उपपत्तिसमा: Difference between revisions
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| <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व भाष्य. 5/1/25</span> <span class="SanskritText">उभयकारणोपपत्ते रुपपत्तिसमः ।25। यद्यनित्यत्वकारणमुपपद्यते शब्दस्येत्यनित्यः शब्दो नित्यत्वकारणमप्युपपद्यतेऽस्यास्पर्शत्वमिति नित्यत्वमप्युपपद्यते। (उभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च) कारणोपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमः।</span> | ||
<span class="HindiText">= पक्ष व विपक्ष दोनों ही कारणों की, वादी और प्रतिवादियों के यहाँ सिद्धि हो जानी उपपत्तिसमा जाति है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादी के पक्ष में अनित्यत्वपने का प्रमाण विद्यमान है तिसी प्रकार मेरे पक्ष में भी नित्यत्वपने का अस्पर्शत्व प्रमाण विद्यमान है। वर्त जाने से यदि शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि कर दोगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतु से शब्द नित्य भी क्यों नहीं सिद्ध हो जायेगा? अर्थात् होवेगा ही।</span> | <span class="HindiText">= पक्ष व विपक्ष दोनों ही कारणों की, वादी और प्रतिवादियों के यहाँ सिद्धि हो जानी उपपत्तिसमा जाति है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादी के पक्ष में अनित्यत्वपने का प्रमाण विद्यमान है तिसी प्रकार मेरे पक्ष में भी नित्यत्वपने का अस्पर्शत्व प्रमाण विद्यमान है। वर्त जाने से यदि शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि कर दोगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतु से शब्द नित्य भी क्यों नहीं सिद्ध हो जायेगा? अर्थात् होवेगा ही।</span> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 4/ न्या. 408/521)</span></p> | ||
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व भाष्य. 5/1/25 उभयकारणोपपत्ते रुपपत्तिसमः ।25। यद्यनित्यत्वकारणमुपपद्यते शब्दस्येत्यनित्यः शब्दो नित्यत्वकारणमप्युपपद्यतेऽस्यास्पर्शत्वमिति नित्यत्वमप्युपपद्यते। (उभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च) कारणोपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमः। = पक्ष व विपक्ष दोनों ही कारणों की, वादी और प्रतिवादियों के यहाँ सिद्धि हो जानी उपपत्तिसमा जाति है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादी के पक्ष में अनित्यत्वपने का प्रमाण विद्यमान है तिसी प्रकार मेरे पक्ष में भी नित्यत्वपने का अस्पर्शत्व प्रमाण विद्यमान है। वर्त जाने से यदि शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि कर दोगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतु से शब्द नित्य भी क्यों नहीं सिद्ध हो जायेगा? अर्थात् होवेगा ही।
( श्लोकवार्तिक 4/ न्या. 408/521)