ब्रह्म
From जैनकोष
- पुष्पदन्त भगवान् का शासकायक्ष - देखें - तीर्थंकर / ५
- कल्पवासी देवों का एक भेद - देखें - स्वर्ग / ३ ;
- ब्रह्मयुगल का तृतीय पटल - देखें - स्वर्ग / ५ / ३
- कल्पवासी स्वर्गों का पाँचवाँ कल्प - देखें - स्वर्ग / ५ / २ ।
- ब्रह्म का लक्षण
स.सि./७/१६/३५४/४ अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिमाल्यवामने बृंहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । = अहिंसादि गुण जिसके पालन करने पर बढ़ते हैं वह ब्रह्म कहलाता है । (चा.सा./९५/२) ।
ध. ९/४,१,२९/९४/२ ब्रह्मचारित्रं पंचव्रत-समिति-त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । = ब्रह्मका अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि, वह शान्ति के पोषण का हेतु है ।
द्र. सं./टी./१४/४७/५ परमब्रह्मसंज्ञनिजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्न-सुखामृततृप्तस्य सत उर्वशीरम्भातिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्मचर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । = परमब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखामृत से तृप्तहोने के कारण उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा भी जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हो सका अत: वह ‘परम ब्रह्म’ कहलाता है ।
- शब्द ब्रह्म का लक्षण
स.सा./आ./५ इह किल सकलोद्भासि स्यात्पदमुद्रित शब्दब्रह्म ... । = समस्त वस्तुओं को प्रकाश करने वाला और स्यात्पद से चिह्नित् शब्द ब्रह्म है ... ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- सर्वजीव एक ब्रह्म के अशं नहीं - देखें - जीव / २ / ५
- परम ब्रह्म के अपरनाम - देखें - मोक्षमार्ग / २ / ५ ।
- आदि ब्रह्मा - दे ऋषभ नाथ