उद्वेलना संक्रमण निर्देश: Difference between revisions
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Revision as of 16:20, 19 August 2020
उद्वेलना संक्रमण निर्देश
1. उद्वेलना संक्रमण का लक्षण
नोट - [करण परिणामों अर्थात् परिणामों की विशुद्धि व संक्लेश से निरपेक्ष कर्म परमाणुओं का अन्य प्रकृतिरूप परिणमन हो जाना, अर्थात् रस्सी का बट खोलनेवत् उसी प्रकृतिरूप हो जाना जिसमें कि संक्रम कर पहले कभी इस प्रकृतिरूप परिणमन किया था, सो उद्वेलना संक्रमण है। इसका भागाहार अंगुल/असं. है, अर्थात् सबसे अधिक है। अर्थात् प्रत्येक समय बहुत कम द्रव्य इसके द्वारा परिणमाया जाना संभव है। यह बात ठीक भी है, क्योंकि बिना परिणामों रूप प्रयत्न विशेष के धीरे-धीरे ही कार्य का होना संभव है।
जो प्रकृति उस समय नहीं बँधती है और न ही उसको बाँधने की उस जीव में योग्यता है उन्हीं प्रकृतियों की उद्वेलना होती है। मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है। यह कांडकरूप होती है अर्थात् प्रथम अंतर्मुहूर्तकाल द्वारा विशेष चयहीन क्रम से तथा द्वितीय अंतर्मुहूर्त में उससे दुगुने चयहीन क्रम से होती है। अध:प्रवृत्त पूर्वक ही होती है। उपांत्य कांडक पर्यंत ही होती है। यह प्रकृति के सर्वहीन निषेकों को परिणमाने पर होता है, थोड़े मात्र पर नहीं। प्रत्येक कांडक पल्य/असं.स्थिति वाला होता है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/349/503/2 वल्वजरज्जुभावविनाशवत् प्रकृतेरुद्वेल्लनं भागाहारेणापकृष्य परप्रकृतितां नीत्वा विनाशनमुद्वेल्लनं।349। = जैसे जेवड़ी (रस्सी) के बटने में जो बल दिया था पीछे उलटा घुमाने से वह बल निकाल दिया। इसी प्रकार जिस प्रकृति का बंध किया था, पीछे परिणाम विशेष से भागाहार के द्वारा अपकृष्ट करके, उसको अन्य प्रकृतिरूप परिणमा के उसका नाश कर दिया (फल-उदय में नहीं आने दिया, पहले ही नाश कर दिया।) उसे उद्वेलन संक्रमण कहते हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/8 करणपरिणामेन विना कर्मपरमाणूनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेल्लनसंक्रमणं नाम। = अध:प्रवृत्त आदि तीन करणरूप परिणामों के बिना ही कर्मप्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होना वह उद्वेलन संक्रमण है।
2. मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
गोम्मटसार कर्मकांड/351,613,616 चदुगतिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पितिण्णि तेउदुगे।...।351। वेदगजोग्गे काले आहारं उवसमस्स सम्मत्तं। सम्मामिच्छं चेगे विगलेवेगुव्वछक्कं तु।614। तेउदुगे मणुवदुगं उच्चं उव्वेल्लदे जहण्णिदरं। पल्लासंखेज्जदिमं उव्वेल्लणकालपरिमाणं।616। = चारों गति वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के चार (आहारक द्विक, सम्यक्त्व, मिश्र) प्रकृतियाँ, पृ., अप., वन., तथा विकलेंद्रियों में देवद्वि., वै.द्वि., नरकद्वि ये छह प्रकृतियाँ, तेजकाय व वायुकाय इन दोनों के (उच्चगोत्र, मनुष्य द्विक) ये तीन प्रकृतियाँ उद्वेलन के योग्य हैं।351। वेदक सम्यक्त्व योग्य काल में आहारक द्विक की उद्वेलना, उपशम काल में सम्यक्त्व प्रकृति वा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना करता है। और एकेंद्रिय तथा विकलेंद्रिय पर्याय में वैक्रियक षट्क की उद्वेलना करता है।614। तेजकाय और वायुकाय के मनुष्यगति युगल और उच्चगोत्र - इन तीन की उद्वेलना होती है, उस उद्वेलना के काल का प्रमाण जघन्य अथवा उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।616।
3. मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना योग्य काल
कषायपाहुड़ 2/2,22/123/105/1 एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती.जह.एगसमओ, उक्क.पलिदोवमस्स असंखे.भागो। = एकेंद्रियों में सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्ति का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है। [क्योंकि यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता नहीं है, इसलिए इस काल में वृद्धि संभव नहीं। यदि सम्यक्त्व प्राप्त करके पुन: नवीन प्रकृतियों की सत्ता कर ले तो क्रम न टूटने के कारण इस काल में वृद्धि होनी संभव है। यदि ऐसा न हो तो अवश्य इतने काल में उन प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है। जिन मार्गणाओं में इनका सत्त्व अधिक कहा है वहाँ नवीन सत्ता की अपेक्षा जानना। देखें अंतर - 2।]
धवला 5/1,6,7/10/8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो। = सम्यक्त्व और सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल के बिना सागरोपम, अथवा सागरोपम पृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/617/821 पल्लासंखेज्जदिमं ठिदिमुव्वेल्लदि मुहुत्तअंतेण। संखेज्जसायरठिदिं पल्लासंखेज्जकालेण। = पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति की अंतर्मुहूर्त काल में उद्वेलना करता है। अतएव एक संख्यात सागरप्रमाण मनुष्यद्विकादि की सत्तारूप स्थिति की उद्वेलना त्रैराशिक विधि से पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में ही कर सकता है, ऐसा सिद्ध है।
4. यह मिथ्यात्व अवस्था में होता है
कषायपाहुड़ 2/2,22/237/126/2 पंचिंदियतिरि.अपज्ज.सव्वपयडीणं णत्थि अंतरं। एवं...सम्मादि. खइय. वेदग. उवसम. सासण.सम्मामि. मिच्छादि....अणाहारएत्ति वत्तव्वं। = पंचेंद्रिय तिर्यंच लब्धि अपर्याप्तकों के सभी प्रकृतियों का अंतरकाल नहीं है। इसी प्रकार...सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि...और अनाहारक जीवों के कहना चाहिए। [इस प्रकरण से यह जाना जाता है कि इन दो प्रकृतियों की उद्वेलना मिथ्यात्व में ही होती है, वेदक सम्यक्त्वावस्था में नहीं, और उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मिथ्यात्वावस्था में ही इनका पुन: सत्त्व नहीं होता। न ही इनका सत्त्व प्राप्त हो जाने पर उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मार्ग में से ही पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। और भी देखें अगला शीर्षक ]।
5. सम्यक् व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना का क्रम
कषायपाहुड़ 2/2,22/248/111/6 अट्ठावीससंतकम्मिओ उव्वेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीसविहत्तिओ होदि। = अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव (पहले) सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है। [तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व की भी उद्वेलना करके 26 प्रकृति स्थान का स्वामी हो जाता है।] ( कषायपाहुड़ 3/373/205/9 )।