गणित I.1.3
From जैनकोष
- क्षेत्र के प्रमाणों का निर्देश
ति.प./१/१०२‐११६ (रा.वा./३/३८/६/२०७/२६); (ह.पु./७/३६‐४६); (जं प./१३/१६‐३४); (गो.जी./जी.प्र./११८ की उत्थानिका या उपोद्घात/२८५/७); (ध./३/प्र/३६)।
द्रव्य का अविभागी अंश = परमाणु |
८ जूं=१ यव |
अनन्तानन्त परमा. = १ अवसन्नासन्न |
८ यव = १ उत्सेधांगुल |
८ अवसन्नासन्न = १ सन्नासन्न |
५०० उ. अंगुल = १ प्रमाणांगुल |
८ सन्नासन्न = १ त्रुटरेण(व्यवहाराणु) |
आत्मांगुल (ति.प./१/१०९/१३) = भरत ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्ती का अंगुल |
८ त्रुटरेणु = १ त्रसरेणु (त्रस जीव के पाँव से उड़नेवाला अणु) |
६ विवक्षित अंगुल = १ विवक्षित पाद |
८ त्रसरेणु = १ रथरेणु (रथ से उड़ने वाली धूल का अणु.) |
२ वि. पाद = १ वि. वितस्ति |
८ रथरेणु = उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र. |
२ वि. वितस्ति = १ वि. हस्त |
८ उ.भो.भू.बा. = मध्यम भो.भू.बा. |
२ वि. हस्त = १ वि. किष्कु |
८ म.भो.भू.बा. = जघन्य भो.भू.बा. |
२ किष्कु = १ दंड, युग, धनुष, मूसल या नाली, नाड़ी |
८ ज.भो.भू.बा. = कर्मभूमिज का बालाग्र. |
२००० दण्ड या धनु = १ कोश |
८ क.भू.बालाग्र. = १ लिक्षा (लीख) |
४ कोश = १ योजन |
८ लीख = १ जूं |
नोट—उत्सेधांगुल से मानव या व्यवहार योजन होता है और प्रमाणांगुल से प्रमाण योजन। |
(ति.प./१/१३१‐१३२); (रा.वा./३/३८/७/२०८/१०,२३)
५०० मानव योजन = १ प्रमाण योजन (महायोजन या दिव्य योजन) ८० लाख गज= ४५४५.४५ मील |
१ योजन = ७६८००० अंगुल |
१ प्रमाण योजन गोल व गहरे कुण्ड के आश्रय से उत्पन्न = १ अद्धापल्य (दे. पल्य) |
(१ अद्धापल्य या प्रमाण योजन३)छे जबकि छे = अद्धापल्य की अर्द्धछेद राशि या log२ पल्य = १ सूच्यंगुल (गो.जी./जी.प्र./पृ.२८८/४) |
१ सूच्यंगुल२ = १ प्रतरांगुल |
१ सूच्यंगुल३ = १ घनांगुल |
(१ घनांगुल)अद्धापल्य÷असं (असं=असंख्यात) = जगत्श्रेणी (प्रथम मत) (ध./३/९,२,४/३४/१) |
(१ घनांगुल)छे÷असं. = जगत्श्रेणी (द्वि. मत) |
(छे व असं.=दे. ऊपर) = (ध./३/१,२४/३४/१) |
जगत्श्रेणी÷७ = १ रज्जू (दे. राजू) |
(जगत्श्रेणी)२ = १ जगत्प्रतर |
(जगत्श्रेणी)३ = जगत्घन या घनलोक |
(ध./९/४,१,२/३९/४) = (आवली÷असं)आवली÷असं (आवली = आवली के समयों प्रमाण आकाश प्रदेश) |