द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होने से त्रिलक्षण (तीन लक्षण-वाला) है;
- चार गतियों में भ्रमण करता है इसलिए चतुर्विध भ्रमण-वाला है;
- पारिणामिक, औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होने से पाँच मुख्य गुणों से प्रधानता-वाला है;
- चार दिशाओं में, ऊपर और नीचे इस प्रकार षड्विध भावान्तर-गमन-रूप अपक्रम से युक्त होने के कारण (अर्थात् अन्य भव में जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओं में गमन होता है इसलिए) छह अपक्रम सहित है;
- अस्ति, नास्ति आदि सात भंगों द्वारा जिसका सद्भाव है, ऐसा होने से सात भंग-पूर्वक सद्भाव-वान है;
- (ज्ञानावरणादि) आठ कर्मों के अथवा (सम्यक्त्वादि) आठ गुणों के आश्रय-भूत होने से आठ के आश्रय-रूप है;
- नव पदार्थ-रूप से वर्तता है इसलिए नव-अर्थ-रूप है;
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पन्चेंद्रिय दश स्थानों में प्राप्त होने से दश-स्थान-गत है ॥७०-७१॥